मेवाड़ का चौहान राजवंश
डॉ. डी. आर. भण्डारकर ने कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के आधार पर मेवाड़ के गुहिलों को ब्राह्मणवंशी माना है, तो वहीं अबुल फजल के अनुसार गुहिल ईरान के बादशाह नौशेरखाँ / नौशेरवाँ आदिल की संतान थे। कर्नल जेम्स टॉड ने इन्हें विदेशी माना है जबकि डॉ. ओझा के अनुसार गुहिल प्राचीन क्षत्रियों के वंशज थे और वे विशुद्ध सूर्यवंशीय राजपूत थे।
मेवाड़ रियासत राजस्थान की सबसे प्राचीन रियासत है। प्राचीन काल में मेवाड़ को शिवि जनपद, प्राग्वाट, मेदपाट, मेवाड़, वर्तमान में उदयपुर आदि नामों से जाना जाता है, जिसका सबसे प्राचीन नाम शिवि जनपद था और इसकी राजधानी मध्यमिका (वर्तमान नगरी, चित्तौड़गढ़) थी। मेवाड़ पर शुरू में मौर्यों ने शासन किया था,
इन्हीं मौर्यों में से एक चित्रांग मौर्य ने 8वीं शताब्दी में चित्रकूट पहाड़ी व मेसा के पठार पर एक दुर्ग बनाया, जो चित्तौड़गढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 734 ई० में इस दुर्ग पर मौर्य शासक मानमोरी का राज्य था, जिसे गुहिलों ने हराकर चित्तौड़ पर गुहिल वंश का शासन स्थापित किया, इसी कारण इन्हें गहलोत वंश भी कहा जाता है। 7वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक चित्तौड़गढ़ किले पर गहलोत / सिसोदिया वंश ने शासन किया।
ध्यातव्य रहे- राजस्थान के सिसोदिया राजपूत मूल रूप से गुजरात राज्य के प्रवासी थे। मेवाड़ में 1877 में महाराणा के कोर्ट का नाम बदलकर ‘इजलास खास’ कर दिया गया था, तो मेवाड़ रियासत के सांमत ‘उमराव’ कहलाते थे। सोलह, बत्तीस और गोल का संबंध मेवाड़ राज्य में सामंतों की श्रेणियों से है। मेवाड़ के राजचिह्न में राजपूत-भील अंकित है। यहाँ के महाराणा ‘हिन्दूआ सूरज’ कहलाते हैं, क्योंकि वे स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं। गुहिल वंश के राजध्वज पर ‘उगता सूरज एवं धनुष बाण’ अंकित है, तो राजवाक्य ‘जो दृढ़ राखै धर्म को, तिहीं राखै करतार’ है।
गुहिलादित्य
566 ई० में गुहिल वंश की स्थापना गुहिलादित्य ने की, अत: वह गुहिल वंश का संस्थापक कहलाता है। इसने नागदा को अपनी राजधानी बनाया। गुहिल के वंशज शक्तिकुमार के आहड़ (आटपुर) अभिलेख (977 ई.) में गुहिलादित्य के आनन्दपुर (वड़नगर, गुजरात) से चित्तौड़ आने का उल्लेख है, तो वहीं कुम्भलगढ़ प्रशस्ति (1460 ई.) तथा एकलिंग महात्म्य में भी गुहिल को आनन्दपुर से निकले हुए ब्राह्मण वंश को आनन्द देने वाला बताया गया है। ध्यान रहे गुजरात से आकर दक्षिणी-पश्चिमी मेवाड़ में इनके बसने के तीन अभिलेख मिले हैं- भाविहिता का 48वें वर्ष का अभिलेख, महाराज भट्टी का 73 वें वर्ष का अभिलेख तथा गुहिल शासक भामट का 83 वें वर्ष का अभिलेख। गुहिल के बाद मेवाड़ के शासकों में भोज, महेन्द्र तथा नग के नाम क्रमशः मिलते हैं। ख्यातों के अनुसार गुहिल शासक नाग ने राजधानी नागदा को बसाया था। नाग का उत्तराधिकारी शिलादित्य हुआ, जिसके समय के सामोली के अभिलेख में इसे एक प्रतापी शासक बताया गया है। शिलादित्य का उत्तराधिकारी अपराजित था, जिसके समय का अभिलेख नागदा के कुण्डेश्वर मंदिर में 661 ई. में प्राप्त हुआ है, जिसमें इसके कई शत्रुओं को परास्त करने का वर्णन है।
बप्पा रावल (734-53 ई.)
