राजस्थान में किसान आन्दोलन
राजस्थान में किसान आन्दोलन जागीरदारों, सामन्तों आदि के द्वारा आर्थिक कर वसूली व उनके द्वारा किये गये अत्याचारों के विरूद्ध शुरू हुए। जागीरदार अपनी विलासिताओं को पूर्ण करने के लिए किसानों पर लाग-बाग कर (समय-समय पर बिना इच्छा के दिए जाने वाले उपहार) तथा बेगार कर (वह कार्य जिसके बदले व्यक्ति को मेहनताना प्राप्त नहीं हो यह शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार का होता है।) ले रहे थे।
इन्हीं के परिणामस्वरूप राजस्थान में किसान आन्दोलन का उदय हुआ। राजस्थान में मेवाड़ क्षेत्र ने कृषक आंदोलन (किसान आन्दोलन) प्रारम्भ करने में पहल की थी।
‘लाटा और कूँता’ का संबंध उपज पर कर आँकने की पद्धति से है तो भूमि बंदोबस्त की साद प्रथा का संबंध मेवाड़ राज्य से है। जागीरदारों से वसूला जाने वाला कर छछूंद कहलाता है तो अड़सट्टा जयपुर राज्य का भूमि संबंधी रिकॉर्ड है। राजस्थान के प्रत्येक राज्य में महकमा बकायत होता था, जो अच्छी फसल के समय शेष राजस्व वसूलता था। ईजारा राजस्व की ठेका प्रणाली के लिए जाना जाता है।
मध्यकालीन राजस्थान में जब्ती भू-लगान निर्धारण की एक विधि थी । मटक, बिछायत, चू-सराई आदि राजस्थान में प्रचलित स्थानीय करों के नाम हैं। मदद-ए-माश मध्यकालीन राजपूत शासन में कुलीन वर्ग को दी जाती थी।
खालसा भूमि राजा के नियंत्रण में होती थी, जागीरी भूमि पर जागीरदार या ठिकानेदार का पैतृक नियंत्रण होता था, भोमियों को कुछ भूमि उनकी चौकीदारी की सेवाओं तथा मार्गों की सुरक्षा के कर्तव्यों का पूरा करने के लिए दी जाती थी तो चरणौती भूमि एक चारागाह भूमि होती है जो गाँव के पशुओं के लिए चारा उगाने के लिए दी जाती थी जिस पर ग्राम पंचायत का नियंत्रण होता था ।
ये भी जानें :-
किसानों से वसूल की जाने वाली विविध लाग-बागों का उल्लेख चीकली ताम्रपत्र 1483 ई. से प्राप्त होता है। भूमि के प्रकार- डीमरू (कुएँ के पास वाली भूमि), गोरमों (गाँव के पास वाली भूमि), गलत-हाँस (पानी से भरी हुई भूमि), स्थल (ऊँची भूमि), वास्तु (निवास योग्य भूमि) एवं पीवल (सिंचाई युक्त भूमि) कर के प्रकार-हिरण्य (नकद भूमि कर), मेय (अनाज के रूप में भूमि कर), दाण (चुंगी), मंडपिका (चुंगी कर), पंचकुल (अर्द्ध सामाजिक व राजनीति संस्था), उंद्रग (भूमिकर), खड़लाखड़ (लकड़ी पर कर)। (किसान आन्दोलन)
बिजौलिया किसान आन्दोलन
बिजौलिया मेवाड़ रियासत का ‘अ’ श्रेणी का ठिकाना था तथा बिजौलिया वर्तमान में भीलवाड़ा जिले में पड़ता है। भारत के प्रथम संगठित किसान आन्दोलन का श्रेय मेवाड़ के ‘बिजौलिया क्षेत्र’ (भीलवाड़ा) को जाता है। यहाँ के क्षेत्र के अधिकतर किसान ‘धाकड़ जाति’ के थे (लगभग 60 प्रतिशत) ।
उल्लेखनीय है कि धाकड़ जाति मुख्यतः चित्तौड़गढ़ व भीलवाड़ा जिलों में निवास करती है। बिजौलिया ठिकाने के संस्थापक ‘अशोक परमार’ थे जिनका मूल निवास स्थान ‘जगनेर’ (भरतपुर वर्तमान आगरा) था। अशोक परमार ने 1527 ई. में ‘खानवा के युद्ध’ में बड़ी वीरता से राणा सांगा की तरफ से युद्ध किया, जिससे प्रसन्न होकर राणा सांगा ने ‘ऊपरमाल की जागीर ‘ उन्हें उपहार में दी। ऊपरमाल जागीर का सदर मुकाम बिजौलिया था जो मेवाड़ के अर्न्तगत आता था।
1894 ई. में बिजौलिया के जागीरदार राव गोविन्द दास की मृत्यु तक जागीरदार व किसानों के बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंध बने रहे, तो वहीं 1894 ई. में नया जागीरदार ‘राव कृष्णसिंह’ बना, जिसके समय बिजौलिया के किसानों से 84 प्रकार का लगान वसूल किया जाता था, जिससे किसानों में असंतोष बढ़ रहा था। (#किसान आन्दोलन)
