जैव विविधता / Biodiversity

Biodiversity

व्हिटेकर की पंच जगत अवधारणा में पांच जगत है, मोनेरा, प्रोटिस्टा, फंजाई, प्लांटी और ऐनिमेलिया।

 

मोनेरा (Monera) :-

ये प्रोकेरियोटिक जीव है। जीवों में संगठित केन्द्रक और कोशिकांग नहीं पाये जाते हें पोषण के स्तर के आधार पर ये स्वपोषी अथवा विषमपोषी दोनों हो सकते है। जनन संयुग्मन द्वारा होता है। उदाहरण: जीवाणु, नील-हरित शैवाल (साइनो-बैक्टीरिया), माइकोप्लाजमा।


प्रोटिस्टा (Protista) :-

इसमें एककोशिक, यूकेरियोटिक जीव आते है। यूकेरियोटिक होने के कारण इनकी कोशिका में सुसंगठित केन्द्रक एवं झिल्लीबद्ध कोशिकांग पाये जाते है। इस वर्ग के जीवों में गमन के लिए सिलिया, फ्लैजिला नामक संरचनायें पायी जाती है। ये अलैंगिक जनन, कोशिका संलयन एवं लैंगिक जनन युग्मनज बनने की विधि द्वारा करते है।
उदाहरण: एककोशिका शैवाल, डायटम, प्रोटोजोआ।

फंजाई (Fungi) :-

ये विषमपोषी, यूकेरियोटिक जीव है। अधिकांश फंजाई परपोषित होती है। यह पोषण के लिए सड़े-गले कार्बनिक पदार्थो को अवशोषित कर लेती है। अतः इन्हें मृतजीवी भी कहते है। कुछ फंजाई सजीव पौधों और जन्तुओं पर पोषण के लिये निर्भर रहती है, उन्हें परजीवी कहते है। इस प्रकार की फंजाई पादपों व जन्तुओं में रोग का कारण होती है। कवकों की कुछ प्रजातियां नील हरित शैवाल (साइनोबेक्टिरिया) के साथ स्थायी सम्बन्ध बनाती है, जिसे सहजीविता (Symboisis) कहते है। ऐसे सहजीवी जीवों को लाइकेन (Lichen) कहते है।


प्लांटी (Plantae) :-

इसमें कोशिका भित्ति युक्त बहुकोशिक यूकेरियोटिक जीव आते है। ये स्वपोषी होते हैं और प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना पोषण स्वयं करते है। पादप शरीर के प्रमुख घटकों के विभेदन, पादप शरीर में जल व अन्य पदार्थो को संवहन करने वाले ऊतकों, बीज धारण क्षमता के आधार पर पादपों को क्रमशः थैलोफाइटा, ब्रायोफाइटा, टेरिडोफाइटा, अनावृतबीजी व आवृतबीजी प्रभागों (Division) में विभाजित किया गया है।

(अ) थैलोफाइटा (Thallophyta) :-

इस प्रभाग के पौधों की शारीरिक संरचना में पादप शरीर जड़, तना व पत्ती में विभेदित नहीं होता है, ऐसा पादप शरीर थैलस  कहलाता है। जैसे: शैवाल।


शैवाल :-

कायिक, अलैंगिक तथा लैंगिक जनन करते हैं। कायिक जनन विखण्डन द्वारा अलैंगिक जनन बीजाणुओं द्वारा व लैंगिक जनन दो युग्मकों के संलयन से होता है। उदाहरण – क्लैमाइडोमोनास, वालवाॅक्स, कारा।

(ब) ब्रायोफाइटा :-


इस प्रभाग के पौधों को पादप जगत का उभयचर (जलस्थलचर) भी कहा जाता है, क्योंकि ये भूमि पर भी जीवित रह सकते हैं, परन्तु लैंगिक जनन के लिए जल पर निर्भर करते है। इन पादपों में वास्तविक मूल, तना तथा पत्तियां नहीं होती है। इनमें मूलसम, पत्तीसम तथा तनासम संरचनाएं होती हैं। ये एक कोशिकीय अथवा बहुकोशिकीय मूलाभासों द्वारा आधार से जुड़े रहते है।

ब्रायोफाइटा में लिवरवर्ट व मांस आते है, जिनमें अलैंगिक जनन थैलस के विखण्डन अथवा विशिष्ट संरचना गेमा द्वारा होता है, तथा लैंगिक जनन युग्मकोद्भिद् के पंुधानी व स्त्रीधानी से उत्पन्न पुमणु व अंड के संयोजन से होता है।
उदाहरण: मार्केन्शिया, फ्यूनेरिया।

(स) टेरिडोफाइटा :-

इस प्रभाग के पादपों का शरीर जड़, तना व पत्ती में विभेदित होता है। इनके शरीर में जल व अन्य पदार्थो के संवहन के लिये संवहन ऊतक जायलम व फ्लोयम पाये जाते है। ये सामान्यतः नम स्थानों पर पाये जाते हैं।

थैलोफाइटा, ब्रायोफाइटा व टेरिडोफाइटा में जननांग अप्रत्यक्ष होते हैं तथा इनमें फल व बीज उत्पन्न करने की क्षमता नहीं होती है, अतः ये क्रिप्टोगेम्स ;ब्तलचजवहंउेद्ध कहलाते हैं। परन्तु टेरिडोफाइटा प्रभाग के पादपों में संवहन ऊतक की उपस्थिति के कारण ये संवहनी क्रिप्टोगेम्स कहलाते हैं। टेरिडोफाइटा प्रभाग के पादपों में बीजाणु द्वारा तथा पुंधानी व स्त्रीधानी के उत्पन्न पुमणु व अण्ड के संयोजन द्वारा जनन होता है।
उदाहरण: मार्सीलिया, सलेजीनेला, इक्वीसिटम।