गुहिलादित्य का वंशज जिसका मूल नाम मालभोज / कालभोज था। यह हारित ऋषि का शिष्य था और उनकी गायें चराता था। हारित ऋषि ने उससे प्रसन्न होकर ‘बप्पा रावल’ की उपाधि दी व उन्हीं के आशीर्वाद व कहने पर 734 ई./8वीं शताब्दी में बप्पा रावल ने चित्तौड़गढ़ के राजा मानमोरी को हराकर मेवाड़ में गुहिल साम्राज्य की नींव रखी, अत: बप्पा रावल को ‘गुहिल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक’ कहा जाता है।
बप्पा रावल ने मेवाड़ में सर्वप्रथम सोने के सिक्के (115 ग्रेन) चलाये व अपने इष्ट देव/कुल देवता एकलिंग जी (लकुलीश सम्प्रदाय संबंधित) का मन्दिर कैलाशपुरी गाँव में बनवाया। मेवाड़ के शासक से एकलिंग जी को स्वयं के राजा (कुल देवता /इष्टदेव) तथा स्वय को एकलिंग जी का दीवान (पुजारी) मानते हैं, इसी कारण मेवाड़ के शासक एकलिंग जी के मंदिर में तलवार लेकर नहीं अपितु छड़ी लेकर जाते हैं तथा राजा की उपाधि धारण ना कर राणा की उपाधि धारण करते हैं, तो गुहिल वंश की कुल देवी ‘बाण माता’ है। मेवाड़ के महाराणा राजधानी छोड़ने से पहले एकलिंग जी से स्वीकृति लेते थे, जिसे ‘आसकाँ’ कहते थे।
बप्पा रावल की मृत्यु नागदा में हुई, इसी कारण बप्पा रावल की समाधि / छतरी-नागदा में है। बप्पा ने संभवत: 753 ई. में संन्यास ग्रहण कर शासन अपने पुत्र खुम्माण को सौंप दिया, तो वहीं खुम्माण द्वारा अरब आक्रमणकारियों को परास्त करने का उल्लेख भी मिलता है। खुम्माण प्रथम के बाद मत्तट, भर्तृभट्ट, सिंह, खुम्माण द्वितीय और महायक क्रमश: मेवाड़ के शासक बने, तो वहीं खुम्माण तृतीय (877-926 ई.) को 1247 ई. के चित्तौड़ शिलालेख में उसके अधीन राजाओं का मुकुटमणि बताया गया है तथा 1439 ई. के सादड़ी शिलालेख में उसके द्वारा सुवर्ण तुलादान का उल्लेख है। इसके बाद इसका पुत्र भर्तृभट्ट द्वितीय मेवाड़ का शासक बना, जिसे आटपुर लेख (977 ई.) में तीनों लोकों का तिलक बताया गया है।
अल्लट / आलूराव
इसने हूण राजकुमारी हरिया देवी से शादी की और हूणों (विदेशी लड़ाकू) की सहायता से अपने साम्राज्य का विस्तार किया। अल्लट ने सर्वप्रथम नागदा की जगह आहड़ को अपनी राजधानी बनाया तथा यहाँ वराह मंदिर का निर्माण करवाया और मेवाड़ में सर्वप्रथम नौकरशाही (जिस दिन से नौकरशाही अंदाज में जीने लगे) को लागू किया, जो वर्तमान में भी चल रही है। उल्लेखनीय है कि आहड़ उस समय एक समृद्ध नगर तथा एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। ध्यातव्य रहे- इतिहासकार ओझा के अनुसार मेवाड़ के शासक अल्लट ने प्रतिहार वंश के देवपाल को मारा था।
शक्तिकुमार (977-93 ई.)
इसके समय मालवा के परमार शासक मुंज ने आहड़ पर आक्रमण कर नगर को नष्ट कर दिया था, तो वहीं मुंज के उत्तराधिकारी भोज परमार ने चित्तौड़ पर अधिकार कर त्रिभुवननारायण मंदिर का निर्माण करवाया तथा नागदा में भोजसर तालाब की स्थापना की। शक्तिकुमार के बाद क्रमश: अम्बा प्रसाद, शुचिवर्म, नरवर्म, कीर्तिवर्म, योगराज, वैरेट, हंसपाल, वैरिसिंह, विजयसिंह, अरिसिंह, चोडसिंह व विक्रम सिंह मेवाड़ के शासक बने ।
रणसिंह (1158 ई.)