1897 ई. में गिरधरपुरा (भीलवाड़ा) नामक गाँव में गंगाराम धाकड़ के पिता के मृत्युभोज के अवसर पर धाकड़ जाति के हजारों किसान इकट्ठे हुए और उन्होंने साधु सीताराम दास के कहने पर ठाकरी पटेल व नानक जी पटेल को कृष्ण सिंह की शिकायत करने के लिए महाराणा फतेहसिंह के पास उदयपुर भेजा तथा महाराणा ने राजस्व अधिकारी हामिद हुसैन को इसके लिए जाँच अधिकारी नियुक्त किया, परन्तु इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
जागीरदार राव कृष्णसिंह ने नानकजी पटेल व ठाकरी पटेल को जागीर क्षेत्र से निष्कासित कर दिया। बिजौलिया किसान आन्दोलन तीन चरणों में चला प्रथम चरण (1897-1915 ई.), द्वितीय चरण (1916-23 ई.) तथा तृतीय चरण (1923-41 ई.)।
1903 ई. में राव कृष्णसिंह ने ऊपरमाल की जनता पर ‘चँवरी कर’ लगा दिया, जिससे परेशान होकर किसानों ने खेतों की ‘पड़त’ छोड़ दी, जिससे घबराकर राव कृष्णसिंह ने 1904 ई. में चँवरी कर (लड़की की शादी में 5 रु. कर देना) को हटा दिया और लगान उपज के आधे स्थान पर 2/5 कर ही लेने की घोषणा की। (#किसान आन्दोलन, किसान आन्दोलन)
1906 ई. में पृथ्वीसिंह नया जागीरदार बना। नये जागीरदार के बनते ही जनता पर ‘तलवार बंधाई कर’ (जो एक उत्तराधिकार कर था ) लगा दिया। ध्यान रहे – राजस्थान की एकमात्र रियासत जैसलमेर थी
जहाँ उत्तराधिकारी शुल्क नहीं लिया जाता था। पृथ्वीसिंह ने 1904 में दी गयी रियायतों को भी समाप्त कर दिया। किसानों ने साधु सीतारामदास, फतहकरण चारण व ब्रह्मदेव के नेतृत्व में तलवार बंधाई कर का विरोध करते हुए 1913 ई. में ऊपरमाल के क्षेत्र को पड़त रखवाकर ठिकाने की भूमि का कर नहीं दिया। 1914 ई. में पृथ्वी सिंह के बाद उसका अल्पवयस्क पुत्र केसरी सिंह जागीरदार बना।
अतः महाराणा ने अमरसिंह राणावत को बिजौलिया का प्रशासक नियुक्त कर दिया। प्रशासक ने किसानों को अनेक प्रकार की रियायतें दी, लेकिन ठिकाने के कर्मचारियों ने उन रियायतों को लागू नहीं किया 1914 ई. में चित्तौड़ में विद्या प्रचारिणी सभा का अधिवेशन हुआ, जिसमें साधु सीताराम दास ने विजयसिंह पथिक को बिजौलिया आमंत्रित किया।
ध्यातव्य रहे- विजयसिंह पथिक का वास्तविक नाम भूपसिंह था, वह बुलन्दशहर (उ.प्र.) जिले के गुढावली गाँव का रहने वाला था। भूपसिंह रासबिहारी बोस के क्रान्तिकारी दल का सदस्य था। राजस्थान में भूपसिंह को क्रान्तिकारी गतिविधियों के सन्देह में बन्दी बनाकर टॉडगढ़ (ब्यावर) की जेल में डाल दिया गया। कुछ समय बाद वह जेल से भाग निकला तथा अपना नाम ‘विजय सिंह पथिक’ कर राजस्थानी रहन-सहन धारण कर लिया।
1916 ई. में किसानों ने साधु सीताराम दास की अध्यक्षता में किसान पंच बोर्ड की स्थापना की और युद्ध कर (प्रथम विश्वयुद्ध के समय) देने से मना कर दिया। साधु सीताराम दास के आग्रह पर 1916 ई. में विजयसिंह पथिक ने बिजौलिया किसान आन्दोलन का नेतृत्व संभाला।
विजयसिंह पथिक ने 1917 में ऊपरमाल पंच बोर्ड (बिजौलिया किसान पंचायत) की स्थापना की और श्रीमन्ना पटेल को इसका सरपंच बनाया। माणिक्यलाल वर्मा और रामनारायण चौधरी भी इस आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। बिजौलिया किसान आन्दोलन में नई जान डालने, राजनैतिक गति देने एवं लोकप्रिय बनाने हेतु कानपुर से प्रकाशित होने वाले ‘प्रताप’ नामक समाचार-पत्र में इस आन्दोलन की जानकारी दिलवायी।
अखबार के संपादक ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ थे। ब्रिटिश सरकार व मेवाड़ के राणा को अपने गुप्तचरों से पथिकजी की गतिविधियों के बारे में पता चला, तो उनके खिलाफ वारन्ट निकाला गया। पथिकजी भूमिगत हो गये तथा भूमिगत होकर ‘उमाजी के खेड़े में’ स्थित एक वीरान मकान में रहने लगे। यही स्थान बिजौलिया किसान आन्दोलन का मुख्य केन्द्र बन गया।