(द) अनावृतबीजी :-

जिम्नोस्पर्म (जिम्नोस-अनावृत, नग्न; स्पर्मा-बीज) ऐसे पौधे हैं, जिनमें बीजाण्ड अण्डाशय से ढके हुए नहीं होते है और ये निषेचन से पूर्व तथा बाद में भी अनावृत रहते हैं। इन्हें नग्नबीजी पादप भी कहा जाता है। जिम्नोस्पर्म मध्यम अथवा लम्बे वृक्ष तथा झाड़ियां होती है। इनमें मूसला मूल पायी जाती है तथा कुछ पादपों की जड़े कवक से सहयोग कर लेती है जिसे कवक मूल कहते है जैसे पाइनस। जबकि कुछ पादपों में छोटी विशिष्ट मूल नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले साइनोबैक्टीरिया के साथ सहयोग कर लेती है जिसे प्रवाल मूल कहते है। जैसे साइकस। जिम्नोस्पर्म में जनन बीजाणु द्वारा तथा शुक्राणु व अण्ड के संयोजन से होता है। उदाहरण: साइकस, पाइनस।

(य) आवृतबीजी :-

एन्जियोस्पर्म (एंजियो – ढ़का हुआ, स्पर्मा – बीज) ऐसे पौधे हैं, जिनमें बीज फलों के अन्दर ढके होते हैं। अर्थात् इनके बीजों का विकास अण्डाशय के अन्दर होता है, जो बाद में फल बन जाता है। इन्हें पुष्पी पादप भी कहा जाता है।

  • इन पादपों में भोजन का संचय या तो बीजपत्रों में होता है या फिर भू्रणपोष में होता है। बीजपत्रों की संख्या के आधार पर एक बीजपत्र वाले पौधों को एक बीजपत्री  और दो बीज पत्र वाले पौधों को द्विबीजपत्री कहा जाता है। इन पादपों में कायिक जनन तथा नर युग्मक व मादा युग्मक के संयोजन द्वारा लैंगिक जनन होता हैं।
    उदाहरण: सरसों, आम, बरगद।

एनिमेलिया :-

इस जगत में युकेरियोटिक, बहुकोशिक और विषमपोषी जीवों को रखा गया है। इनकी कोशिकाओं में कोशिका भित्ति नहीं पायी जाती हैं। अधिकतर जन्तु चलायमान होते हैं। नोटोकाॅर्ड की उपस्थिति के आधार पर ऐनिमेलिया की दो समूहों में विभक्त किया गया है, अपृष्ठवंशी व पृष्ठवंशी।

(अ) अपृष्ठ वंशी या नाॅन-काॅर्डेटा :-

इस समूह के जन्तुओं में कशेरूक दण्ड का अभाव होता है। शारीरिक संरचना एवं विभेदीकरण के आधार पर इन्हें अलग-अलग संघों में वर्गीकृत किया गया है।

प्रोटोजोआ

1. ये सृष्टि में प्रथम जन्तु है। जिनका शरीर एक कोशिकीय के बजाय अकोशिकीय स्तर का होता है। इन जन्तुओं का अध्ययन प्रोटोजूलाॅजी कहलाता है। सर्वप्रथम प्रोटोजोआ शब्द का प्रयोग गोल्डफस ने किया था।

मुख्य लक्षण:-

1. एक कोशिकीय, जलीय जन्तु ऐकल रूप से स्वतंत्र रहते है। अथवा परजीवी हो सकते है। परिणाम में बहुत छोटे होते है। जिन्हे सुक्ष्मदर्शी के द्वारा देखा जाता है।
2. बाह्यकंकाल के रूप में पेलिकल, चोल या कवच पाया जाता है। कुछ जन्तु नग्न होते है।
3. प्रचलन अंगक 3 प्रकार के हो सकते है – 1. पदाभ कशाभिका अथवा पक्ष्माभ  ।
4. केन्द्रक एक या अधिक हो सकते है। जो एक ही प्रकार के या दो प्रकार के हो सकते है।
5. पोषण विभिन्न प्रकार का पाया जाता है। जैसे प्राणिसम, पादपसम, परजीवी, मृतोपजीवी या काॅपरजोइक। पाचन अन्तराकोशिकीय होता है।
6. श्वसन तथा उत्सर्जन शरीर सतह द्वारा होता है।
7. संकुचनशील रिक्तिका द्वारा शरीर में जल संतुलन की क्षमता होती है।
8. अलैंगिक प्रजनन के लिए द्विविभाजन, पुटीभवन, बहुविभजन अथवा बीजाणु निर्माण होता है।
9. इनमें पुनरूद्भवन की क्षमता होती है।
10. लैंगिक प्रजनन संयुग्मन द्वारा होता है।
11. जीवन चक्र सरल होता है। किन्तु कुछ में लैंगिक तथा अलैंगिक पीढीयों का एकान्तरण भी होता है।

