मेवाड़ का चौहान राजवंश (Mewad rajvansh) पार्ट – 03

महाराणा अमरसिंह प्रथम ( 1597-1620 ई.)

 
यह महाराणा प्रताप के पुत्र थे जिनका राज्याभिषेक महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद 19 जनवरी, 1597 ई. को चावण्ड़ में किया गया। अमरसिंह के विरूद्ध 1599 ई. में अकबर ने शहजादे सलीम (जहाँगीर) को भेजा, परंतु उसने इसमें रूचि नहीं दिखाई। 1605 ई. अकबर की मृत्यु हो गई । तब उसका पुत्र शहजादा सलीम जहाँगीर के नाम से सम्राट बना। सम्राट बनते ही उसने मेवाड़ के प्रति आक्रामक नीति अपनाई और उसने अब्दुल रहीम खान-ए-खाना व शहजादे खुर्रम (शाहजहाँ) के नेतृत्व में दल भेजा और उन्हें दो सख्त आदेश दिये कि मेवाड़ में जो भी व्यक्ति दिखे उसका कत्ले आम कर दो और खड़े खेत-खलिआनों को जलाकर राख कर दो। यह देखकर अमरसिंह का पुत्र कर्णसिंह व कुछ सरदार अमरसिंह के पास गये और उसे मुगलों से संधि करने के लिए आग्रह किया। अमरसिंह ने अपने पुत्र कर्णसिंह व सिसोदिया सरदारों के कहने पर 5 फरवरी, 1615 ई. में मुगलों के साथ संधि की। यह मेवाड़-मुगल संधि अमरसिंह व शहजादे खुर्रम के मध्य हुई, जिसके अनुसार-
 
1. महाराणा मुगल दरबार में उपस्थित नहीं होगा, इसकी जगह इसका ज्येष्ठ पुत्र ही मुगल दरबार में उपस्थित होगा अतः मुगल दरबार में सर्वप्रथम कर्णसिंह गया तथा मेवाड़ के इसी राजा कर्णसिंह को पहली बार एक हजारी मनसबदारी मिली।
 
2. मेवाड़ मुगलों से वैवाहिक संबंध नहीं बनाएगा। 3. मेवाड़ के राजा को चित्तौड़गढ़ दे दिया गया परंतु वह उस दुर्ग की मरम्मत नहीं करवा सकता।
 
इस प्रकार 1615 ई. में मेवाड़ का गौरवपूर्ण इतिहास समाप्त हो गया। 26 जनवरी, 1620 ई. को उदयपुर में महाराणा अमरसिंह की मृत्यु हो गई। इनकी छतरी आहड़ (उदयपुर) में बनी हुई है।
 
ध्यातव्य रहे-अमरसिंह मेवाड़ का पहला महाराणा जिसने मुगलों के साथ संधि की तथा जहाँगीर ने एकमात्र मेवाड़ राज्य के शासक को मुगल दरबार में उपस्थित न होने की छूट दी। इसके बारे में सर टॉमस रो ने कहा कि ‘बादशाह ने मेवाड़ के राणा को आपस में समझौते के तहत् अधीन किया था, न कि बल से’ ।
 

महाराणा कर्णसिंह (1620-28 ई.)

 
अमरसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कर्णसिंह राजा बना। यह मेवाड़ का पहला राजा था, जो मुगल दरबार में उपस्थित हुआ और अकबर के द्वारा लागू की गई मनसबदारी प्रथा से मेवाड़ के इस राजा को प्रथम बार एक हजार की मनसबदारी से अलंकृत किया गया। कर्णसिंह ने 1623-24 ई. में जहाँगीर के विरूद्ध शहजादे खुर्रम (शाहजहाँ) को कुछ दिन देलवाड़ा जैन मंदिर में व कुछ दिन पिछोला झील के जग़मन्दिर महल में ठहराया।
 
ध्यातव्य रहे-इसी महल को देखकर शाहजहाँ ने मुमताज की याद में ताजमहल बनवाया।
 

महाराणा जगतसिंह प्रथम (1628-52 ई.)