1918 ई. में किसानों ने कर देना बंद कर असहयोग आन्दोलन शुरू कर दिया। इस आन्दोलन में वर्माजी द्वारा रचित गीत ‘पंछीड़ा’ व प्रज्ञा चक्षु भँवरलाल स्वर्णकार द्वारा रचित कविताओं से सारा ऊपरमाल गूंजने लगा। 1918 ई. में गांधीजी ने पथिकजी को बम्बई में हुए कांग्रेस अधिवेशन में बुलाया और वार्ता की।
महात्मा गाँधी ने बिजौलिया के किसानों की समस्या जानने के लिये अपने निजी सचिव महादेव देसाई को भेजा था। अप्रैल, 1919 ई. में न्यायमूर्ति ‘बिन्दुलाल भट्टाचार्य’ की अध्यक्षता में महाराणा ने जाँच आयोग गठित किया 1 आयोग ने सभी लाग-बाग बंद करने तथा किसानों को जेल से रिहा करने की सिफारिश की लेकिन महाराणा ने कोई निर्णय नहीं लिया।
दिसम्बर, 1919 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन (अध्यक्ष- मोतीलाल नेहरू) में विजयसिंह पथिक ने बाल गंगाधर तिलक के माध्यम से बिजौलिया किसान आन्दोलन के पक्ष में प्रस्ताव रखा। 1920 के नागपुर अधिवेशन में गांधीजी ने बिजौलिया किसान आंदोलन को आशीर्वाद दिया।
विजयसिंह पथिक ने 1920 ई. में वर्धा (महाराष्ट्र) से ‘राजस्थान केसरी’ और 1922 ई. में अजमेर से ‘नवीन राजस्थान’ का प्रकाशन कर आन्दोलन को पुन: देशभर में चर्चित बना दिया।
ब्रिटिश सरकार ने आन्दोलन की व्यापकता व प्रसार को देखते हुए ए.जी.जी. (राजस्थान) रॉबर्ट हॉलैण्ड, ए.जी.जी. सचिव कर्नल ओगालवी, रेजीडेन्ट (उदयपुर) विलकिन्सन, दीवान (उदयपुर) प्रभाषचन्द्र चटर्जी एवं सीमा शुल्क हाकिम (उदयपुर) बिहारी लाल कौशिक की उच्च स्तरीय समिति गठित कर बिजौलिया भेजी, जो 4 फरवरी, 1922 को बिजौलिया पहुँची।
किसान पंचायत की ओर से सरपंच मोतीलाल, मंत्री नारायण पटेल, राजस्थान सेवा संघ के सचिव राम नारायण चौधरी एवं माणिक्यलाल वर्मा इस आयोग से वार्ता करने के लिए अधिकृत किए गए, तो वहीं ठिकाने की ओर से कामदार हीरालाल, फौजदार तेजसिंह एवं झालमसिंह ठिकाने का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए अधिकृत किए गए। 11 जून, 1922 ई. में ए.जी.जी. रॉबर्ट के प्रयासों से किसानों व जागीरदार के मध्य समझौता हुआ जिसमें 84 में से 35 लगान बंद कर दिये गये।
10 सितम्बर, 1923 ई. को विजयसिंह पथिक को गिरफ्तार कर पाँच वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया। इस कारण आन्दोलन का नेतृत्व माणिक्यलाल वर्मा के हाथों में आ गया।
1923 ई. में बिजौलिया के राव के विवाह पर किसानों से बेगार लेनी चाही, तो किसानों ने पुनः विद्रोह कर दिया। 1926 ई. के बन्दोबस्त में लगान की दरें बहुत ऊँची तय की गई थी। अतः मई, 1927 में | किसान पंचायत के निर्णयानुसार किसानों ने अपनी-अपनी जमीनें छोड़ दी।
1927 ई. में जेल से छूटने के पश्चात् विजयसिंह पथिक और | माणिक्यलाल वर्मा के बीच मतभेद हो जाने पर पथिक ने स्वयं को बिजौलिया किसान आन्दोलन से अलग कर लिया। माणिक्यलाल वर्मा के आग्रह पर जमनालाल बजाज ने आन्दोलन का नेतृत्व करना स्वीकार किया और उसके संचालन की जिम्मेदारी हरिभाऊ उपाध्याय को सौंपी गयी। बिजौलिया किसान आन्दोलन का अंत सन् 1941 ई. में हुआ।
मेवाड़ के प्रधानमन्त्री सर टी. विजय राघवाचार्य के आदेश से तत्कालीन राजस्व मंत्री डॉ. मोहनसिंह मेहता व ब्रिटिश रेजीडेन्ट विल्किन्स बिजौलिया गये और वर्माजी व अन्य किसानों से बातचीत कर किसानों की समस्याओं का समाधान करवाया। समझौते के अनुसार किसानों को उनकी नीलाम की हुई जमीनें वापस प्राप्त हो गई। बिजौलिया किसान आन्दोलन भारत का प्रथम संगठित, अहिंसात्मक, असहयोग व सबसे लम्बा लगभग 44 वर्षों तक चलने वाला आन्दोलन था।
