ओझियाना सभ्यता (भीलवाड़ा)

यह आहड़ संस्कृति से संबंधित पुरास्थल है जो भीलवाड़ा जिले के बदनौर के पास स्थित है | यहाँ बी. आर. मीणा व आलोक त्रिपाठी के द्वारा सन् 2000 में उत्खनन करवाया गया | यहाँ गाय की एक लघु मृण्मूर्ति मिली है | उत्खनन में प्राप्त मृदभाण्ड परम्परा एवं भवन संरचना के आधार पर इस संस्कृति का विकास तीन चरणों में हुआ माना जाता है, तो वहीं उत्खनन में सभी चरणों से लाल व काले मृदभाण्ड मिले है | जो कि सफ़ेद रंग से चित्रित है, परन्तु पात्रों को बनाने की विधि पत्येक चरण में भिन्न भिन्न रही है | यहाँ से सफ़ेद चित्रित बैल की मृण्मृति मिली है जो कि ओझियाना बुल नाम से प्रसिद्ध है, तो वहीँ इस सभ्यता की एक अन्य विशेषता यह है कि यह पहाड़ी पर स्थित है | 

तिलवाड़ा सभ्यता (बाड़मेर) 

तिलवाड़ा सभ्यता लूनी नदी के किनारे बाड़मेर जिले में अवस्थित है | प्रारम्भिक काल में मानव को इस क्षेत्र में आखेट और जल साधन प्रचूर मात्रा में उपलब्ध थे इसलिए यह स्थल प्राचीन मानव काल आवासीय स्थल रहा | यहाँ से हमें प्राचीनतम पशु पालन के अवशेष प्राप्त हुए | यह सभ्यता प्रागैतिहासिक व उत्तर पाषण कालीन है यहाँ उत्खनन कार्य 1966 – 67 ई. में राजस्थान राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा करवाया गया, तो वहीं डॉ. वी. एन. मिश्र के द्वारा तिलवाड़ा सभ्यता की समयावधि 500 ई. पू. से 200 ई. तक मानी गई है | तिलवाड़ा सभ्यता से उत्खनन में 5 आवास स्थलों के अवशेष, सिलबट्टा, जली हड्डियाँ, चाक पर बने स्लेटों व लाल रंग के मृदभाण्ड, अग्निकुण्ड के अवशेष मिले है | 

सौन्थी सभ्यता (बीकानेर) 

सौन्थी सभ्यता का स्थल बीकानेर जिले में प्राप्त हुआ | इसका सर्वप्रथम उत्खनन 1953 ई. में अमलानन्द घोष ने किया | कालीबंगा के समान सर्वाधिक तथ्य व सामग्री सौन्थी सभ्यता (बीकानेर) से प्राप्त हुए है अत: इसे ‘ कालीबंगा प्रथम ‘ के नाम से जानते है | बीकानेर जिले में सावणियाँ एवं पूंगल नामक स्थान पर भी प्राचीन सभ्यताओं के अवशेष मिले है | यह कांस्ययुगीन सभ्यता है | 

बागोर सभ्यता (भीलवाड़ा) 

बागोर सभ्यता भीलवाड़ा जिले में कोठारी नदी पर स्थित है | इसका उत्खनन 1967 – 1969 ई. डॉ. वीरेंद्र नाथ मिश्र ने किया | बागोर सभ्यता भारत का सबसे सम्पन्न मध्यपाषाणीय सभ्यता स्थल था, इसी कारण हम बागोर सभ्यता को ‘ आदिम संस्कृति का संग्राहलय ‘ कहते है | बागोर सभ्यता के उत्खनन में प्राप्त प्रस्तर उपकरण को काल विभाजन की दृष्टि से तीन चरणों में विभाजित किया गया है |

प्रथम चरण :-  4480 – 3285 ई. पू. का माना जाता है | इस स्तर के उत्खनन एवं मृत पशुओं के अवशेष से मानव की भोजन संग्राहक अवस्था एवं शिकार से निर्वाह का अनुमान लगाया जाता है | 

द्वितीय चरण : – 2765 – 500 ई. पू. का नाम जाता है | इस स्तर के उत्खनन से मृदभांडों के अवशेष, धातु अस्त्र, आभूषण तथा भोजन सामग्री मिली है | मृतकों को पूर्व – पश्चिम दिशा में लिटाया जाता था | इस युग में मानव पाषण उपकरणों के साथ – साथ मिट्टी के उपकरण प्रयोग में लाता था व शिकार और कंदमूल एकत्र करने के साथ पशुपालन व कृषि करना भी सीख गया था | 