 
पिछोला झील में कर्णसिंह के शासनकाल में शुरू किए गए जगमंदिर व जगमहल को पूर्ण करवाया। उदयपुर में जगन्नाथ राय (जगदीश) मंदिर का पंचायतन शैली में निर्माण करवाया। इसी के काल में शाहजहाँ ने मेवाड़ से प्रतापगढ़ की जागीर को अलग किया। इसी ने चित्तौड़ के किले की मरम्मत का कार्य शुरू किया।
 

 महाराणा राजसिंह प्रथम (1652-1680 ई.)

 
महाराणा जगतसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राजसिंह 10 • अक्टूबर, 1652 ई. को मेवाड़ का शासक बना। राजसिंह ने अपने पिता जगतसिंह के द्वारा जारी किए गए चित्तौड़दुर्ग की मरम्मत के कार्य को जारी रखा परंतु जब मुगल बादशाह शाहजहाँ को इसका पता चला तो उसने सादुल्ला खाँ के नेतृत्व में एक फौज मेवाड़ के विरुद्ध भेजी। महाराणा राजसिंह ने इस मुगल सेना का विरोध करना उचित न समझा। सादुल्ला खाँ चित्तौड़ पहुँचकर किले में किए गए समस्त निर्माण कार्यों को तुड़वा दिया।
 
सितंबर, 1657 ई. में जब शाहजहाँ अस्वस्थ हुआ तो उसके पुत्रों में उत्तराधिकारी युद्ध छिड़ गया। इस अव्यवस्था का लाभ उठाते हुए ‘टीका दौड़’ उत्सव का बहाना बनाकर (जिसमें मुहुर्त से वर्ष में पहली बार शिकार का आयोजन राज्य की सीमा से बाहर किया जाता था।) राजसिंह ने 2 मई, 1658 ई. से अपने राज्य के तथा बाहरी मुगल थानों पर हमला कर दिया। राणा इस प्रकार एक-एक कर दूसरे राज्यों को लूटने लगा।
 
राजसिंह खारी नदी के तट पर पहुँचा तो वहाँ उसे दाराशिकोह की सहायता का एक पत्र मिला। राजसिंह जानता था कि औरंगजेब को फतेहाबाद से विजय मिल चुकी है और भविष्य में दिल्ली की शक्ति और सत्ता का केंद्र बिंदु औरंगजेब ही होगा। राजसिंह ने दारा को प्रत्युत्तर में यह लिखकर टाल दिया कि उसके लिए तो सभी राजकुमार बराबर हैं। औरंगजेब राजसिंह के इस सकारात्मक व्यवहार से अत्यधिक प्रसन्न हुआ और औरंगजेब मुगल बादशाह बनते ही राजसिंह के पद को 6000 बढ़ाकर उपहार में डूंगरपुर व बाँसवाड़ा के परगने दे दिए। मेवाड़ – मुगल संबंध ज्यादा दिनों तक अच्छे नहीं रहे। औरंगजेब व राजसिंह के मध्य काफी तनाव उत्पन्न हो गया जिसके कारण निम्न हैं-
 
1. औरंगजेब ने मारवाड़ के राठौड़ों की छोटी शाखा रूपनगर (किशनगढ़) की राजकुमारी चारूमति से विवाह करने का निश्चय कर सगाई का डोला किशनगढ़ भेजा। चारूमति के भाई मानसिंह ने विवश होकर यह संबंध स्वीकार कर लिया था। राजकुमारी इस शादी के प्रस्ताव से दुखी होकर व महाराणा राजसिंह की वीरता से मुग्ध होकर मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के पास एक संदेश भिजवाया उसमें लिखा था कि “क्या राजहंसी को बगुले की सहेली होना पड़ेगा। महाराज में आपसे निश्चय कहती हूँ कि जो आप इस विपत्ति से मेरा उद्धार नहीं करेंगे तो मैं अवश्य ही आत्मघात करके प्राणों को त्याग दूँगी।” राजसिंह ने तुरंत उसकी सहायता की और उससे शादी कर उसे मुस्लिम हाथों से बचाया।
 
ध्यातव्य रहे इस युद्ध में रतनसिंह चूड़ावत मारे गए। उनकी ऐतिहासिक छतरी 1664 ई. में देसूरी की नाल (पाली व राजसमंद की सीमा पर) में बनी हुई है। प्रसिद्ध कवि मेघराज ‘मुकुल’ ने इसी हाड़ा रानी पर ‘सैनाणी’ नामक कविता लिखी जिसके बोल हैं- “चूंडावत माँगी सैनाणी सिर काट दे दियो क्षत्राणी” | 
 