ध्यात्वय रहे- लोकमान्य तिलक ने मेवाड़ के महाराणा फतेहसिंह को बिजौलिया आंदोलनकारियों की मांगों को पूरा करने के लिए पत्र लिखा था । बिजौलिया किसान आन्दोलन के दौरान प्रवर्तित ‘विद्या प्रचारिणी सभा’ के संस्थापक साधु सीताराम दास थे तो प्रसिद्धि दिलाने वाले विजय सिंह पथिक थे। श्रीमती रमा देवी राजस्थान के बिजौलिया किसान आंदोलन से संबंद्ध रही।
बिजौलिया के किसानों में जागृति के लिए मित्र मण्डल बिजौलिया नामक संगठन की स्थापना साधु सीताराम दास ने की थी। बिजौलिया किसान आंदोलन से संबंधित द्वितीय जाँच आयोग के प्रमुख सदस्य रमाकांत मालवीय, ठाकुर राजसिंह, मेहता तख्तसिंह आदि थे।
बेगूँ किसान आन्दोलन
बिजौलिया किसान आन्दोलन की लपटें पड़ौस की जागीर बेगूँ में भी पहुँच गईं। यहाँ 25 प्रकार की लाग-बाग/कर लिये जाते थे। यह गाँव पहले भीलवाड़ा में, वर्तमान में चित्तौड़गढ़ में स्थित है। इस आन्दोलन का शुभारम्भ मेनाल नामक स्थान के भैरू कुण्ड से 1921 में हुआ, जिसका नेतृत्व पथिक जी के कहने पर रामनारायण चौधरी ने किया।
1922 ई. में मंडावरी में किसान सम्मेलन पर गोलियाँ चलाई गयी। जून, 1922 ई. में किसान सेवा संघ व ठाकुर अनूपसिंह के मध्य समझौता हुआ जिसे मेवाड़ सरकार ने ‘बोल्शेविक समझौता’ की संज्ञा दी और समझौते को रद्द करके मेवाड़ सरकार ने उस ठिकाने को मुंसरमात (ठिकानेदार की जगह नियुक्त कर्मचारी राज करें) में दे दिया।
मेवाड़ सरकार ने इस मामले की जाँच हेतु एक ‘ट्रेन्च आयोग’ गठित किया, जिसने चार मामूली लागतों को छोड़कर शेष सभी लागतों और बेगार को उचित ठहराया। 13 जुलाई, 1923 ई. में ‘ट्रेन्च आयोग’ पर विचार के लिए ‘गोविन्दपुरा गाँव’ में सभा बुलाई गयी। इस सभा पर ट्रेन्च ने घेरकर गोली चला दी, जिसमें ‘रूपाजी और कृपाजी धाकड़’ नामक दो किसान शहीद हो गये।
इस घटना के बाद विजयसिंह पथिक ने आन्दोलन का नेतृत्व संभाला परन्तु 10 सितम्बर, 1923 को पथिक को गिरफ्तार कर पाँच वर्ष की सजा दे दी गई। पथिक की गिरफ्तारी से बेगूं के किसान आन्दोलन की गति समाप्त हो गई।
इसके बाद माणिक्यलाल वर्मा ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया और अंत में किसानों और ठिकाने के बीच 1925 के बंदोबस्त द्वारा समझौता हो गया, जिसमें 34 लागतें समाप्त कर दी गई तथा बेगार पर रोक लगा दी गई।
बूँदी किसान आन्दोलन
बरड़ क्षेत्र में सर्वप्रथम अगस्त, 1920 में साधु सीताराम दास द्वारा डाबी में किसान पंचायत की स्थापना की गई। हरला भड़क को इसका पहला अध्यक्ष बनाया गया। राजस्थान सेवा संघ के कार्यकर्ताआं हरिभाई किंकर, रामनारायण चौधरी और पं. नयनूराम शर्मा ने इस क्षेत्र में जागृति उत्पन्न करने का कार्य किया था।
बूँदी के किसानों को 25 प्रकार की लाग-बाग जागीरदार को देनी पड़ती थी। 1922 ई. में बरड़ क्षेत्र के किसानों ने बूँदी प्रशासन के विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। बूँदी किसान आन्दोलन का नेतृत्व ‘रामनारायण चौधरी’ के कहने पर ‘पं. नयनूराम शर्मा’ ने किया। 1922 ई. में बूँदी सरकार ने किसानों को लाग-बाग में कुछ रियायतों की घोषणा कर दी।
बूँदी के सभी किसानों की 2 अप्रैल, 1923 ई. को ‘डाबी नामक’ स्थान पर सभा हुई, जिसका पता राज्य सरकार को चल गया और इस सभा में सरकारी सैनिकों ने इकराम हुसैन के आदेश पर अन्धाधुंध गोलियाँ चलाना शुरू कर दिया। इस गोलीकाण्ड में झण्डागीत गाते हुए ‘नानकजी भील और देवीलाल गुर्जर’ नामक किसान शहीद हो गये।
मई, 1923 ई. में नयनूराम शर्मा को गिरफ्तार कर चार वर्ष की सजा दे दी गई। 1925 ई. में किसानों ने आवेदनों और अपीलों का रास्ता अपनाया। राजस्थान सेवा संघ द्वारा बून्दी नरेश के समक्ष बार-बार आवेदन प्रस्तुत किए गए परन्तु उनका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला।