प्रोटोजोआ के महत्वपर्ण जीव

1. ट्राइपैनोसोमा –
लक्षण –
1. ट्राइपैनोसोमा मनुष्य एवं अन्य उच्च कार्डेट्स के रूधिर में पाये जाने वाला अंतः परजीवी है।
2. इसका जीवन चक्र द्विपोषी होता है। जिसका प्राथमिक पोषी मनुष्य या पालतु चैपाये होते है । तथा द्वितीय पोषी सी-सी मक्खी होती हैं।

 

2. यूग्लीना –
लक्षण:-
1. हरे रंग का चपटा तर्कु समान प्रोटोजोअन जिसका पिछला सिरा नुकीला व अगला सिरा गोल होता है। इसका शरीर पतली, लचीली किन्तु दृढ़ पैलिकल से ढका होता है।
2.शरीर के अगले छोर के समीप फ्लास्क के आकार का आशय होता है। जिसमें कोशिका मुख एक कोशिका ग्रसनी द्वारा खुलता है।
3. अगले सिरे पर एक पतला लम्बा कशाभ कोशिका मुख से निकला होता है। आशाय में एक छोटा कशाभ भी पाया जाता है। दोनों कशाभ ब्लीफैरोप्लास्ट्स या आधार काय से निकलते है।
4. यूग्लीना में प्रजनन लम्बवत द्विखण्डन द्वारा होता है। इनमें प्रजनन बहुखण्डन तथा पुटीकाभवन द्वारा भी हो सकता है।

 

3. पैरामीशियम –
लक्षण:-
1. यह ताजे जल के पोखरोें, तालाबों व झीलो ंमें पाया जाता है। इसका आकार चप्पल के समान होता है। इसीलिए इसको स्लिपर जन्तुक कहते है।
2. इसके शरीर पर पतला पेलिकल का आवरण पाया जाता है। तथा शरीर पर लगभग 14 हजार पक्ष्माभ पाये जाते है।

4. अमीबा प्रोटियस –
लक्षण
1. यह जल मे पाया जाता है। यह अमर जीव है।
2. यह गमन करने के लिये स्युडोपोडिया का उपयोग करता है।
3. इसमें भोजन ग्रहण करने की क्रिया एण्डोसाइटोसिस कहलाती है।
4. अमीबा में प्रजनन द्विविखण्ड विधि द्वारा होता है।
5. एण्ट अमीबा हिस्टोलाइटिका – यह मनुष्य में अतिसार रोग उत्पन्न करता है।
6. एण्टअमीबा जिन्जीवेलिस – यह पायरिया रोग उत्पन्न करता है।
7. एण्टअमीबा कोलाई – यह हमारी आंत में पाया जाता है। तथा कोई रोग उत्पन्न नही करता है।
8. प्लाज्मोडियम – यह मनुष्य में मलेरिया रोग उत्पन्न करता है।
9. लीश्मानिया डोनोवनी – यह मनुष्य में काला अजार नामक रोग उत्पन्न करता है। इसकी वाहक सैंड फ्लाई है।

1. पोरीफेरा
– पोरीफेरा का अर्थ – छिद्र धारण करना।
– अतः ये जन्तु छिद्र देही कहलाते है। पोरीफेरा शब्द राॅबर्ट ग्रान्ट ने दिया था।

लक्षण:-
1. यह जन्तु द्विस्तरीय, असममित या अरीय सममित होते है।
2. यह जलीय, मुख्यतः समुद्री जन्तु है। जो वयस्क अवस्था में स्थिर रूप से आधार पर चिपके रहते है।
3. शरीर शाखन्वित होने के कारण जन्तु निवही या काॅलोनियल हो जाते है।
4. शारीरिक संगठन कोशिकीय स्तर का होता है। अतः ऊतक नहीं पाये जाते है। कोशिकाएँ पृथक – पृथक कार्य करती है। इनमें
समन्वयन नहीं होता है।
5. शरीर पर दो प्रकार के छेद पाये जाते है – छोटे, असंख्य एवं अन्तरवाही ऑस्टिया तथा बड़े संख्या में कम व अपवाही ऑस्कुलम।
6. स्पंजों के शरीर में एक बड़ी गुहा पायी जाती है जिसे स्पंजगुहा कहते है।
7. स्पंजो के शरीर में कीप कोशिकायें पायी जाती है। जो स्पंज के भीतरी स्तर को बनाती है।
8. शरीर में नालतंत्र पाये जाते है। छिद्रों एवं विभिन्न प्रकार की नाल तंत्रों में होती हुई जल की धारा शरीर में भोजन पदार्थ तथा
आॅक्सीजन लाती है। तथा बाहर जाते समय कर्बन डाइ आॅक्साइड ले जाती है।
9. कंकाल कंटिकाओं या स्पंजिन धागोें का बना होता है। मुख तथा आहारनाल का अभाव होता है। पाचन अन्तः कोशिकीय
होता है।
10. देहगुहा, तन्त्रिका तंत्र, रूधिर परिवहन तंत्र तथा उत्सर्जन तंत्र का अभाव होता है।
11. स्पंजों में अलैंगिक प्रजनन के लिए जेम्यूल बनते है। पुनरूद्भवन की भी बहुत क्षमता होती है।
12. लैंगिक प्रजनन शुक्राणओं तथा अण्डों के समेकन से होता है। अधिकतर जातियाँ उभयलिंगी होती है। किन्तु जनद नहीं पाये
जाते है।
13. निषेचन आंतरिक, परिवर्धन अप्रत्यक्ष। पक्ष्माभी मुक्तप्लावी लारवा जिसे एम्फीब्लास्टुला या पैरेन्काइमुला कहते है।
उदाहरण – साइकन, ल्यूकोसोलीनिया, यूस्पोंजिया, क्लोयोना, स्पोंजिला, यूप्लैक्टेला आदि।