2. औरंगजेब कट्टर मुसलमान था। इसीलिए उसने 1669 ई. में एक फरमान जारी कर मंदिरों को तोड़ने व हिंदुओं की पाठशालाओं और मूर्तियों को नष्ट करने की आज्ञा दी। बादशाह के डर से श्रीनाथजी की मूर्तियों को लेकर भागे गोसांइयों को राजसिंह ने शरण देकर सिहाड़ (नाथद्वारा) में श्रीनाथजी की मूर्ति, द्वारिकाधीश की मूर्ति कांकरोली (राजसमंद) में स्थापित कर वहाँ मंदिर बनवाया। राजसिंह ने 1664 ई. में उदयपुर में अंबा माता का मंदिर भी बनवाया।
 
3. औरंगजेब ने 2 अप्रैल, 1679 ई. में हिंदुओं पर जजिया कर (गैर मुसलमानों पर लगाया जाने वाले कर) लगाया तब राजसिंह ने हिंदू राष्ट्र के अध्यक्ष की हैसियत से इसका विरोध किया।
 
4. राजसिंह ने औरंगजेब के विद्रोही मारवाड़ के अजीतसिंह व दुर्गादास राठौड़ को शरण दी थी।
 
इस प्रकार मेवाड़ व मारवाड़ दोनों रियासतों के संबंध अच्छे बन गए। राजसिंह, दुर्गादास व अजीतसिंह तीनों ही औरंगजेब के कट्टर विरोधी हो गए।
 
ध्यातव्य रहे उस समय सम्पूर्ण उत्तरी भारत में औरंगजेब का प्रतिरोध करने वाला एकमात्र शासक राजसिंह था । 
 
औरंगजेब इन तीनों की ताकत से बौखला गया क्योंकि इन तीनों ने मुगल राज्य की नींव हिला दी थी। औरंगजेब ने अपने पुत्र अकबर द्वितीय को मेवाड़ व मारवाड़ रियासत का दमन करने के लिए मेवाड़ भेजा। शहजादा अकबर शाही सेना के साथ मेवाड़ पहुँचा। मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने अकबर को राजगद्दी का लालच देकर अकबर के सेनापति तहव्वर खाँ के माध्यम से अपनी ओर मिला लिया।
 
ध्यातव्य रहे-अकबर द्वितीय ने 1 जनवरी, 1681 ई. को पाली जिले के नाड़ौल कस्बे में स्वयं को ‘भारत का सम्राट’ घोषित कर दिया ।
 
इसका पता जब औरंगजेब को चला तो वह स्वयं उसके विद्रोह को दबाने के लिए आया। औरंगजेब ने विरोधियों की शक्ति को अधिक देखकर कूटनीति का प्रयोग करते हुए 15 जनवरी, 1681 ई. को धोखे से शहजादे अकबर के सेनापति तहव्वर खाँ को मरवा दिया। औरंगजेब ने अकबर के नाम एक जाली पत्र उसकी प्रशंसा में लिखकर राजसिंह व दुर्गादास के खेमे के बाहर डलवा दिया। इस पत्र में लिखा था, कि “बेटा हो तो तेरा जैसा जो मेरे दोनों दुश्मनों को सुबह होते ही तू हमारी सेना में आ मिलना।” राजसिंह व दुर्गादास ने इस पत्र को पढ़ा तो उनका दिमाग चकरा गया और अकबर को गद्दार समझकर उसे वहीं मैदान में छोड़कर अपनी रियासत में आ गए। 
 
शहजादे अकबर ने सुबह उठकर देखा तो राजसिंह और दुर्गादास अपने खेमे में नहीं थे। उसने सोचा कि राजपूत जाति धोखा तो नहीं करती लेकिन इन्होंने मेरे साथ ऐसा क्यों किया। शहजादा अकबर वापस राजसिंह और दुर्गादास राठौड़ के पास गया तो उन्होंने उसे पत्र दिखाते हुए कहा कि ” अच्छा बेटा तू हम दोनों को मरवाना चाहता था।” अकबर ने उनसे कहा कि “यह पत्र मेरे बाप के द्वारा लिखा गया जाली पत्र है। उसकी सोच हमारी सोच से हमेशा दो कदम आगे रहती है।” तब राजसिंह और दुर्गादास ने कहा कि शहजादे अकबर इस गलती के लिए हमें माफ कर दो। ‘अभी क्या हुआ है, कौनसे मियां मर गये और रोजे घट गए’, हम वापस तुम्हारा साथ देंगे। कुछ दिनों के बाद 1680 ई. में महाराणा राजसिंह को विष दे दिया गया जिस कारण राजसिंह की कुम्भलगढ़ दुर्ग में मृत्यु हो गई ।
 