रणसिंह जिसे कर्णसिंह भी कहा जाता है, विक्रम सिंह का पुत्र था। इसने शासक बनते ही 1158 ई. में आहोर के पर्वत पर किला बनवाया। इसके शासन काल में गुहिल वंश दो भागों में बँट गया। प्रथम रावल शाखा-रणसिंह के पुत्र क्षेमसिंह ने रावल शाखा का निर्माण कर चित्तौड़ पर शासन किया। द्वितीय राणा शाखा – रणसिंह के पुत्र राहप ने सिसोदा ग्राम बसाकर राणा शाखा (सिसोदिया) की शुरूआत की।
रावल क्षेमसिंह
यह रावल शाखा की शुरुआत कर मेवाड़ का शासक बना जिसके दो पुत्र हुये – सामंतसिंह व कुमारसिंह ।
सामंतसिंह
जालौर के कीर्तिपाल चौहान ने 1177 ई. के आसपास सामंतसिंह को पराजित कर मेवाड़ से निकाल दिया। फलस्वरूप सामंतसिंह ने 1178 ई. में वागड़ में नये राज्य की स्थापना की, तो वहीं सामंतसिंह के छोटे भाई कुमारसिंह ने 1179 ई. में मेवाड़ पर पुनः अधिकार कर लिया था।
जैत्रसिंह (1213-52/53 ई.)
जैत्रसिंह के समकालीन दिल्ली सल्तनत का सुल्तान इल्तुतमिश था। इसी इल्तुतमिश के बार-बार आक्रमण से परेशान होकर जैत्रसिंह ने अपनी राजधानी नागदा (उदयपुर) [जहाँ पर सास-बहु (सहस्त्रबाहु ) का मंदिर है ] से बदलकर चित्तौड़ को बनाया। जैत्रसिंह ने ‘भूताला के युद्ध’ (राजसमंद) में 1227 ई. में (डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने यह युद्ध 1221-1229 ई. के मध्य हुआ बताया है) इल्तुतमिश को पराजित किया। इसकी जानकारी जयसिंह सूरी कृत ‘हम्मीर मदमर्दन’ से मिलती है। जैत्रसिंह के शासन में 1248 ई. में सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद की सेना ने मेवाड़ पर असफल आक्रमण किया था। मेवाड़ के राजीतिक और सांस्कृतिक केन्द्र आहड़ को गुजरात के चालुक्यों से मुक्त करवाना इसकी महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है। इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा ने जैत्रसिंह के शासनकाल को मध्यकालीन मेवाड़ का स्वर्णकाल माना है, तो वहीं चीरवा का शिलालेख बताता है कि ‘जैत्रसिंह इतना शक्तिशाली था कि मालवा, गुजरात, मारवाड़, जांगल तथा दिल्ली के शासक उसको पराजित नहीं कर सके।’
ध्यातव्य रहे- जैत्रसिंह मेवाड़ का एकमात्र ऐसा शासक था जिसने दिल्ली के छः सुल्तानों का शासन देखा।
तेजसिंह (1252/53-73 ई.)
चालुक्यों की भांति जैत्रसिंह के पुत्र तेजसिंह ने उभापतिवरलब्धप्रौढ़ प्रताप उपाधि धारण की। उसके अन्य विरूद्ध परमभट्टारक, महाराजाधिराज व परमेश्वर थे।
इसके समय 1253-54 ई. में बलबन ने मेवाड़ पर असफल आक्रमण किया। इसकी पत्नी जयतल्ल देवी ने चित्तौड़ दुर्ग में श्यामपार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था।
समरसिंह (1273-1302 ई.)
तेजसिंह के पुत्र समरसिंह के समय के 8 शिलालेख प्राप्त होते हैं। उसने तुर्कों को गुजरात से निकालकर गुजरात का उद्धार किया जिसका उल्लेख आबू शिलालेख में मिलता है। समरसिंह के समय रणथम्भौर के हम्मीर ने मेवाड़ पर आक्रमण कर ‘कर’ वसूल किया था। माना जाता है कि अंचलगच्छ के आचार्य अमितसिंह सूरी के उपदेश पर इसने अपने राज्य में जीव हत्या पर रोक लगा दी थी। इसके शासन काल में इसके पुत्र कुम्भकरण ने नेपाल में गुहिल वंश की स्थापना की तथा दूसरे पुत्र रतनसिंह ने चित्तौड़ पर शासन किया।
रतनसिंह ( 1302-03 ई.)