2. निडेरिया / सिलेन्ट्रेटा  –


– ये जलीय जंतु है, इनका शारीरिक संगठन ऊतकीय स्तर का होता है।
– इस संघ के जन्तुओं का शरीर द्विकोरकी एवं अरीय सममित होता है। इनमें एक देह गुहा पायी जाती है। इन जन्तुओं के स्पर्शक अथवा शरीर में अन्य स्थानों पर दंश कोशिकाएं पायी जाती है इसलिए इसे निडेरिया कहते है।
– इनमें जठर वाहिनी गुहा पायी जाती है इसलिए इसे सिलेन्ट्रेटा  संघ भी कहते है।

लक्षण –
1. निम्न कोटि के ऊतक स्तर के जन्तु है जिनमें कोशिकायें बिखरी हुई व विभिन्न कार्यों के लिए उपयुक्त । कुछ कोशिकायें निश्चित
ऊतक बनाती है।
2. सभी जलीय जन्तु है। प्रायः समुद्र में परन्तु कुछ जातियाँ एकल, कुछ निवही, कुछ स्थिर तथा कुछ स्वतंत्र होती है।
3. शरीर द्विस्तरीय होता है। बाहरी स्तर एपीडर्मिस तथा भीतरी स्तर गैस्ट्रोडर्मिस के बीच मीसोग्लिया नामक जैली का स्तर होता है।
4. सदस्य द्विरूपी होते है जिन्हे जीवक या जोआयड कहते है। एक बेलनाकार व स्थिर पाॅलिप तथा दूसरे छतरी के आकार के स्वतंत्र
मैडूसा कहलाते है। कुछ जातियों में बहुरूपता भी पायी जाती है।
5. इनके शरीर में केवल एक बड़ी गुहा पायी जाती है। जो जठर गुहा तथा देह गुहा दोनों का कार्य करती है। इसे जठर वाहिनी
गुहा कहते है। यह पटों द्वारा वेष्मों में भी विभाजित हो सकती है।
6. शरीर का अग्रभाग बेलनाकार हाइपोस्टोम के रूप में उभरा होता है। जिसके नीचे पतले लम्बे स्पर्शक लगे होते है।
7. शरीर के बाहरी स्तर में दंशकोशिकाएँ पायी जाती है।
8. शरीर के दोनों स्तरों की कोशिकायें पेशी तन्त्र बनाती है। जिन्हें उपकला पेशी कहते है।
9. तंत्रिका तंत्र सरल और उक तंत्रिका जाल का बना होता है।
10. पाचन बाह्यकोशिकीय तथा अंतः कोशिकीय दोनों प्रकार का होता है।
11. अलैंगिक प्रजनन मुकुलन द्वारा होता है। पुनरूद्भवन की प्रचुर क्षमता होती है।
12. लैंगिक प्रजनन में परिवर्धन के समय पक्ष्माभी स्वतंत्र प्लैनुला लारवा पाया जाता है।
13. इनके जीवनवृत्त में जननों या पीढ़ियों का एकान्तरण होता है। जिसे मैटा जैनेसिस कहते है।
उदाहरण:- हाइड्रा, ओबेलिया, फाइसेलिया, वेलेला, पर्पिटा, जैलीफिश, समुद्री पेन (पेनेटुला), समुद्री ऐनीमाॅन, समुद्री पंख
(गार्गोनिया) आदि।

 

3. प्लेटीहैल्मिन्थिज :-

इस संघ के जन्तु पृष्ठाधार रूप से चपटे होते हैं। इन्हें सामान्यतः चपटे कृमि भी कहा जाता है।
लक्षण –
1. मुख्यतः कशेरूक प्राणियों में परजीवी, कुछ स्वतंत्र भी पाये जाते है।
2. प्रचलन अंगों का अभाव किन्तु आसंजक अंग पाए जाते है। जैसें चूषक या हुक।
3. शरीर तीन प्राथमिक जनन स्तरों का बना तथा द्विपाश्र्व सममित। देह गुहा अनुपस्थित। ऊतक अंग स्तर की शारीरिक बनावट।
4. पैरेनकाइमा नामक ढीला संयोजी ऊतक आंतरंगों के बीच बीच में फैला होता है। अतः यह देह गुहा की कमी को पूरा करता है।
5. आहारनाल विकसित तथा शाखान्वित हो सकती है। कुछ में अनुपस्थित होती है।
6. श्वसन अधिकतर अवायवीय होता है । उत्सर्जी तन्त्र में शिखा या ज्वाला कोशिकायें पायी जाती है।
7. तंत्रिका तंत्र सीढ़ीनुमा तथा गुच्छिकाओं और तंत्रिकाओं का बना होता है।
8. पैपिली तथा एम्फिड्स संवेदी ग्राहिकाओं के रूप में पाए जाते है।
9. ये जन्तु द्विलिंगी तथा उभय लिंगी होते है। जनन ग्रथियों की संख्या बहुत अधिक होती है।
उदाहरण – प्लेनेरिया, डूजेसिया, लीवर फ्लूक, टेपर्वम टीनिया ।