1927 ई. के बाद राजस्थान सेवा संघ के साथ ही बरड़ क्षेत्र का किसान आन्दोलन भी समाप्त हो गया। ध्यान रहे-माणिक्यलाल वर्मा ने नानक जी भील की स्मृति में ‘अर्जी’ नामक गीत की रचना की
अलवर का किसान आन्दोलन
अलवर में अधिकांश किसानों को खालसा क्षेत्रों में स्थायी भू- स्वामित्व के अधिकार प्राप्त थे, जिन्हें ‘बिश्वेदारों’ के नाम से जाना जाता था। यहाँ पर भू-राजस्व की सबसे गलत पद्धति ‘इजारा पद्धति’ लागू थी, जिसके तहत् ऊँची-बोली बोलने वाले को निश्चित भूमि निश्चित अवधि के लिए दे दी जाती थी। 1924 ई. में भूमि की नई दरों के विरोध में किसानों ने विद्रोह किया।
इस आन्दोलन का मुख्य केन्द्र ‘नीमूचाणा’ नामक गाँव था, जहाँ मई, 1925 ई. में भारी संख्या में राजपूत नीमूचाणा नामक गाँव में एकत्रित हुए। अलवर महाराजा के एक गठित आयोग ने 14 मई, 1925 ई. को नीमूचाणा में किसानों पर गोलियाँ चला दी, इसमें सैकड़ों व्यक्तियों की मृत्यु हुई। राजस्थान सेवा संघ ने इस मामले की जाँच करके इस जाँच की पूरी कहानी 31 मई, 1925 ई. को ‘तरुण राजस्थान’ (अजमेर से प्रकाशित) के अंक में प्रकाशित की।
‘रियासत’ नामक अखबार ने इसकी तुलना ‘जलियाँ वाला बाग के हत्याकाण्ड’ से की। रामनारायण चौधरी ने इसे ‘नीमूचाणा हत्याकाण्ड’ की संज्ञा दी। महात्मा गांधी ने इस हत्याकाण्ड को ‘जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड’ से ज्यादा विभत्स बताते हुए इसे ‘दोहरा हत्याकाण्ड’ की संज्ञा दी। 18 नवम्बर, 1925 ई. को अलवर सरकार ने यह आदेश जारी किया, कि किसानों से लाग-बाग पुराने बंदोबस्त के अनुसार ही लिया जायेगा, इस प्रकार नीमूचाणा किसान आन्दोलन का अन्त हुआ ।
ध्यात्वय रहे-माधोसिंह व गोविंद सिंह का संबंध अलवर किसान आंदोलन से था।
अलवर का दूसरा किसान आन्दोलन
– अलवर शासक जयसिंह के शिकारगाह के रूप में अनेक सेंधें (जंगल) थे। मेव किसानों की शिकायत थी, कि उन शिकारगाह में रहने वाले जंगली जानवर व जंगली सूअर उनकी सभी फसलों को खराब कर देते हैं तथा उस समय जानवरों की हत्या पर रोक थी। इसके कारण पुन: किसानों ने आन्दोलन कर दिया।
जिसका नेतृत्व मोहम्मद अली ने 1932 ई. में शुरू किया। किसानों ने जंगलों में घुस कर जंगली जानवरों को मारना शुरू कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने अलवर के शासन को अपने हाथ में लिया, उसके बाद यह किसान आन्दोलन समाप्त हो गया।
ध्यात्वय रहे-यासीन खाँ ने मेव कृषक आंदोलन (किसान आन्दोलन) का नेतृत्व किया।
भरतपुर किसान आन्दोलन
1931 ई. में नये भूमि बन्दोबस्त द्वारा लगान में वृद्धि कर 1/3 कर दिया गया। साथ ही अनेक प्रकार की लाग-बाग भी वसूल की जाती रही। लम्बरदारों का एक समूह भी लगान वृद्धि का विरोध कर रहा था, जिसने किसानों का नेतृत्व किया।
भोज नामक लम्बरदार के नेतृत्व में 23 नवम्बर, 1931 ई. को किसानों ने राज्य सचिवालय के सामने धरना दिया, तो वहीं भोज को गिरफ्तार कर नौ माह की सजा सुनायी गयी। अन्त में राज्य कौंसिल ने बढ़ी हुई दरों को पाँच वर्ष के लिए स्थगित कर दिया, जिससे आन्दोलन समाप्त हो गया।
मारवाड़ किसान आन्दोलन
मारवाड़ में जनचेतना का प्रारम्भ 1918 में गठित ‘मरुधर मित्र हितकारिणी सभा’ से माना जाता है, जिसकी स्थापना चाँदमल सुरणा ने की थी, तो वहीं जयनारायण व्यास द्वारा 1923 ई. में इस सभा का पुनर्गठन कर इसका नाम मारवाड़ हितकारिणी सभा कर दिया गया तथा मई, 1929 ई. में मारवाड़ हितकातिरणी सभा ने बेगार, लाग- बाग, उच्च लगान दर के विरोध में आन्दोलन (किसान आन्दोलन)शुरू कर दिया।