यह रावल शाखा का अंतिम शासक था। उल्लेखनीय है कि राजप्रशस्ति महाकाव्य में रतनसिंह का नाम नहीं मिलता। इसके समकालीन दिल्ली सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी ने साम्राज्यवादी नीति के तहत् चित्तौड़ पर 1303 ई. में आक्रमण किया। अल्लाउद्दीन खिलजी दिल्ली से 28 जनवरी, 1303 ई० को आक्रमण करने के लिए रवाना हुआ और 26 अगस्त, 1303 ई. को चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया।
इस युद्ध में रतनसिंह, गोरा (पद्मिनी का चाचा), बादल (पद्मिनी का भाई) लड़ते हुये मारे गये (केसरिया ) तथा महारानी पद्मिनी व नागमती (रतनसिंह की पत्नियाँ) ने 1600 महिलाओं के साथ जौहर किया। यह चित्तौड़ का प्रथम व राजस्थान का सबसे बड़ा साका है तथा क्रमशः राजस्थान का दूसरा साका था।
चित्तौड़ युद्ध का सजीव चित्रण अमीर खुसरो ने अपने ग्रंथ ‘खजाइन -उल-फतूह / तारीख-ए-अलाई’ में किया क्योंकि यह कवि खिलजी के साथ था। अमीर खुसरो के अनुसार दुर्ग पर अधिकार करने के बाद सुल्तान ने 30000 हिन्दुओं का कत्ल करवा दिया था। उल्लेखनीय है कि अमीर खुसरो ने इस समय चित्तौड़ के किसी साके या जौहर का वर्णन नहीं किया है। अमीर खुसरो को ‘भारत का तोता / तूती-ए-हिन्द’ के नाम से जाना जाता है। इसी अमीर खुसरो ने सितार का आविष्कार किया था।
ध्यातव्य रहे- राजस्थान का ऐतिहासिक जौहर चित्तौड़गढ़ किले में हुआ। चित्तौड़गढ़ में प्रतिवर्ष जौहर मेला लगता है, तो चित्तौड़गढ़ को जौहर नगरी कहते हैं।
अलाउद्दीन खिजली ने चित्तौड़ का कार्यभार अपने बेटे खिज्र खाँ को सौंपकर चित्तौड़ का नाम अपने पुत्र खिज्र खाँ के नाम पर ‘खिज्राबाद’ कर दिया।
ध्यातव्य रहे- 1540 ई. में शेरशाह सूरी के काल में मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ नामक ग्रंथ लिखा, जो काल्पनिक था तथा इस ग्रंथ के अनुसार यह आक्रमण अल्लाउद्दीन खिलजी ने रतनसिंह की रूपवती पत्नी पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए किया था। पद्मिनी सिंहल द्वीप नरेश गंधर्वसेन की पुत्री थी।
महाराणा हम्मीर देव (1326-64 ई.)
1316 ई० में दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी की मृत्यु होने के बाद खिज्र खाँ चित्तौड़ का कार्यभार जालौर के शासक कान्हड़देव चौहान के भाई मालदेव चौहान को सौंप कर दिल्ली चला गया। मालदेव चौहान की मृत्यु के बाद मालदेव के पुत्र जैसा /जयसिंह (ओझा के अनुसार) जबकि मालदेव के पुत्र बनवीर ( रणकपुर, पाली शिलालेख के अनुसार) को 1326 ई० को सिसोदा गाँव के जागीरदार राणा हम्मीर देव ने हराकर मेवाड़ में सिसोदिया वंश के साम्राज्य की स्थापना की और चित्तौड़ पर पुनः अधिकार किया। इसी कारण इसे ‘मेवाड़ का उद्धारक व सिसोदिया साम्राज्य वंश का संस्थापक’ कहते हैं। इसकी जानकारी ‘हम्मीर मद मर्दन’ से मिलती है, जिसके लेखक जयसिंह सूरी हैं। राणा हम्मीर देव को कीर्तिस्तम्भ में ‘विषम घाटी पंचानन (विपरीत परिस्थितियों में भी अपना हौसला नहीं हारने वाला) ‘ व गीत गोविन्द पुस्तक की टीका रसिक प्रिया में ‘वीर राजा’ की उपाधि दी गई है। इसके समय से चित्तौड़ पर राणा शाखा ने शासन करना शुरू किया।
ध्यातव्य रहे- हम्मीर सिसोदिया ने ‘सिंगोली के युद्ध’ (चित्तौड़गढ़) में दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक को पराजित किया तथा भारत में पहली बार छापामार युद्ध प्रणाली का प्रयोग किया।
महाराणा खेता / क्षेत्रसिंह ( 1364-82 ई.)
इसने हाड़ौती के हाड़ाओं को दबाया तथा अजमेर, जहाजपुर, माण्डल और छप्पन को मेवाड़ में मिला लिया। खेता ने मालवा के दिलावर खाँ गोरी को पराजित कर मेवाड़-मालवा संघर्ष का सूत्रपात किया था। इसके 7 पुत्र व कई औरस पुत्र (जिनमें चाचा व मेरा भी)
महाराणा लाखा (1382-1421 ई.)