 

4. एस्केहैल्मिन्थीज :-

इस संघ के जन्तुओं का शरीर बेलनाकार होता है, इसलिये इन्हें गोल कृमि भी कहते हैं।
लक्षण –
1. ये मुक्तजीवी, जलीय अथवा परजीवी होते है। द्विपाश्र्व सममित, त्रिकोरकी तथा कूट प्रगुही प्राणी होते है।
2. इनका शरीरिक संगठन अंग-तंत्र स्तर का होता है।
3. पाचन तन्त्र लगभग पूरा होता है।
4. श्वसन तंत्र तथा परिवहन तंत्र का अभाव । अतः श्वसन अवायवीय होता है।
5. कूट प्रगुहा पायी जाती है। जो मध्यचर्मी उपकला से आस्तरित नहीं होती।
6. प्रायः एकलिंगी होते है।
7. अधिकतर जलवासी, स्वतन्त्र जीवी या परजीवी।
उदाहरण: एस्केरिस, बुचेरेरिया हुकवर्म, ट्राइक्यूरिस।

5. ऐनेलिडा :-
1. इस संघ के जन्तु जलीय अथवा स्थलीय, स्वतंत्र जीवी तथा कभी-कभी परजीवी होते हैं।
2. ये जन्तु द्विपार्श्व सममित, त्रिकोरकी व प्रगुही होते हैं
3. इनमें वास्तविक देह गुहा पायी जाती है। जिसे शाइजोसीलिक कहते है।
4. इनका शरीर स्पष्ट खण्डों में विभक्त होता है। उत्सर्जन के लिये इनमें वृक्कक (नेफ्रिडिया) पाये जाते है।
5. श्वसन गीली त्वचा के द्वारा होता है।
6. रक्त परिवहन बंद प्रकार का होता है। श्वसन वर्णक हीमोग्लोबिन या एरिथ्रोक्रूएनिन जो प्लाज्मा मे घुला होता है।
7. उत्सर्जन कुण्डलित वृक्कों द्वारा होता है। जो देहखण्डों में विन्यासित होते है।
8. तंत्रिका तंत्र एक तंत्रिका वलय तथा एक तंत्रिका रज्जु से मिल कर बनता है। तंत्रिका रज्जु शरीर के खण्डों में गुच्छक बनाते है।
9. इनमें परिवर्धन के समय ट्रोकोफोर लारवा पाया जाता है।
10. प्रचलन के लिए काइटिन के बने शूक पाए जाते है।
उदाहरण: जोंक, केंचुआ,नेरिस, हिरूडिनेरिया।

6. आर्थ्रोपोडा :-

  •  आर्थ्रोपोडा का अर्थ (आर्थ्रो-संधित, पोडास-उपांग) अर्थात् इन जन्तुओं में संधित उपांग पाये जाते है।
  • जन्तु जगत में सबसे अधिक जन्तु इस संघ के पाये जाते हैं, अर्थात् यह सबसे बड़ा संघ हेै। तथा पृथ्वी पर सभी स्थानों पर पाये जाते है।
  •  ये द्विपाश्र्व, सममित, त्रिकोरकी व प्रगुही प्राणी है।
  •  इनमें खुला परिसंचरण तंत्र पाया जाता है।
  •  शरीर खण्ड युक्त होता है तथा सिर, वक्ष व उदर में विभाजित होता है।
  •  इस संघ में कीट वर्ग प्रमुख है। अधिकांश कीटों में पंख उपस्थित होते हैं। इनमें उत्सर्जन मैलपिगी नलिकाओं द्वारा होता है।
  •  शरीर काइटिन के बाह्य कंकाल से ढका रहता है। जो परिवर्धन के समय त्याग दिया जाता है । जिसे निर्मोचन या एकडाइसिस कहते हैै।
  •  सिर पर दो संयुक्त नेत्र होते है। जो देखने का कार्य करते है। ऐन्टीनी होते है। जो संवेदी अंग है तथा भोजन ग्रहण करने के लिए मुखांग होते है।
  •  सीलोम घट कर केवल उत्सर्जी अंगों तथा जननांगों में ही सीमित रह जाती है। शरीर में देह गुहा रूधिर से भरी हीमोसील कहलाती है।
  •  मांसपेशियाँ रेखित होती है।
  •  श्वसन क्लोम, वायुनलिका या पुस्तक फुफ्फुसों अथवा शरीर की सतह द्वारा होती है।
  • रक्त परिसंचरण तंत्र खुले प्रकार का होता है।
  • उत्सर्जन मैल्पीगी नलिकाओं अथवा ग्रीन ग्रंथियों के द्वारा होता है।
  • आहार नाल कुण्डलित होती है। तंत्रिका तंत्र ऐनेलिडा के समान तंत्रिका वलय एवं अधर तंत्रिका रज्जु के रूप मेें पायी जाती है।
  • नर व मादा जन्तु प्रायः अलग अलग होते है। निषेचन शरीर के भीतर होता है।
  • परिवर्धन में लारवा अवस्था पायी जाती है।
    उदाहरण: घरेलु मक्खी, झींगा, तिलचट्टा, तितली, टिड्डा, बिच्छु।