तृतीय चरण :- 500 ई. पू. से 400 ई. तक माना जाता है | सभ्यता के इस स्तर से लोहास्त्रों के साथ – साथ चाक पर बने मृदभाण्ड एवं बर्तन मिले है | तो वहीं यहाँ बड़ी मात्रा में लघु पाषण उपकरण मिले है | 

बागोर सभ्यता से भारत के प्राचीनतम पशु – पालन के अवशेष मिले है | बागोर सभ्यता से मछली मारने, शिकार करने, चमडा सिलने एवं छेद निकालने के औजार मिले है | बागोर सभ्यता के लोग स्वास्तिक चिह्न का प्रयोग वास्तुदोष निवारण में करते थे | बागोर सभ्यता से उत्खनन किये गये स्थान को महासतियों का टीला कहा जाता है |  

रेढ़ सभ्यता (टोंक) 

रेढ़ सभ्यता टोंक जिले की निवाई तहसील के पास ‘ ढील नदी ‘ के किनारे पर अवस्थित थी, जिसका उत्खनन 1938  – 40 ई. में श्री के. एन. पुरी (केदारनाथ पुरी) के नेतृत्व में किया गया | रेढ़ सभ्यता से हमें मालव जनपद युग की मुद्राएँ व समकालीन लौह सामग्री के विशाल भण्डार मिले है | रेढ़ सभ्यता के कारीगर अर्द्ध कीमती पत्थरों, शंखो और सिपू व काँस्य पदार्थों से मानके बनाते थे | रेढ़ सभ्यता से हमें 115 घेरेदार कूप तथा 3000 आहत मुद्राएँ मिली है | जिसमें मालव व मिश्र शासकों के सिक्के अपोलोडॉट्स का सिक्का और इंडो – सेसेनियन का सिक्का प्रमुख है | तो वहीं मातृदेवी व गजमुखी यक्ष की मूर्ति तथा एशिया का सबसे बड़ा सिक्कों का भण्डार मिला है इसलिए इसे ‘ प्राचीन भारत का टाटानगर ‘ कहते है | 

लाल सफेद रंग के मृदभाण्डों का प्रयोग किया जाता था, तो वहीं सेलखड़ी की डिब्बियां, दीपक, शराब की सुराहियाँ, हंडियां, कटोरे, संकरे मुँह के घड़े, लोटे, बन्दर की आकृति के बर्तन, नालीदार कटोरे आदि मृदपात्र मिले है | 

रंगमहल सभ्यता (हनुमानगढ़) 

रंगमहल सभ्यता का उत्खनन कार्य डॉ. हन्नारिड के नेतृत्व में 1952 से 1954 में एक स्वीडिश दल के द्वारा किया गया | रंगमहल सभ्यता के मृदभाण्ड गहरे लाल, गुलाबी तथा कहीं – कहीं पीलापन लिए हुये थे | लाल रंग के मृदभाण्डों पर काले रंग के डिजायन के कारण ही इसे रंगमहल कहा जाता है | यहाँ से सैंधव सभ्यता, कुषाणकालीन एवं पूर्व गुप्तकालीन संस्कृति के अवशेष मिले है, तो वहीं यह सभ्यता 100 ई. पू. से 300 ई. पू. के बीच पनपी | रंगमहल से गुरु – शिष्य की मूर्ति, घंटाकार मृदपात्र, पंचमार्क एवं कनिष्क कालीन मुद्राएँ, टोंटीदार घड़े, छोटे – बड़े प्याले, कटोरे, बर्तनों के ढक्कन, दीपदान, धूपदान आदि मिले है | 

गुराड़ा सभ्यता (सीकर) 

सीकर जिले में स्थित इस सभ्यता से चाँदी के 2744 पंचमार्क सिक्के प्राप्त हुए है | 

नगरी सभ्यता (चित्तौड़गढ़) 

नगरी सभ्यता नाम मध्यमिका / मज्यमिका नगरी ( इस नगर का उल्लेख महाभारत और महाभाष्य  दोनों में है ) था, जो शिवि जनपद की राजधानी थी | इसकी खुदाई 1904 में डॉ. भण्डारकार द्वारा की गई, जिसमें शिवि जनपद के सिक्के मिले है | 

बालाथल सभ्यता (उदयपुर) 