राणा लाखा / लक्षसिंह के काल में चिड़ीमार बंजारे ने अपने बैल की याद में उदयपुर में पिछोला झील बनवाई, जिसके मध्य जगमंदिर व जगनिवास नामक दो महल तथा इसके किनारे गलकी नटनी का चबूतरा बना हुआ है। राणा लाखा के शासनकाल में उदयपुर के जावर नामक स्थान पर चाँदी की खान निकली, जो एशिया की सबसे बड़ी चाँदी की खान है। इसी राणा लाखा का सबसे बड़ा बेटा राणा चूँड़ा था, जिसकी सगाई के लिए मारवाड़ के राजकुमार रणमल राठौड़ ने अपनी बहन हंसाबाई का नारियल भेजा। लेकिन रणमल के सेवक ने उस नारियल को भरे दरबार में राणा चूड़ा की जगह राणा लाखा को दे दिया। तब राणा लाखा ने मजाक में कहा कि यह बुढ़ापे में मेरे से मजाक किसने की। उस सेवक ने नारियल लेकर वापस रणमल राठौड़ के पास पहुँचकर सारी बात बताई तब रणमल राठौड़ ने वापस नारियल राणा लाखा के पास एक शर्त के साथ भेजा कि यदि मेरी बहन से होने वाला पुत्र मेवाड़ का भावी राजा बने, तो मेरी बहन की शादी आपके साथ कर दूँगा। राणा लाखा ने इस शर्त को मान लिया। इस बात का पता जब राणा चूँड़ा को चला तो अपने पिता की इज्जत रखने के लिए उसने भरे दरबार में आजीवन कुँवारा रहने की भीष्म प्रतीज्ञा की, जिससे रणमल की बहन से होने वाला पुत्र ही मेवाड़ का शासक बन सके। इस प्रकार राणा लाखा की शादी वृद्धावस्था में मारवाड़ के रावचूड़ा की पुत्री व रणमल राठौड़ की बहन हंसाबाई से सशर्त हुई। राणा लाखा व हंसाबाई के 11 माह बाद एक पुत्र हुआ जिसका नाम मोकल रखा गया।
राणा चूडा
यह लाखा का बड़ा पुत्र व हंसाबाई का सौतेला पुत्र था। चूंडा ने मेवाड़ का राज्य हंसाबाई के होने वाले पुत्र को देने व जीवन भर कुँवारा रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की अतः इसे ‘मेवाड़ का भीष्म पितामह/ राजस्थान का भीष्म’ कहा जाता है। राणा लाखा जब मृत्यु की शय्या पर था, तो उसने छोटे बेटे मोकल को राजा व बड़े बेटे चंडा को बनने वाले राजा व अपने छोटे पुत्र मोकल का संरक्षक बनाया। वह अच्छी तरह से अपना कार्य कर रहा था, लेकिन लाखा की मृत्यु के बाद राणा चूंडा की सौतेली माँ हँसाबाई उसको हमेशा शक की दृष्टि से देखती थी कि कहीं राणा चूंडा मोकल को मारकर स्वयं शासक नहीं बन जाये, इसी कारण राणा चूंडा मेवाड़ छोड़कर मांडू (गुजरात) चला गया। उसके बाद हंसाबाई ने अपने भाई रणमल राठौड़ को मोकल का संरक्षक बनाया। रणमल राठौड़ ने मोकल का संरक्षक बनते ही मेवाड़ में ऊँचे-ऊँचे पदों पर राठौड़ों की नियुक्ति कर दी और सिसोदिया सरदारों को नीचे के पद दिये। इसी कारण सिसोदिया सरदार रणमल राठौड़ व मोकल से नाराज हो गये।
महाराणा मोकल (1421-33 ई.)
महाराणा मोकल 12 वर्ष की अल्पायु में मेवाड़ का शासक बना। उसने 1428 ई. में रामपुरा के युद्ध में नागौर के फिरोज खाँ को पराजित किया। मोकल ने भोज द्वारा निर्मित्त त्रिभुवननारायण मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया और इस समय से इस मंदिर को समिद्धेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है, तो वहीं एकलिंगजी के मंदिर के परकोटे का निर्माण भी मोकल के समय हुआ था। 1433 ई. में अहमद खाँ के साथ हो रहे जीलवाड़ा युद्ध के मैदान में महपा पंवार के कहने पर ‘चाचा व मेरा’ (दोनों राणा क्षैत्रसिंह की खातिन प्रेमिक कर्मा के अवैध / अनौरस संतानें थी) नामक दो व्यक्तियों ने मोकल की हत्या कर दी। तभी से मेवाड़ में यह कहावत चरितार्थ होती है कि ‘दीवार में आळा,’ जाता है।’ खेत में नाला व घर में साला बर्बाद करके ही
महाराणा कुम्भा ( 1433-68 ई.)