मारवाड़ हितकारिणी सभा ने दो लघु पुस्तिकाएँ पोपाबाई का राज व मारवाड़ की अवस्था प्रकाशित की, तो वहीं जयनारायण व्यास के द्वारा तरुण राजस्थान पत्र द्वारा किसानों की समस्याओं पर प्रकाश डाला गया। सितम्बर, 1929 ई. में मारवाड़ हितकारिणी सभा की बढ़ती हुई। लोकप्रियता को देखकर इसके प्रमुख नेताओं- जयनारायण व्यास, आनन्दराज सुराणा एवं भंवरलाल सर्राफ को गिरफ्तार कर लिया गया, तो वहीं 5 मार्च, 1931 ई. को हुए महात्मा गाँधी-इरविन समझौते के बाद इन्हें रिहा किया गया।
सितम्बर, 1939 ई. में मारवाड़ लोक परिषद् के द्वारा आन्दोलन शुरू किया गया। मारवाड़ लोक परिषद्- के कार्यकर्ता उत्तरदायी शासन दिवस मनाने के लिए 28 मार्च, 1942 ई. को चण्डावल गाँव में एकत्र हुए जिन पर लाठियाँ चलाई गई तथा भालों से वार किया गया, जिसमें कई कार्यकर्ता घायल हुए।
डाबरा (नागौर जिला) में 13 मार्च, 1947 ई. को मारवाड़ लोक परिषद् द्वारा एक किसान सभा का आयोजन किया गया, जिस पर जागीरदार के सशस्त्र लोगों ने हमला कर दिया, जिसमें 12 लोग मारे गए। अन्ततः जयनारायण व्यास के नेतृत्व में बने लोकप्रिय मंत्रिमण्डल के द्वारा जून, 1948 में किसानों को राहत दी गयी।
ध्यातव्य रहे- चाँदमल सुराणा व जयनारायण व्यास के नेतृत्व में मादा पशुओं के निष्कासन व तोल के विरूद्ध मारवाड़ किसान आंदोलन शुरू हुआ।
बीकानेर राज्य में किसान आन्दोलन
गंगनहर क्षेत्र में किसान आन्दोलन – 5 सितम्बर, 1925 ई. को गंगनहर परियोजना का शिलान्यास स्वयं महाराजा सर गंगासिंह के द्वारा किया गया था तथा इस नहर का नाम महाराजा गंगासिंह के नाम पर गंगनहर रखा गया, तो वहीं यह नहर पंजाब की सतलज नदी से निकाली गई थी और इसका विधिवत रूप से शुभारंभ 26 अक्टूबर, 1927 ई. को हुआ। इस नहर के निर्माण के साथ ही पंजाब के अनेक किसान कृषि कार्य हेतु यहाँ बस गए थे। (किसान आन्दोलन)
किसानों ने अप्रैल, 1929 ई. में जमींदार एसोसिएशन का गठन किया और दरबारा सिंह को इसका अध्यक्ष बनाया गया तथा इसका मुख्यालय श्रीगंगानगर में रखा गया, तो वहीं श्रीगंगानगर में 10 मई, 1929 ई. को आयोजित जमींदार एसोसिएशन की बैठक में किसानों ने अपनी माँगों का पत्र तैयार कर महाराजा के समक्ष प्रस्तुत किया, जिसमें प्रमुख माँगें थीं-सिंचाई सुविधाओं का विकास, सिंचाई दर में कमी, भूमि कर कम करना आदि । राज्य ने इनकी माँगों को तर्कसंगत मानते हुए स्वीकार कर लिया।
इस संगठन के सदस्य व नेता पंजाब से आए हुए सिक्ख किसान थे और इनकी गतिविधियाँ संवैधानिक एवं शांतिपूर्ण ही रहीं । जागीरी क्षेत्र में किसान आन्दोलन- जागीर क्षेत्र के अधिकांश किसान जाट जाति के थे। किसान बेगार एवं लाग-बाग से परेशान थे और उनसे लगभग 37 प्रकार की लागतें वसूल की जाती थीं।
जाट किसानों ने 18 दिसम्बर, 1934 ई. को महाराजा को प्रार्थना पत्र देकर अपनी समस्याओं को बताया। 1937 ई. में उदरासर क्षेत्र के किसानों ने किसान नेता जीवनराम चौधरी के माध्यम से महाराजा से अपील की, लेकिन कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला, तो वहीं महाजन ठिकाने के किसानों ने 1938 ई. में लाग-बाग व बेगार के विरूद्ध महाराजा से शिकायत की, फिर भी कोई परिणाम नहीं निकला और महाजन ठिकाने के किसानों ने 6 जनवरी, 1939 ई. को खींवसर गाँव (नागौर) में सभा कर माँगों को नहीं माने जाने तक लगान नहीं देने का निर्णय लिया। अंत में राज्य के अधिकारियों ने ठिकाने व किसानों के मध्य समझौता करवा दिया, जिसमें लगान में कमी, कुछ लागों की समाप्ति आदि रियायतें दी गईं और इस प्रकार यह आन्दोलन खत्म हो गया।
दूधवाखारा किसान आन्दोलन (चूरू)