बालाथल सभ्यता आहड़ संस्कृति का नवीनतम उत्खनित स्थल है | इसका उत्खनन 1993 में वी. एन. मिश्र के नेतृत्व में वल्लभनगर में किया गया | यद्यपि इस सभ्यता की खोज डॉ. वी. एन. मिश्र द्वारा 1962 – 63 ई. में की जा चुकी थी | बालाथल सभ्यता के उत्खनन से वहां एक विशाल भवन के अवशेष मिले है, जिसमें 11 कमरे विद्यमान है | इसके अतिरिक्त खुदाई में मोती दीवार की एक दुर्गनुमा संरचना के अवशेष मिले है | यहाँ पर उत्खनन में अधिकांश तांबे के उपकरण मिले है, तो वहीं पत्थर के उपकरणों की मात्रा बहुत कम है | यहाँ पर दो प्रकार के मृदभाण्ड मिले है – चिकनी दीवार वाले तथा खुरदरी दीवार वाले | बालाथल सभ्यता में कुत्ते व बैल की मृण्मृतियाँ उल्लेखनीय रूप से मिली है, तो वहीं यहाँ वस्त्र का एक टुकड़ा मिला है, जिससे ज्ञात होता है , कि वस्त्र की सिलाई वे लोग जानते थे | बालाथल सभ्यता से लोहा गलाने की भट्टी के अवशेष भी मिले है | 

  

चन्द्रावती सभ्यता (सिरोही)

जापान के पुरातत्व विशेषज्ञ हिंडो हितोशी व उदयपुर राजस्थान विद्यापीठ के प्रो. जीवन लाल खरगवाल ने 4 जनवरी 2014 से यहाँ खोज शुरू की | यहाँ से गरुडासन पर विराजित विष्णु की मूर्ति मिली है, जो दुनिया में अपने प्रकार की इकलौती मूर्ति है | कर्नल टॉड ने इस नगरी के बारे में अपनी पुस्तक द वेस्टर्न इण्डिया में लिखा | स्व. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी हत्या (31 अक्टूबर 1984) से 3 माह पहले यहाँ आकर इस सभ्यता का जायजा लिया था  | 

जूनाखेडी सभ्यता (पाली)

इसकी खोज 1883 ई. में एच. डब्ल्यू. बी. के. गैरिट ने की थी | 1889 – 90 से लेकर 1995 – 96 ई. से लेकर 1995 – 96 ई. तक यहाँ चार सत्रों में उत्खनन कार्य करवाया गया | यहाँ से काले व लाल धरातल के अचित्रित मृदपात्र, मृदभाण्ड पर शाल भंजिका का अंकन, ओपदार कटोरे व लघु आकार के दीपक मिले है | 

भीनमाल सभ्यता (जालौर) 

भीनमाल सभ्यता के लिए 1953 – 54 ई. में आर. सी. अग्रवाल के निर्देशन में उत्खनन किया गया | यहाँ खुदाई में मिले मृदभाण्ड तथा शक क्षत्रियों के सिक्के के आधार पर इसका उदय द्वितीय सदी ई. पू. अनुमानित किया गया है | मृदपात्रों पर विदेशी प्रभाव दिखायी देता है, तो वहीँ यहाँ से यूनानी दुहत्थी सुराही भी मिली है | 

बरोर सभ्यता (श्रीगंगानगर)

यह सभ्यता प्राचीन सरस्वती नदी के तट पर श्रीगंगानगर में अवस्थित है, जहाँ सन् 2003 में उत्खनन कार्य किया गया, तो वहीं उत्खनन के आधार पर इस सभ्यता को प्राक् हड़प्पा व विकसित सैधव कालीन माना जाता है | उल्लेखनीय है कि देश में अबतक काली मिट्टी के मृदभाण्ड केवल बरोर सभ्यता से ही मिले है | यहाँ से बटन के आकार की मोहरें, सेलखड़ी के लगभग 8000 मनके, अफगानिस्तान से आयातित लाजवर्द, बोरला, अंगूठी, शंख की चूड़ियाँ आदि के अवशेष मिले है, तो वहीं यहाँ से सुनियोजित नगर विन्यास, उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था, भवन निर्माण में कच्ची ईंटों का प्रयोग और विशिष्ट प्रकार की मृदभाण्ड परम्परा सैन्धव सभ्यता के समान पायी गई है | 

गिलूण्ड सभ्यता (राजसमन्द)