महाराणा कुम्भा राणा मोकल व परमार रानी सौभाग्य देवी का पुत्र था, जिसका जन्म 1423 ई. में हुआ। कुम्भा के पिता मोकल की हत्या हो जाने के बाद कुम्भा मेवाड़ का शासक बना। शासक बनते ही उसके सामने दो बड़ी समस्या आई-प्रथम समस्या अपने पिता के हत्यारों (चाचा, मेरा व महपा पँवार) से बदला लेना व दूसरी समस्या- अपने पिता के मामा (रणमल राठौड़) के मेवाड़ पर बढ़ते प्रभाव को रोकना ।
कुम्भा ने सर्वप्रथम अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सैनिक सहायता से चाचा, मेरा व महपा पँवार को मारने की सोची तभी चाचा, मेरा व महपा पँवार मेवाड़ से भागकर मालवा के सुल्तान महमूद ख़िलजी प्रथम की शरण में पहुँच गये। कुम्भा एक अच्छा राजनीतिज्ञ व कूटनीतिज्ञ था। उसने रणमल राठौड़ की सैनिक सहायता से 1437 ई. में ‘सारंगपुर के युद्ध’ (मध्य प्रदेश) में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को पराजित कर बंदी बना लिया और पिता के हत्यारों चाचा, मेरा व महपा पँवार की हत्या कर दी।
कुम्भा ने इसी मालवा विजय के उपलक्ष्य में 9 मंजिला कीर्ति स्तम्भ/ विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया, जिसकी शुरूआत 1439- 40 ई. में की गई और जो 1448 ई. में बनकर तैयार हुआ। अत: यह विजय स्तम्भ / विक्टरी टॉवर कहलाया। इसी विजय स्तम्भ की पहली मंजिल के मुख्य द्वार पर विष्णु भगवान की मूर्ति लगी हुई है। और यह विष्णु भगवान को समर्पित है अतः इसे विष्णु ध्वज कहते हैं। इसमें अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अंकित है अतः भारतीय मूर्ति कला का विश्वकोष / मूर्तियों का अजायबघर / मूर्तियों का शब्दकोष कहलाता है। यह इमारत 9 मंजिला व 120 / 122 फीट ऊँची है, जिसका निर्माण जैता व उसके पुत्र नापा, पोमा व पूँजा की देखरेख में करवाया गया। इस स्तम्भ की तीसरी मंजिल पर अल्लाह का नाम भी लिखा मिलता है। यह विजय स्तम्भ राजस्थान पुलिस व राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का प्रतीक चिह्न है तथा 1949 ई. में इसी विजय स्तम्भ पर डाक टिकट जारी किया गया। इस विजय स्तम्भ को कर्नल जेम्स टॉड ने देखा और कहा कि ‘कुतुबमीनार इस स्तम्भ से ऊँची है परंतु यह इमारत कुतुबमीनार से भी बेहतरीन है।’ चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विजय स्तम्भ के अलावा एक दूसरी मीनार / स्तम्भ भी है जिसे कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति कहते हैं। इस प्रशस्ति का निर्माण जैन व्यापारी जीजा ने करवाया। अतः यह प्रशस्ति जैन धर्म को समर्पित है। इस प्रशस्ति को लिखने वाला या रचनाकार अत्रि था, लेकिन इसकी मृत्यु के बाद इसको पूरा इसके पुत्र महेश ने किया।
कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को 6 माह तक बंदी बनाकर बाद में रिहा कर दिया। यह कुम्भा की सबसे बड़ी भूल थी । मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी मेवाड़ से छूटकर सीधा गुजरात के शासक कुतुबुद्दीन शाह के पास पहुँचा और उन दोनों ने कुम्भा के विरूद्ध 1456 ई. में चम्पानेर की संधि की लेकिन कुम्भा ने गुजरात के शासक कुतुबुद्दीन शाह को कुम्भलगढ़ दुर्ग के पास एवं मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को 1457 ई. में पुन: ‘बदनौर / बैराठगढ़ के युद्ध’ (भीलवाड़ा) में पराजित किया और इस विजय के उपलक्ष्य में कुशाल माता के मंदिर (बदनौर) का निर्माण करवाया। इस प्रकार महाराणा कुम्भा की पहली समस्या का कुम्भा ने हल कर दिया।
अब उसके सामने दूसरी समस्या रणमल राठौड़ की थी। हँसाबाई की एक दासी भारमली थी, जिसे रणमल राठौड़ दिलों जान से चाहता था और वह दासी कुम्भा को चाहती थी और कुम्भा के कहने पर भारमली ने शराब में जहर मिलाकर रणमल राठौड़ की हत्या कर दी। इसका पता रणमल राठौड़ के बेटे राव जोधा को चला तो राव जोधा डरकर अपनी जान बचाकर मण्डौर (जोधपुर) भाग गया, लेकिन महाराणा कुम्भा ने राव जोधा को मण्डौर से भी खदेड़ दिया, तो राव जोधा सीधा अपनी बुआ हँसाबाई के पास पहुँचा। महाराणा कुम्भा राव जोधा के मध्य कुम्भा की दादी व राव जोधा की बुआ हंसाबाई ने मध्यस्थता करते हुए दोनों के मध्य 1457 ई. में सोजत (पाली) में ‘आँवल-बाँवल’ की संधि करवाई जिसके तहत मेवाड़-मारवाड़ की सीमा का निर्धारण हुआ तथा राव जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल के साथ किया।