ध्यातव्य रहे- राजसिंह की छतरी कुंभलगढ़ दुर्ग की तलहटी में बनी हुई है।
 
राजसिंह ने अपने साथियों व प्रजा में सैनिक जीवन की अभिव्यक्ति के लिए ‘विजय कटकातु’ की उपाधि धारण की। महाराणा राजसिंह ने अकाल राहत के तहत् राजसमंद झील का निर्माण करवाया।
 
 
राजसमुद झील / राजसमंद झील कांकरोली में राजसिंह ने 1662-76 ई. में इसका निर्माण करवाया। इस झील में गोमती नदी का पानी गिरता है। यह राज्य की एकमात्र झील है जिसके नाम पर जिले का नाम पड़ा। राज्य सरकार ने इसे धार्मिक दृष्टि से पवित्र झील घोषित किया। इसके उत्तरी भाग को नौ चौकी कहते हैं, जहाँ रणछोड़ भट्ट द्वारा संस्कृत भाषा में 25 शिलालेख लिखे गए, , जिसमें मेवाड़ का इतिहास लिखा हुआ है। इन्हें ‘राजप्रशस्ति’ के नाम से जाना जाता है, जो कि संसार की सबसे बड़ी प्रशस्ति है। यह राजस्थान की दूसरी बड़ी कृत्रिम झील है, जबकि पूर्वी भाग पर प्रसिद्ध ऐरीकेसन गार्डन बना हुआ है।
 
रामरस दे
 
रामरसदे अजमेर के पृथ्वीसिंह की पुत्री थी, जिसका विवाह मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के साथ हुआ। रामरस दे ने 1675 ई. में देबारी, उदयपुर में ‘जया बावड़ी’ का निर्माण करवाया, जिसे
 
वर्तमान में ‘ त्रिमुखी बावड़ी’ कहा जाता है। इसी बावड़ी पर रणछोड़ भट्ट द्वारा रचित शिलालेख अंकित है।
 
ध्यातव्य रहे-मांचातोड़ सैनिक-1670 में जब औरंगजेब ने आक्रमण किया, तो उदयपुर के जगदीश मंदिर की सुरक्षा कर रहे 20 सैनिकों ने वीरता पूर्वक लड़ते हुए प्राण त्यागे। इससे पूर्व वो मांचा (खाट) लगाकर मंदिर की रक्षा करते थे ।
 
महाराणा राजसिंह द्वारा किये गये कार्य एवं उपलब्धियाँ निम्न है- 1. इन्होंने राजसमुद्र झील / राजसमंद झील का निर्माण करवाया।
 
2. इनके काल में नाथद्वारा चित्र शैली / वल्लभ शैली का विकास हुआ।
 
3. इन्होंने राजनगर (राजसमंद) कस्बे की स्थापना की।
 
4. इन्होंने राजनगर में राजनगर बावड़ी का निर्माण करवाया। 5. इन्होंने बड़ी गाँव (उदयपुर) के समीप जनसागर तालाब तथा देबारी (उदयपुर) में देबारी तालाब का निर्माण करवाया।
 
6. इन्होंने प्रमुख महल / किले / दरवाजे का निर्माण करवाया, जिसमें उदयपुर के सिटी पैलेस के कुवर पदे में सर्वऋतु विलास महल व सर्वऋतु बाग का निर्माण तथा देबारी (उदयपुर) किले का निर्माण तथा देबारी दरवाजे का निर्माण करवाया।
 
7. राजसमंद झील के समीप पहाड़ी पर तोहन दुर्ग का निर्माण तथा रूठी रानी के महल का निर्माण करवाया। 8. इन्होंने सिंहाड़, नाथद्वारा में श्री नाथ जी के मंदिर का निर्माण
 
करवाया।
 
9. इन्होंने कांकरोली (राजसमंद) में राजसमंद झील के किनारे द्वारिकाधीश जी के मंदिर का निर्माण करवाया।
 
10. इन्होंने नौ चौकी की पाल (राजसमंद झील पर) पर घेवरमाता का मंदिर बनवाया। (यह राजस्थान की एकमात्र कुँवारी सती हुई थी ) 11. अम्बामाता का मंदिर तथा राजराजेश्वर माता का मंदिर देबारी (उदयपुर) में बनवाया।

महाराणा जयसिंह (1680-98 ई.)