1944 ई. में दूधवाखारा के ठाकुर सूरजमलसिंह ने अतिरिक्त कर वसूल करने का प्रयास किया, तो वहीं किसानों ने भादरा में 3 फरवरी, 1945 ई. को महाराजा सार्दूलसिंह के समक्ष जागीरदार के अत्याचारों का बखान किया, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। अतः 2 जून, 1945 को बढ़ते अत्याचारों के विरूद्ध चौधरी हनुमानसिंह के नेतृत्व में किसानों ने माउण्ट आबू में पुन: महाराजा सार्दूलसिंह से अपील की।
इसी दौरान बीकानेर राज्य प्रजा परिषद् के अध्यक्ष मघाराम वैद्य ने दूधवाखारा पहुँचकर आन्दोलन को समर्थन दिया। 6 जुलाई, 1945 ई. को हनुमानसिंह की गिरफ्तारी के विरोध में दूधवाखारा के किसानों ने बीकानेर की सड़कों पर बीकानेर राज्य प्रजा परिषद् के नेतृत्व में जुलूस निकाला। हनुमानसिंह को दस वर्ष की सजा दी गई, लेकिन स्वास्थ्य में गिरावट के कारण माफी देकर 10 अगस्त, 1945 ई. को हनुमानसिंह को रिहा कर दिया।
अखिल भारतीय प्रजा परिषद ने हरिभाऊ उपाध्याय को ठिकाने के अत्याचारों की जाँच करने भेजा लेकिन उन्हें वहाँ जाने नहीं दिया। 20 मार्च, 1946 ई. को दूसरी बार और 7 अप्रैल, 1947 ई. को तीसरी बार हनुमानसिंह को गिरफ्तार किया गया। हनुमानसिंह ने बीकानेर जेल में 65 दिन तक भूख हड़ताल की। 1948 ई. में बीकानेर में • लोकप्रिय सरकार का गठन होने पर हनुमानसिंह को रिहा कर किसानों की मांगों को स्वीकार कर लिया गया।
बीकानेर राज्य प्रजा परिषद के
नेतृत्व में किसान आन्दोलन
1946 ई. में बीकानेर राज्य प्रजा परिषद ने कुम्भाराम आर्य के नेतृत्व में गैर-कानूनी लागतों, बेगार, उच्च भू-राजस्व व अन्य करों को मुद्दा बनाकर किसान आन्दोलन शुरू किया, तो वहीं कुम्भाराम आर्य की अध्यक्षता में 7 अप्रैल, 1946 ई. को राजगढ़ तहसील के ललाणा गाँव में प्रजा परिषद की सभा आयोजित की गई, जिसमें किसान समस्याओं पर विचार किया गया। कुम्भाराम को 1 मई, 1946 ई. को गिरफ्तार कर लिया गया।
राजगढ़ में 20 मई, 1946 ई. को किसानों के जुलूस पर लाठीचार्ज हुआ। राज्य ने 24 जून, 1946 ई. को एक समिति का गठन कर जागीरदारों व किसानों के मध्य समझौता करवाने का प्रयास किया। 1 जुलाई, 1946 ई. को कुम्भाराम को रिहा कर दिया, तो वहीं 1 जुलाई, 1946 ई. को रायसिंहनगर (श्रीगंगानगर) में प्रजा परिषद के नेतृत्व में पुलिस दमन के विरोध में जुलूस निकाला गया और इस जुलूस को रोकने के लिए पुलिस ने गोलियाँ चलाई, जिसमें बीरबल सिंह नामक कार्यकर्ता मारा गया।
इसके पश्चात् 3 सितम्बर, 1946 को गोगामेड़ी में प्रजा परिषद की एक विशाल सभा हुई जिसमें 3000 किसान एकत्र हुए, तो वहीं 1948 ई. में उत्तरदायी शासन की स्थापना के बाद ही किसाने को जागीरदारों के अत्याचारों एवं शोषण से मुक्ति मिली।
कांगड़ काण्ड- ‘कांगड़’ चूरू जिले की रतनगढ़ तहसील का एक गाँव था, जो जागीरदार के अधिकार में था। 1946 ई. की खरीफ की फसल नष्ट होने के बावजूद जागीरदार ने जबरन कर वसूलने का प्रयास किया, जिसकी शिकायत किसानों द्वारा महाराजा बीकानेर से की गई और इससे क्रोधित होकर 29 अक्टूबर, 1946 को जागीरदार, ने कांगड़ गाँव पर हमला कर दिया और किसानों से जबरदस्ती राजस्व वसूल किया व संपत्तियाँ नीलाम कर दी।
किसानों की शिकायत पर प्रजा परिषद ने एक समिति का गठन किया, तो वहीं 1 नवम्बर, 1946 को जाँच समिति कांगड़ पहुँची, तब तक गाँव पूरी तरह से खाली हो चुका था। जागीरदार के लोग जाँच समिति के सदस्यों को पकड़कर गढ़ में ले गए, जहाँ उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया।
जयपुर राज्य में किसान आन्दोलन
सीकर ठिकाने में किसान आन्दोलन – सीकर जयपुर रियासत का ठिकाना था, जहाँ की 56 प्रतिशत भूमि जाट किसानों के पास थी। जून, 1922 ई. में सीकर के रावराजा माधोसिंह की मृत्यु के बाद ठाकुर कल्याणसिंह सीकर का रावराजा बना, जिसने राजा बनते ही 1922 में भूमिकर में 50 प्रतिशत तक की वृद्धि कर दी।