कुम्भा को हिन्दू सुरताण (मुस्लिम शासकों को पराजित करने के कारण), अभिनव भरताचार्य (संगीत ज्ञान के लिए), राणो रासो (विद्वानों का आश्रय दाता), हालगुरु (गिरि दुर्गों का निर्माता), राजगुरु (विद्वान), राणेराय, दानगुरु आदि नामों से जाना जाता है।
ध्यातव्य रहे- महाराणा कुम्भा को मेवाड़ की बौद्धिक व कलात्मक उन्नति का सबसे अधिक श्रेय जाता है। राणा कुंभा के दरबार में तिलभट्ट, नाथा, मुनि सुन्दर सुरि आदि विद्वान थे।
मेवाड़ के राणा कुम्भा के संगीत गुरु सारंग व्यास थे तथा कुम्भा ने नृत्य रत्नकोष, संगीत पर रसिक प्रिया टीका, संगीत मीमांसा, संगीतराज (पाँच कोषों में विभक्त), सूड़ प्रबंध आदि ग्रंथ लिखे ।
महाराणा कुम्भा ने एकलिंग महात्म्य (पांच भागों में विभक्त) पुस्तक के प्रथम भाग ‘राजवर्णन’ को लिखना शुरू किया लेकिन इस पुस्तक का अंत कान्ह व्यास ने किया, जो कुम्भा का वैतनिक कवि था । एकलिंग महात्म्य की तुलना पुराणों से की गई, क्योंकि इसमें वंशावली का उल्लेख किया गया है। राणा कुम्भा को वीणा बजाने में दक्षता हासिल थी। कुम्भा की एक पुत्री थी, जिसका नाम रमाबाई था और वह भी महान संगीतज्ञ थी, जिसे ‘वागीश्वरी’ के नाम से जानते हैं।
महाराणा कुम्भा के काल में राजस्थान में चित्रकला की शुरूआत हुई। वीर विनोद पुस्तक (इस ग्रंथ की रचना मेवाड़ के महाराणा सज्जन सिंह के शासनकाल में की गई) के लेखक श्यामलदास (भीलवाड़ा निवासी) के अनुसार मेवाड़ के 84 दुर्गों में से 32 दुर्ग महाराणा कुम्भा ने बनवाए, अत: इसे ‘राजस्थानी स्थापत्य कला का जनक’ एवं कुम्भा के काल को ‘स्थापत्य कला का स्वर्ण युग’ कहते हैं। महाराणा कुम्भा ने कुम्भलगढ़ (राजसमन्द), अचलगढ़ (सिरोही), बसंतगढ़ (सिरोही), भोमट दुर्ग (बाड़मेर) आदि का निर्माण करवाया।
कुम्भा ने वर्तमान राजसमंद जिले में एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जो कुम्भलगढ़ दुर्ग कहलाता है। इस दुर्ग का वास्तुकार मण्डन था । मण्डन ने शिल्पकला पर ‘प्रसाद मंडन, रूप मंडन, राजवल्लभ मंडन, देवतामूर्ति प्रकरण, वास्तुमंडन, शाकुन मंडन, वैध मंडन, कोदण्ड मंडन और वास्तुसार मण्डन’ आदि ग्रन्थ लिखे। कुम्भलगढ़ दुर्ग में एक और दुर्ग बनाया गया, जिसका नाम कटारगढ़ दुर्ग था। यह दुर्ग के अंदर है अत: कहा गया है कि ‘दुर्ग के अंदर भी दुर्ग कटारगढ़ है।’ इस कटारगढ़ दुर्ग में कुम्भा रहकर मेवाड़ पर नजर रखता था, अत: यह दुर्ग मेवाड़ की आँख कहलाता है। यह दुर्ग कटार के समान थोड़ा बीच में से मुड़ा हुआ है अतः एक दिन इसको अबुल फजल ने देखा और कहा ‘इस दुर्ग की ऊँचाई इतनी है कि यदि व्यक्ति नीचे खड़ा होकर इसे देखे तो उस व्यक्ति की पगड़ी नीचे गिर जाए।’
कुम्भा के जीवन के अंतिम काल में उन्माद नामक रोग हो गया। था। कुम्भा की 1468 में कुम्भलगढ़ के अंदर कटारगढ़ दुर्ग कुम्भश्याम मन्दिर में उनके पुत्र ऊदा ने हत्या कर दी अत: ‘मेवाड़ का पितृहन्ता- ऊदा’ कहलाता है। 1473 ई. तक मेवाड़ के सरदारों को पता लग गया था कि ऊदा ने कुम्भा की हत्या कर दी, इसी कारण मेवाड़ के सरदारों ने ख़ुदा को वहाँ से भगा दिया और कुम्भा के पुत्र रायमल को मेवाड़ का शासक बनाया। बाद में ऊदा की बिजली गिरने से मृत्यु हो गई।
ध्यातव्य रहे-कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति 1460 ई. के अभिलेख में महाराणा कुम्भा के लेखन पर प्रकाश डाला गया है। इस लेखानुसार कुम्भा द्वारा रचित 4 नाटकों में मेवाड़ी भाषा का प्रयोग किया गया था।
महाराणा रायमल (1473-1509 ई.)