 
राजसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जयसिंह मेवाड़ का शासक बना जिसने कुछ समय औरंगजेब से संघर्ष के बाद औरंगजेब के साथ संधि कर ली। जयसिंह ने उदयपुर में गोमती नदी पर जयसमंद झील ‘बनवाई, जिसका प्राचीन नाम ढेबर झील था। यह झील राजस्थान की सबसे बड़ी मीठे पानी की कृत्रिम झील है। इसी जयसमंद झील में सात टापू हैं, जिसके सबसे बड़े टापू का नाम-बाबा का भागड़ा व छोटे टापू का नाम-प्यारी है, जिस पर अधिकतर मीणा जाति रहती है। इस झील से दो नहरें श्याम नहर व भाट नहर सिंचाई के लिए निकाली गई है।
 
जब जयसिंह औरंगजेब से मिल जाता है, तो दुर्गादास शहजादे अकबर को लेकर मारवाड़ चला जाता है। औरंगजेब पीछा करते हुए वहाँ जा पहुँचता है, तो दुर्गादास शहजादे अकबर को दक्षिण भारत में मराठा शिवाजी के पुत्र शम्भा जी की सुरक्षा में छोड़ आता है लेकिन औरंगजेब वहाँ भी पहुँच जाता है, तो अकबर फिर भारत छोड़कर फारस चला जाता है। ध्यान रहे-दक्षिण भारत को औरंगजेब की कब्र कहते हैं ।
 

महाराणा अमरसिंह द्वितीय (1698-1710 ई.)

 
अमरसिंह द्वितीय के काल में 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो गई थी, तो उसके पुत्रों में उत्तराधिकारी युद्ध शुरू हुआ। उसके चार पुत्र- मुअज्जम, आजम, कामबख्श, शहजादा अकबर थे। अकबर तो भारत छोड़कर फारस चला गया था। कामबख्श को राजा बनने की कोई इच्छा नहीं थी, अतः मुअज्जम व आजम दोनों के मध्य 1707 में जाजऊ के मैदान में (उत्तरप्रदेश) युद्ध हुआ। इस युद्ध में मेवाड़ व मारवाड़ रियासतों ने भाग नहीं लिया जबकि दुर्गादास ने इस युद्ध का फायदा उठाते हुए मारवाड़ के कुछ प्रांतों पर अधिकार कर अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा बना दिया। परंतु आमेर के शासक सवाई जयसिंह ने इस युद्ध में भाग लिया और आजम का साथ दिया, तो मुअज्जम ने जयसिंह के भाई विजयसिंह को सशर्त (जीतने के बाद उसे आमेर का राजा बनायेगा) अपनी ओर मिलाया। 
 
युद्ध में मुअज्जम की जीत हुई। जीतते ही सर्वप्रथम उसने अपना नाम बहादुर शाह प्रथम किया और इसी नाम से वह बादशाह बना । विजयसिंह को आमेर का शासक बनाया और आमेर का नाम बदलकर इस्लामाबाद व बाद में मोमीनाबाद कर दिया। आमेर के शासक सवाई जयसिंह व मारवाड़ शासक के अजीतसिंह को अपना सूबेदार बनाया। एक बार ये दोनों मुअज्जम (बहादुर शाह प्रथम) की तरफ से युद्ध करने जा रहे थे, तो रास्ते में इन दोनों की आपस में मुलाकात हो जाती है और आपस में अपनी-अपनी दुख भरी व्यथा कहते हैं और दोनों मिलकर मेवाड़ के राजा अमरसिंह द्वितीय के पास सैनिक सहायता माँगने जाते हैं। अमरसिंह देबारी समझौता 1708 ई. के तहत सशर्त (सवाई जयसिंह मेरी पुत्री चन्द्रा कुंवारी के साथ शादी करे और उसका पुत्र ही आमेर का भावी राजा बने) सहायता देने को तैयार हो गया। जयसिंह ने यह बात स्वीकार कर ली। इसका पता बहादुर शाह प्रथम को चला वह भी अमरसिंह के पास गया उसने अमरसिंह से कहा कि यदि ये दोनों मेरे से माफी मांग ले तो इन्हें वापिस राजा बना दूँगा। उन्होंने उससे माफी माँगी और सवाई जयसिंह को आमेर का व अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा बना दिया गया।
 

महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय (1710-34 ई.)