राजसमन्द के गिलूण्ड करबे में बनास नदी के तट पर यह सभ्यता पल्लवित – पुष्पित हुई | 1957 – 58 ई. में बी. वी. लाल व बी. के. थापर ने निर्देशन में यहाँ उत्खनन कार्य किया गया | तो वहीं 1998 – 2003 ई. के मध्य प्रो. ग्रेगरी के निर्देशन में यहाँ पुन: उत्खनन कार्य किया गया | इसका कालखण्ड रेडियो कार्बन पद्धति के आधार पर 1900 – 1700 ई. पू. निर्धारित किया गया है | गिलूण्ड में लाल व काले रंग के मृदभाण्ड मिले है तथा यहाँ मकानों में चूने के प्लास्टर व कच्ची दीवारों का प्रयोग होता था, तो वहीँ दीवारों के मध्य अनाज भरने की कोठी एवं चूल्हे के अवशेष भी मिले है तथा मिट्टी के खिलौने, पत्थर की गोलियां, हाथी दांत की चूड़ियों के अवशेष के साथ एक मटके से गेहूँ के दाने भी मिले है | यहाँ से हड़प्पा से भी पुरानी सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए है |  

नलियासर सभ्यता (दूदू) 

यह सभ्यता सांभर के पास स्थित है जो वर्तमान में दूदू जिले का भाग है | यहाँ से प्रतिहार कालीन मन्दिर व चौहान युग से पूर्व की जानकारी प्राप्त होती है | इस सभ्यता का कालखण्ड 300 ई. पू. से 600 ई. के मध्य माना जाता है | यहाँ से ताम्बे के पात्र, मिट्टी के बाँटे, झुनझुने, तलवार, स्वर्ण निर्मित सिंह का सिर, पूजा पात्र, शीशे की चूड़ियाँ, सिलबट्टे, हड्डी के पासे, कांसे के कड़े तथा 105 कुषाणकालीन मुद्रायें मिली है | 

सुनारी (नीम का थाना) 

यह सभ्यता खेतड़ी में कांतली नदी के तट पर विकसित हुई | राजस्थान राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा यहाँ पर उत्खनन कार्य 1980 – 81 में करवाया गया | सुनारी में अयस्क से लोहा बनाने की प्राचीनतम भट्टियाँ मिली है, तो वहीं यहाँ से लोहे के तीर, कृष्ण परिमार्जित मृदपात्र, लोहे का कटोरा, भाले के अग्रभाग, पत्थर  के मणके, शंख की चूड़ियाँ, मातृदेवी की मृण्मूर्तियाँ आदि के अवशेष प्राप्त हुए है | यहाँ कृषि के साक्ष्य मिलते है तथा यहाँ के निवासी भोजन में चावल का प्रयोग करते थे और घोड़े से रथ खींचते थे | ऐसा माना जाता है कि इस बस्ती को वैदिक आर्यों ने बसाया था | 

नोह सभ्यता (भरतपुर)

भरतपुर जिले के नोह गावँ में रुपारेल नदी के तट पर पाँच सांस्कृतिक युगों के प्रमाण मिले है, तो वहीं रेडियों कार्बन पद्धति के आधार पर ये अवशेष 1100 – 900 ई. पू. के माने गये है | ये कुषाणकालीन एवं मौर्यकालीन अवशेष है  | आर. सी. अग्रवाल व कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डेविडसन द्वारा 1963 – 67 ई. यहाँ उत्खनन कार्य करवाया गया | नोह दोआब संस्कृति का अंग था, जहाँ ताम्बे की संस्कृति प्राप्त नहीं हुई,  तो वहीं यहाँ के लोगों को लोहे के उपयोग की पूरी जानकारी थी | यहाँ से काले एवं लाल रंग के मृदपात्र मिले है, तो वहीं स्वास्तिक चिह्न भी मिला है तथा एक चिड़ियाँ (गोरैया) का खिलौना व सिंगवेल्स भी नोह से प्राप्त हुये है |  

ईसवाल सभ्यता (उदयपुर) 

यह उदयपुर की एक प्राचीन बस्ती है, तो वहीं राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर के पुरातत्व विभाग के तत्वाधान में यहाँ किये गये उत्खनन में लगभग 2000 वर्ष तक निरंतर लोहा गलाने के प्रमाण मिले है | यहाँ प्राक् ऐतिहासिक काल से मध्यकाल तक पाँच स्तरों की बस्तियों के प्रमाण मिले है, तो यहीं उत्खनन में लौह मल, लौह अयस्क, मिट्टी में प्रयुक्त होने वाले पाईप आदि मिले है | जिससे यह अनुमान लगाने का काम किया जाता था | यहाँ से उत्खनन में हड्डियाँ एवं ऊँट के दांत मिले है तो यहीं इस समय मकान पत्थरों के बनाये जाते थे उल्लेखनीय है कि यहाँ खुदाई में प्रारम्भिक कुषाणकालीन सिक्के मिले है | 

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