मेवाड़ के सरदारों ने पितृहन्ता ऊदा को हटाकर रायमल को 1473 ई. में राजा बनाया। राणा रायमल के 11 रानियाँ थीं, जिनसे 13 पुत्र और 2 पुत्रियाँ हुई। पृथ्वीराज सिसोदिया रायमल का ज्येष्ठ पुत्र और जयमल दूसरा तथा साँगा तीसरा पुत्र था। पृथ्वीराज और साँगा सगे भाई थे जो रायमल की प्रसिद्ध रानी श्रृंगार देवी के गर्भ से उत्पन्न हुए। रायमल अपने जीवनकाल में अपना उत्तराधिकारी निश्चित नहीं कर पाया था, जिससे उसके महत्त्वाकांक्षी पुत्र और चचेरे भाई एक- दूसरे के प्रति वैमनस्य रखने लगे।
उसके मुख्य तीनों पुत्र ज्योतिष व भाग्य पर विश्वास करते थे। अतः ये तीनों ज्योतिष के पास जाते थे, तो ज्योतिष हमेशा साँगा के भाग्य में ही राजयोग लिखा बताते थे। इससे नाराज होकर बड़े भाई पृथ्वीराज ने साँगा की बाईं आँख फोड़ दी और उसकी हत्या करने लगा तो सांगा किसी प्रकार वहाँ से बचकर अजमेर भाग गया, जहाँ पर अजमेर के कर्मचंद पँवार ने उसको शरण दी।
डॉ. ओझा और हरविलास शारदा ने एक जनश्रुति को स्वीकार करते हुए लिखा है कि एक दिन पृथ्वीराज, जयमल और साँगा अपने चाचा सारंग देव के साथ एक ज्योतिष के पास पहुँचे और अपना भविष्य फल जानना चाहा। ज्योतिष ने जन्मपत्रियों के आधार पर साँगा का राजयोग प्रबल बताया। महत्त्वाकांक्षी पृथ्वीराज इस भविष्यवाणी को सहन न कर सका और आवेश में आकर अपनी तलवार से साँगा पर आक्रमण कर दिया। साँगा बच तो गया किंतु तलवार की हूल से उसकी एक आँख फूट गई। सारंगदेव ने बीच में आकर दोनों को समझाया। उसने साँगा की आँख का इलाज भी करवाया, किंतु साँगा की एक आँख हमेशा के लिए चली गई।
सारंगदेव ने तीनों भाईयों में मेल कराने का प्रयास किया और कहा कि ज्योतिषी के कथन पर विश्वास कर आपस में मनमुटाव करना ‘अच्छा नहीं है। इससे तो अच्छा है कि भीमल गाँव की चारण जाति की पुजारिन जो चमत्कारिक है, उससे अपना भविष्य जान लो। तीनों भाई सारंगदेव के साथ भीमल गाँव की उस पुजारिन के पास पहुँचे। पुजारिन उस समय बाहर गई हुई थी। सभी वहाँ बैठकर उसका इंतजार करने लगे। जब पुजारिन ने भी ज्योतिषी की भविष्यवाणी का समर्थन किया, तो इसको सुनते ही तीनों में वहीं युद्ध शुरू हो गया। पृथ्वीराज साँगा पर टूट पड़ा। सारंग देव ने किसी तरह साँगा को बचाया और साँगा वहाँ से भाग खड़ा हुआ। साँगा गोडवाड़ के मार्ग से अजमेर पहुँचा, जहाँ श्रीनगर (अजमेर) के कर्मचंद पँवार ने उसे आश्रय दिया। रायमल के समय माण्डू के सुल्तान जयासशाह ने 2-3 बार चित्तौड़ पर आक्रमण किया परंतु असफल रहा। 1509 ई. में रायमल की मृत्यु हो गई। इसके दरबार में गोपाल भट्ट एवं महेश भट्ट जैसे विद्वान व अर्जुन जैसा प्रकाण्ड शिल्पी थे।
ध्यातव्य रहे- -जब राणा साँगा मेवाड़ का शासक बना तब कर्मचंद के द्वारा किए गए उपकारों का एहसान मानते हुए उसे ‘रावत’ की उपाधि से विभूषित किया। दाड़िमपुर विजय का संबंध रायमल से है ।