7. मोलस्का :-

  1.  इस संघ के जन्तु स्थलीय अथवा जलीय होते हैं। शारीरिक संगठन अंग-तंत्र स्तर का होता है। इनका शरीर कोमल होता है।
  2.  कुछ प्राणियों में शरीर कठोर कैल्सियम के कवच से ढ़का रहता है। जिसके नीचे अल्पपादर्शक आवरण के रूप में मेंटल पाया जाता है।
  3.  ये द्विपाश्र्व सममित, त्रिकोरकी तथा प्रगुही प्राणी है।
  4.  इनका शरीर आंशिक खंडित होता है जिससे सिर, पेशीयपाद तथा आंतरांग होते है।
  5.  शरीर देह गुहा समानीत तथा हृदयावरण, वृक्क गुहा और जनन ग्रंथियों की गुहा के रूप में विकसित होती हैं ।
  6.  मुख गुहा में चबाने के लिए रेतांग या रेडुला पाया जाता है ।
  7.  श्वसन मेंटल क्लोम या फुफ्फुस द्वारा ।
  8. परिसंचरण तंत्र मुख्यतः बन्द किन्तु कुछ जगह कोटरों में खुलता है। हीमोसायनिन पाया जाता हैै।
  9.  उत्सर्जन अंग वृक्क या मेटा नेफ्रीडिया द्वारा।
  10.  तंत्रिका तंत्र जोडों में लगी गुच्छिकाओं संयोजको तथा तंत्रिकाओं का बना होता है।
  11.  संवेदी अंग नेत्र, संतुलन पुटी, स्पर्शक, गंध व स्वादग्राही । कुछ में ऑस्फ्रेडियम पाया जाता है।
    उदाहरण: घोंघा, सीप, ऑक्टोपस, काइटन, कीटोडर्मा, कैडुलस, समुद्री शशक, यूनियों, टेरिडो कटल मीन ।

8. इकाइनोडर्मेटा :-

  1.  इस संघ के जन्तुओं में कैल्सियम युक्त अन्तःकंकाल पाया जाता है तथा इन जन्तुओं की त्वचा कांटो से आच्छादित होती है। 
  2. इसलिये इनका नाम इकाइनोडर्मेटा (शूल युक्त शरीर) है। ये मुक्त जीवी समुद्री जन्तु है।
  3.  ये जन्तु अरीय सममित, त्रिकोरकी व प्रगुही होते है। शारीरिक संगठन अंग-तंत्र स्तर का होता है।
  4.  जल संवहन तंत्र इन जन्तुओं की विशिष्टता है, जो गमन, भोजन पकड़ने व श्वसन में सहायक है।
  5.  प्रचलन नाल पादों ;जनम मिमजद्धके द्वारा होता है।
  6.  शरीर के अधर तल पर पाँच ऐम्बुलेक्रल नालाकार भाग पाये जाते है। जिनके बीच में अंतर ऐम्बुलेक्रल भाग होते है।
  7.  विशिष्ट जल संवहनी तंत्र शरीर के भागों में फैला होता है।
  8.  श्वसन नाल पादों, श्वसन वृक्ष, बर्सी तथा क्लोमों के द्वारा।
  9.  उत्सर्जन अंगों का अभाव होता है ।
  10.  तंत्रिका तंत्र व संवेदी अंग कम विकसित ।
  11.  एक लिंगी जन्तु है। तथा बाह्यनिषेचन पाया जाता है।
  12.  पुनरूद्भवन की सामथ्र्य होती है।
  13.  परिवर्धन के समय स्वतंत्र प्लावी बाइपिन्नेरिया तथा ऑरिकुलेरिया नामक लारवा अवस्थाऐं ।
    उदाहरण: तारा मछली, समुद्री अर्चिन, समुद्री खीरा, भंगुर तारा, कुकुमेरिया, होलोथूरिया।

(ब) पृष्ठवंशी या कार्डेटा :-

इस समूह के जन्तुओं में नोटोकाॅर्ड, वास्तविक मेरूदण्ड एवं अन्तः कंकाल पाया जाता है। ये द्विपाश्र्व सममित, त्रिकोरकी व देहगुहा वाले जन्तु हैं। इनमें ऊतकों एवं अंगो का जटिल विभेदन पाया जाता है।
पृष्ठवंशी जन्तुओं को पांच वर्गो में विभक्त किया गया है –

1. मत्स्य :-

इस वर्ग के प्राणी समुद्र और अलवणीय जल दोनों जगहों पर पाये जाते हैं। इनकी त्वचा शल्कों से आवरित रहती है। शरीर धारा रेखीय होता है। श्वसन के लिए क्लोम (गिल्स) पाये जाते हैं जो जल में घुलित ऑक्सीजन का उपयोग करते है। ये असमतापी होते हैं तथा अण्डे देते है। हृदय द्विकोष्ठीय होता है। कंकाल अस्थि व उपास्थि दोनों का बना होता है।
उदाहरण: रोहू, कुत्तामछली, विद्युत मछली, आरा मछली।

2. उभयचर :-

इस वर्ग के जन्तु जल व स्थल दोनों स्थानों पर रह सकते है। इनकी त्वचा पर शल्कों का अभाव होता है तथा श्लेष्म ग्रन्थियां पायी जाती है। श्वसन क्लोम, फेफड़ो तथा त्वचा द्वारा होता है। ये असमतापी प्राणी हैं तथा अण्डे देते हैं। हृदय त्रिकोष्ठीय (दो आलिन्द, एक निलय) होता है। उदाहरण: मेंढक, सेलामेण्डर।