 
1733 ई. में मराठों ने आमेर के शासक सवाई जयसिंह को मंदसौर (मध्य प्रदेश) के युद्ध में पराजित किया। सवाई जयसिंह मेवाड़ के राणा संग्रामसिंह के पास पहुँचा और राजपूताने पर मराठों के बढ़ते हस्तक्षेप को रोकने के लिए राजपूतों को इकट्ठा करके मराठों के विरुद्ध मुकाबला करने की योजना बनाने के लिए एक सम्मेलन बुलाने की योजना बनाई। सम्मेलन बुलाने का स्थान हुरड़ा को तय किया, जो भीलवाड़ा में स्थित है तथा तारीख 17 जुलाई, 1734 तय की गई व अध्यक्ष संग्राम सिंह को बनाया गया लेकिन तभी जनवरी, 1734 में संग्रामसिंह की मृत्यु हो जाने के कारण अध्यक्षता जगतसिंह द्वितीय ने की, परंतु राजाओं के आपसी लालच के कारण यह सम्मेलन असफल रहा। संग्रामसिंह ने उदयपुर में सहेलियों की बाड़ी बनवाई।
 

महाराणा जगतसिंह द्वितीय (1734-51 ई.)

 
17 जुलाई, 1734 ई. को आयोजित हुरणा सम्मेलन की अध्यक्षता महाराणा जगतसिंह ने की। पेशवा बाजीराव प्रथम जनवरी, 1736 ई. •में उदयपुर पहुँचे और इसी समय मेवाड़ राज्य ने प्रथम बार मराठों को ‘कर’ देने का समझौता किया था। महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने पिछोला झील में जगत निवास महल का निर्माण करवाया, तो वहीं इसके दरबारी नन्दराम के द्वारा जगत विलास ग्रंथ की रचना की गयी थी महाराणा जगतसिंह द्वितीय की मृत्यु 5 जून, 1751 ई. को हुई। इसके बाद प्रतापसिंह द्वितीय (1751-54 ई.) और उसके बाद राजसिंह द्वितीय (1754-61 ई.) मेवाड़ के शासक हुये।
 

महाराणा अरिसिंह (1761-73 ई.)

 
महादजी सिंधिया ने मेवाड़ के उत्तराधिकार संघर्ष (अरिसिंह और रतनसिंह के मध्य) में हस्तक्षेप करते हुए 16 जनवरी, 1769 ई. को उज्जैन के निकट क्षिप्रा नदी के तट पर अरिसिंह को पराजित किया। 9 मार्च, 1773 ई. को बूंदी के शासक राव अजीतसिंह ने शिकार खेलते समय धोखे से अरिसिंह की हत्या कर दी, तो वहीं अरिसिंह के बाद उसका अल्पवयस्क पुत्र हम्मीर सिंह द्वितीय मेवाड़ का शासक बना जिसकी 6 जनवरी, 1778 ई. को बंदूक फट जाने पर हुए घाव के कारण मृत्यु हो गई ।
 

महाराणा भीमसिंह (1778-1828 ई.)