किसानों ने जयपुर महाराजा से इस बात की शिकायत की, तो वहीं 1923 में जयपुर महाराजा ने पुरानी दरों पर लगान वसूलने का आदेश दिया, लेकिन ठिकाने ने आदेशों का पालन नहीं किया। 1924 ई. में किसानों ने पुनः जयपुर महाराजा से शिकायत की, जिसका भी कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला, तो वहीं किसानों और ठिकाने के मध्य समझौता कराने का प्रयास राजस्थान सेवा संघ के कार्यकर्ता रामनारायण चौधरी ने किया, जो असफल रहा।
किसानों की समस्याओं को भरतपुर के जाट नेता ठाकुर देशराज ने प्रमुखता से उठाया, तो वहीं उन्होंने राजस्थान सन्देश नामक समाचार पत्र द्वारा इस मामले को चर्चित बनाया। अखिल भारतीय जाट महासभा का अक्टूबर, 1925 ई. में अधिवेशन पुष्कर में हुआ जिसकी अध्यक्षता भरतपुर के शासक कृष्णसिंह ने की थी, तो वहीं इस सम्मेलन में इस क्षेत्र के जाट बड़ी संख्या में पहुँचे, जिन्होंने किसानों की समस्याओं पर विचार किया।
ठाकुर देशराज ने 1931 ई. में राजस्थान क्षेत्रीय जाट महासभा का गठन किया। 1933 में सीकर के किसानों ने पलसाना (सीकर) में एक सम्मेलन का आयोजन किया, लेकिन ठाकुर कल्याणसिंह के सैनिकों ने यहाँ लाठीचार्ज कर किसानों को भगा दिया, तो वहीं कैप्टन वेब ने 23 अगस्त, 1934 ई. को किसानों से समझौता कर अधिकांश माँगें स्वीकार कर लीं लेकिन जागीरदारों ने इन्हें मानने से मना कर दिया।
अप्रैल, 1935 में सीकर ठिकाने का राजस्व अधिकारी कुन्दन ग्राम में पुलिस जाता के साथ राजस्व वसूलने पहुँचा और किसानों द्वारा विरोध करने पर पुलिस ने गोलियाँ चला दी जिसमें चार किसान मारे गए और अन्ततः जयपुर सरकार के हस्तक्षेप से सीकर के राव राजा ने किसानों की माँगों को स्वीकार कर भू-सुधारों का आश्वासन दिया तथा 1935 ई. के अंत तक लगान में कमी कर दी गई।
शेखावाटी क्षेत्र में किसान आन्दोलन
जयपुर रियासत के शेखावाटी क्षेत्र में नवलगढ़, मंडावा, डूंडलोद, बिसाऊ और मालासर पाँच बड़ी जागीरें थीं, जो सम्पूर्ण क्षेत्र का 75 प्रतिशत भाग थी तथा इन पाँच जागीरों को सामूहिक रूप से पंचपाणै कहा जाता था, तो वहीं इस क्षेत्र के अधिकांश किसान जाट जाति के थे। किसानों ने जागीरदारों द्वारा अत्यधिक लगान लेने, बेगार लेने व लाग-बाग की शिकायत जुलाई, 1924 ई. में महकमा खास जयपुर से की।
किसानों ने 5 नवम्बर, 1925 ई. को बग्गड़ में सभा कर एक समिति का गठन किया, जिसका अध्यक्ष रामसिंह को बनाया गया। 25 अप्रैल, 1934 ई. को सीहोट के ठाकुर द्वारा बोसाणा तथा बिसाऊ गाँव की महिलाओं के प्रति किए गए दुर्व्यवहार के विरूद्ध कटराथल नामक स्थान पर सरदार हरलाल सिंह की पत्नी किशोरी देवी के नेतृत्व में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें लगभग 10,000 महिलाओं ने भाग लिया था।
हिरवा के ठाकुर कल्याणसिंह के आदमियों ने 16 मई, 1934 ई. को हनुमानपुरा गाँव में आग लगा दी। डूंडलोद ठाकुर के भाई ईश्वरीसिंह ने 21 जून, 1934 ई. को जयसिंहपुरा गाँव के किसानों पर अंधाधुध गोलियाँ बरसाकर उन्हें मार दिया, जिस कारण ईश्वरीसिंह पर मुकदमा चलाकर उन्हें कारावास की सजा हुई, तो वहीं जयपुर राज्य में यह पहला मुकदमा था |
जिसमें जाट किसानों के हत्यारों को सजा दी गई, इसलिए सम्पूर्ण जयपुर रियासत में ‘जयसिंहपुरा शहीद दिवस’ मनाया गया। जागीरों में भूमि बन्दोबस्त की नई प्रक्रिया 1936 ई. में शुरू हुई जिससे किसान आन्दोलन शिथिल पड़ गया।
ध्यात्वय रहे- लंदन से प्रकाशित ‘डेली हेरॉल्ड’ समाचार पत्र ने | शेखावाटी किसान आंदोलन के समाचार छापे । गोविन्ददास हनुमानपुरा (दूलड़) एक स्वतन्त्रता सेनानी और शेखावाटी किसान आन्दोलन का नेता था।