3. सरीसृप :-

इस वर्ग के जन्तु अधिकांशः स्थलीय प्राणी है। रेंगकर गमन करने के कारण इन्हें सरीसृप कहा जाता है। इनका शरीर शल्कों से आवरित होता है। श्वसन फेफड़ो द्वारा होता है। ये असमतापी जन्तु हैं तथा अधिकांशतः अण्डे देने वाले प्राणी हैं। अण्डे कठोर कवच से ढके रहते हैं। हृदय सामान्यतः त्रिकोष्ठीय (दो आलिन्द, एक निलय) होता हैं।
उदाहरण: सर्प, छिपकली, मगरमच्छ, कछुआ, वृक्ष छिपकली।

4. पक्षी (एवीज) :-

  1.  इस वर्ग में सभी पक्षियों को रखा गया है।
  2.  इनका मुख्य लक्षण शरीर पर पंखों की उपस्थिति तथा उड़ने की क्षमता है (शुतुरमुर्ग को छोड़कर)।
  3. इनमें चोंच पायी जाती है, श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है।
  4. ये समतापी जन्तु हैं तथा अण्डे देते है।
  5. इनका हृदय चतुष्कोष्ठीय (दो आलिन्द व दो निलय) होता है।
  6. अन्तः कंकाल की अस्थियां लम्बी व खोखली होती है। उदाहरण: चील, तोता, मोर, शुतुरमुर्ग।

5. स्तनधारी :-

  1.  इस वर्ग के जन्तु सभी प्रकार के वातावरण में पाये जाते है। इस वर्ग के सभी जन्तुओं में सन्तति के पोषण के लिये स्तनग्रन्थियां (दुग्ध ग्रन्थियां) पायी जाती है। इनका हृदय चतुकोष्ठीय (दो आलिन्द, दो निलय) होता है।
  2.  इस वर्ग के जन्तु समतापी है तथा शिशुओं को जन्म देने वाले होते हैं, हालांकि कुछ जन्तु उसके अपवाद है जैसे – एकिडना अण्डे देता है और कंगारू अविकसित बच्चों को जन्म देता है जो मार्सूपियम नामक थैली में तब तक लटके रहते है, जब तक कि उनका पूर्ण विकास नहीं हो जाता है।

उदाहरण: मानव, डकबिल प्लेटीपस, कंगारू, चमगादड़।

पादपों में आवास एवं अनुकूलन :-

वातावरण में जल की उपलब्धता व पादपों को जल की आवश्यकता के आधार पर पादप निम्न प्रकार के होते है।
1. जलोद्भिद्  2. मरूद्भिद्  3. समोद्भिद्  4. शीतोद्भिद् 5. लवणमृदोद्भिद् 


1. जलोद्भिद् :- ऐसे पादप जो जल में या अत्यन्त जल वाली मृदा में पाये जाते हैं उन्हें जलोद्भिद् पादप कहते है। उदारहण: वेलिसनेरिया, आइकोर्निया, सेजिटेरिया, रेननकुलस, हाइड्रिला, कमल, सिंघाड़ा आदि।

जलोद्भिद् पादपों में अनुकूलन:-
1. पादपों में मूल का प्रमुख कार्य जल अवशोषण करना होता है परन्तु जलीय पादपों के चारों ओर जल की प्रचुरता के कारण मूल तंत्र अल्पविकसित होता है तथा जल का अवशोषण पादप सतह द्वारा ही किया जाता है।
2. कुछ पादपों में जैसे सिंघाड़ा ;ज्तंचंद्ध की जड़े प्रकाश संश्लेषण करने के लिए हरे रंग की होती है, जिसे स्वांगीकारी जड़े ;।ेेपउपसंजवतल तववजेद्ध कहते है।
3. जड़ो में प्रायः मूल रोम अनुपस्थित होते है तथा मूल रोम के स्थान पर मूल कोटरिकाएँ ;त्ववज चवबामजेद्ध पायी जाती है।
4. कुछ पादपों जैसे लेमना ;स्मउदंद्ध में जड़ सन्तुलन बनाने का कार्य करती है।
5. जलीय पादपों में तना, कोमल, पतला व लचीला होता है।
6. जल की सतह पर तैरने वाले पादपों की पत्तियों चैड़ी तथा जल निमग्न पादपों की पत्तियां कटी-फटी व रिबन के समान होती है।
7. जलीय पादपों में परागण, फल व बीजों का प्रकीर्णन जल के द्वारा ही होता है, इस कारण बीज व फल भार में हल्के होते है।
8. जलीय पादपों के पर्ण, स्तम्भ व मूल की आन्तरिक संरचना में वायु प्रकोष्ठ पाये जाते है।
9. जलीय पादपों की कोशिकाओं की परासरण सान्द्रता कम होती है।
10. जलीय पादपों में यांत्रिक ऊतक  संवहन ऊतकों की कमी होती है।


2. मरूद्भिद् :-

शुष्क आवास अथवा जलाभाव में पाये जाने वाले पादपों को मरूद्भिद् या शुष्कोद्भिद् पादप कहते है। उदाहरण: नागफनी, कैक्टस आदि।