 
भीमसिंह के एक पुत्री थी, जिसका नाम कृष्णा कुमारी था। उसकी सगाई मारवाड़ के राजा भीमसिंह राठौड़ के साथ कर दी परंतु शादी से पहले ही भीमसिंह की मृत्यु हो गई तो भीमसिंह सिसोदिया ने उसकी सगाई तोड़कर जयपुर के राजा जगतसिंह के साथ कर दी। तब मारवाड़ का राजा भीमसिंह राठौड़ का भाई मानसिंह राठौड़ बना । मानसिंह राठौड़ ने भीमसिंह सिसोदिया से कहा कि अभी तक हमारा वंश जीवित है अर्थात् मेरा भाई भीमसिंह मरा है मैं तो अभी जीवित हूँ कृष्णा कुमारी के साथ मैं शादी करूँगा, तो भीमसिंह ने कहा कि जयपुर व मारवाड़ में से जो जीतेगा उसी के साथ मैं मेरी बेटी का विवाह कर दूँगा और फिर मारवाड़ के शासक मानसिंह व आमेर के शासक जगतसिंह के मध्य 13 मार्च, 1807 में गिंगोली का युद्ध (परबतसर, नागौर) हुआ। इस युद्ध में जगतसिंह अमीर खाँ पिण्डारी की सहायता से विजयी हो जाता है लेकिन टोंक के अमीर खाँ पिण्डारी के कहने पर 1810 में कृष्णा कुमारी ने जहर लेकर आत्महत्या कर ली। भीमसिंह ने कर्नल जेम्स टॉड के कहने पर 1818 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ सहायक संधि की।
 

महाराणा जवान सिंह (1828-38 ई.)

 
1831 ई. में भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने अपनी अजमेर यात्रा के दौरान इनसे अजमेर में मुलाकात की। इन्होंने अपनी पूर्वजों की राजधानी के अवलोकन हेतु अपने कुछ प्रतिनिधि नेपाल भेजे। महाराणा जवान सिंह ने पिछोला झील के तट पर जल निवास महल बनवाये। इनकी मृत्यु 30 अगस्त, 1838 ई. को हुई।
 

महाराणा सरदार सिंह (1838-42 ई.)

 
जवान सिंह के कोई पुत्र नहीं था, इसलिये बागोर के शासक शिवदान सिंह के ज्येष्ठ पुत्र सरदार सिंह को मेवाड़ की गद्दी पर बिठाया गया। इसके समय में 1839 ई. में भोमट के भीलों के विद्रोह हुए, तो वहीं इन विद्रोहों पर प्रभावी नियंत्रण बनाये रखने के लिए खैरवाड़ा में 1841 ई. में मेवाड़ भील कोर का गठन किया गया जिसका आगे चलकर 1950 ई. में राजस्थान पुलिस विभाग में विलय कर दिया गया। इनकी मृत्यु 1842 ई. में हुयी।
 

महाराणा स्वरूप सिंह (1842-61 ई.)

 
इन्होंने मेवाड़ में जाली सिक्कों के प्रचलन को समाप्त कर नये । स्वरूपशाही सिक्कों का प्रचलन शुरू किया। इन सिक्कों के पृष्ठ पर दोस्ती लंधन तथा अग्र भाग पर चित्रकूट उदयपुर लिखा हुआ था तथा ये चाँदी के सिक्के थे। मेवाड़ राज्य में कन्या वध (1844 ई.), डाकन प्रथा (1853 ई.), सती प्रथा (1861 ई.) और समाधि प्रथा पर प्रतिबंध महाराणा स्वरूप सिंह के समय ही लगाया गया था उल्लेखनीय है कि इनकी मृत्यु पर इनकी पासवान ऐंजाबाई सती हुई जो मेवाड़ महाराणाओं के साथ सती होने की अंतिम घटना थी।
 
 

महाराणा शंभु सिंह (1861-74 ई.)

 
महाराणा स्वरूप सिंह का दत्तक पुत्र जो 1861 ई. में मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। इसके नाबालिग होने के कारण राज्य प्रबंधन के लिए पॉलिटिकल एजेंट मेजर टेलर की अध्यक्षता में रीजेन्सी कौंसिल की स्थापना की गई। इसके समय में सती प्रथा, दास प्रथा व बच्चों के क्रय-विक्रय पर कठोर प्रतिबंध लगाये गये। इनके समय शंभु पलटन के नाम से नयी सेना का गठन किया गया तथा 1863 ई. में उदयपुर में शंभु पाठशाला खोली गई, तो वहीं 1868 ई. के लगभग भयंकर अकाल पड़ा व हैजा महामारी फैल गयी, जिससे निपटने के लिए इन्होंने अकाल राहत कार्य चलाये और खैरातखाना की स्थापना की। महाराणा शंभु सिंह की मृत्यु 16 जुलाई, 1874 ई. को हुयी, तो वहीं ये मेवाड़ के पहले शासक थे जिनके साथ कोई भी रानी या पासवान सती नहीं हुयी।
 
ध्यातव्य रहे- जब ब्रिटिश सरकार ने महाराणा शंभु सिंह को ग्रांड कमाण्डर ऑफ द स्टार ऑफ इण्डिया का खिताब देने की बात कही, तो उन्होंने कहा कि मेवाड़ के महाराणा तो पहले से ही हिन्दूआ सूरज कहलाते है, उन्हें स्टार खिताब देने की जरूरत नहीं है।
 

महाराणा सज्जन सिंह (1874-84 ई.)

 
ये बागोर ठिकाने के शक्तिसिंह के पुत्र थे और राज्यारोहण के समय नाबालिग होने के कारण शासन प्रबंध एजेंसी कौंसिल ने चलाया। 1877 ई. के दिल्ली दरबार में इन्होंने भाग लिया, तो वहीं 14 फरवरी, 1878 ई. को मेवाड़ राज्य ने कम्पनी के साथ नमक समझौता किया जिससे कई लोगों का रोजगार छिन गया। इनके समय में शासन प्रबन्ध और न्याय कार्य के लिए महेन्द्रराज सभा का गठन किया गया। इन्होंने श्यामलदास को कविराजा की उपाधि प्रदान की थी। महाराणा सज्जन सिंह ने सज्जन यंत्रालय छापाखाना स्थापित करवाकर सज्जन कीर्ति सुधारक नामक साप्ताहिक प्रकाशन आरंभ करवाया। महाराणा ने कर्नल वाल्टर के नाम पर वाल्टर जनाना अस्पताल और स्वयं के नाम सज्जन अस्पताल खुलवाये, तो वहीं सज्जन वाणी विलास नामक पुस्तकालय की स्थापना भी इनके द्वारा की गयी। 23 नवम्बर, 1881 ई. को लॉर्ड रिपन ने चित्तौड़ आकर इनको ग्राण्ड कमाण्डर ऑफ द स्टार ऑफ इण्डिया का खिताब प्रदान किया।
 

महाराणा फतेहसिंह (1884-1930 ई.)

 
ये महाराणा सज्जन सिंह के दत्तक पुत्र थे, जिन्होंने 1889 ई. में उदयपुर में वाल्टरकृत राजपूत हितकारिणी सभा की स्थापना की, जिसका उद्देश्य राजपूतों में बहुविवाह, बाल विवाह व फिजूलखर्ची रोकना था। इन्होंने 1889 ई. में महारानी विक्टोरिया के 50 वर्ष पूरे होने पर सज्जन निवास बाग में विक्टोरिया हॉल का निर्माण करवाया, तो वहीं ब्रिटिश राजकुमार कनॉट के मेवाड़ आगमन पर कनॉट बाँध का निर्माण करवाया जिसका नाम बाद में फतेहसागर रखा गया। प्रसिद्ध बिजौलिया किसान आन्दोलन की शुरूआत महाराणा फतेहसिंह के काल में 1897 ई. में हुई थी। 1899 ई. में भंयकर अकाल की स्थिति उत्पन्न होने पर महाराणा ने अकाल राहत का कार्य चलाया लेकिन व्यवस्था अपर्याप्त रही तथा इस अकाल से मेवाड़ में लगभग 8 लाख लोग प्रभावित हुए। फतेहसिंह 1903 ई. में दिल्ली दरबार में शामिल होने पहुँचे, लेकिन केसरीसिंह बारहठ का चेतावनी रा चूंगट्या पढ़कर दरबार में शामिल हुए बिना लौट आये। महाराणा ने मेवाड़ लांसर्स नामक नया रिसाला गठित किया, जिसने प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की सहायता की।
 

महाराणा भूपाल सिंह (1930-56 ई.)

 
ये मेवाड़ रियासत के अन्तिम शासक थे। 18 अप्रैल, 1948 ई. उदयपुर रियासत का विलय संयुक्त राजस्थान में किया गया। को राज्य के एकीकरण के बाद इनको महाराज प्रमुख बनाया गया। मेवाड़ में घटित बिजौलिया किसान आन्दोलन, बेगूं किसान आन्दोलन, मेवाड़ प्रजामण्डल आन्दोलन इनके समय की प्रमुख घटनाएँ थी।

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