अनुकूलन:-

मरूद्भिद् पादप आने विशेष गुणों के कारण पहचाने जाते है। ये विशेष गुण निम्न है –
1. मरूद्भिद् पादप जलाभाव वाले स्थानों पर पाये जाते है। अतः जल का अवशोषण करने केे लिये इनकी जड़ें सुविकसित व भूमि में गहराई तक जाती है।
2. जड़ों में जल के अवशोषण के लिये मूल रोम व जड़ की सुरक्षा के लिये मूलगोप ;त्ववज बंचद्ध पाया जाता है।
3. मरूद्भिद् पादपों का तना काष्ठीय होता है तथा तने पर बहुकोशिक रोम पाये जाते हैं। कुछ पादपों जैसे आक के तने पर मोम और सिलिका का आवरण पाया जाता है।
4. कुछ मरूद्भिद् पादपों में तना हरा होता है जो जल संग्रह तथा प्रकाश संश्लेषण का कार्य करता है। जैसे ग्वार पाठा |
5. मरूद्भिद् पादपों में पत्तियों की सतह द्वारा जल की हानि को रोकने के लिये ग्रीष्म ऋतु में पत्तियां झड़ जाती है तथा कुछ पादपों जैसे नागफनी में पत्तियां काटों में रूपान्तरित हो जाती है।
6. शुष्क आवास के पादपों में पत्ती की सतह पर वाष्पोत्सर्जन को कम करने के लिये मोम की परत पायी जाती है तथा रन्ध्र पत्ती की नीचे की सतह पर पाये जाते हैं तथा गर्ती रन्ध्र पाये जाते है।
7. मरूद्भिद् पादपों के फलों व बीजों के चारों ओर कठोर आवरण पाया जाता है।
8. मरूद्भिद् पादपों की कोशिकाओं की परासरण सान्द्रता अधिक होती है।

3. लवणमृदोद्भिद् :-

  1. लवण युक्त मृदा या दलदल में पाये जाने वाले पादप लवणमृदोद्भिद् पादप कहलाते हैं।
  2.  लवणीय मृदा में सोडियम क्लोराइड, मैग्नीशियम क्लोराइड व मैग्नीशियम सल्फेट जैसे घुलनशील लवण प्रचुर मात्रा में पाये जाते है। ऐसी मृदा में पाये जाने वाले पादपों को मेंग्रोव वनस्पति भी कहते हैं।
    उदाहरण: राइजोफोरा, सालसोला इत्यादि।

 

अनुकूलन:-
1. इन पादपों की जड़ें कम गहराई तक जाने वाली होती है इसलिये इन पादपों में स्तम्भ मूल  परिवर्धित होकर दलदल में प्रवेश करके पादप को अतिरिक्त सहारा व स्थिरता प्रदान करती हैं।
2. दलदल युक्त मृदा में जलाक्रांत के कारण ऑक्सीजन का अभाव होता है तथा पादपों की सामान्य जड़ों को श्वसन के लिये ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं हो पाती है। अतः इन पादपों की जड़ों की कुछ शाखायें भूमि से ऊपर निकल जाती है, तथा ऋणात्मक गुरूत्वानुवर्ती होती है। इन जड़ों के शीर्ष पर सूक्ष्म रन्ध्र पाये जाते है, जिनके द्वारा ये ऑक्सीजन लेकर मूल तंत्र की ऑक्सीजन की कमी की पूर्ति करती है। इन जड़ों को श्वसन मूलें या न्यूमेटोफोर कहते है।
3. इन पादपों के तने क्लोराइड आयनों के संग्रह के कारण गूदेदार होते है।
4. इन पादपों की पत्तियां छोटी, मांसल व चमकीली सतह वाली होती है।
5. इन पादपों में बीज का अंकुरण फल के भीतर ही प्रारम्भ हो जाता है, तथा बीज से बीजपत्राधार व मूलांकुर बनने के पश्चात् नवोद्भिद्  उर्ध्वाधर स्थिति में भूमि पर गिर जाता है, जिससे मूलांकुर सीधा कीचड़ में घुस जाता है। इस प्रकार के अंकुरण को सजीव प्रजक या जरायुज अंकुरण कहते है।

4. शीतोद्भिद् :-

शीत प्रदेशों तथा बर्फीली भूमि पर उगने वाली वनस्पति को शीतोद्भिद् पादप कहते है। उदाहरण: साल्मोनेला, माॅस, लाइकेन।
अनुकूलन:-

– शीत आवास में अधिकांशतः पादप शाक, माॅस व लाइकेन होते हैं, जो बर्फ के पिघलने पर उगते है तथा अल्प अवधि में अपना जीवन चक्र पूरा कर लेते है। अर्थात् ये पादप अल्पकालिक होते है।
– साल्मोनेला एक पुष्पी पादप है जो बर्फ के नीचे दबा रहता है तथा पुष्पन के समय उत्पन्न उष्मा से बर्फ के पिघलने से पादप का केवल पुष्प ही बाहर निकला रहता हैं।

5. समोद्भिद् :-


– सामान्य जल, आर्द्रता व ताप वाले आवास में पाये जाने वाले पादप समोद्भिद् पादप कहलाते है। इस आवास में पादप की वृद्धि व जनन के लिये सभी पारिस्थितयां आदर्श होती है।
– इन पादपों में मूलतंत्र सुविकसित तथा मूलरोम व मूल गोप सहित होता है। तना, वायवीय शाखित, मोटा व कठोर होता है। पत्तियां चैड़ी व पत्ती की दोनों सतहों पर रन्ध्र पाये जाते है। पादप पूर्ण रूप से विकसित व पादप की कार्यिकीय प्रणाली सामान्य होती है। उदाहरण: उद्यान पौधे व फसली पौधें।

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