राजस्थान के संत

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राजस्थान में धार्मिक आंदोलन के प्रमुख कारण, प्रभाव एवं महव
 

धार्मिक आंदोलन के प्रमुख कारण

 
1. भक्ति आंदोलन – मध्यकालीन भारत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना भक्ति आंदोलन का प्रबल होना था, तो वहीं भक्ति आंदोलन की शुरूआत 6वीं सदी में दक्षिणी भारत से मानी जाती है, जहाँ अलवार संतों के द्वारा इसकी शुरूआत की गई। रामानुज ने कालांतर में भक्ति आंदोलन को दार्शनिक रूप प्रदान किया, तो वहीं रामानंद ने 14वीं सदी में भक्ति आंदोलन को उत्तरी भारत में प्रबल बनाया और वे अपने बारह शिष्यों के साथ अपने मत का प्रचार करने के लिए उत्तर भारत का भ्रमण करने लगे, जिसका राजस्थान पर भी प्रभाव पड़ा।
 
रामानंद के प्रमुख शिष्य कबीर के द्वारा अपने विचारों से राजस्थान को प्रभावित किया गया। इसके फलस्वरूप राजस्थान में कई धर्म प्रचारकों का आविर्भाव हुआ, जिनके द्वारा परम्परागत धर्म में व्याप्त दोषों को दूर करने का प्रयास किया गया। ध्यान रहे-धन्ना व रैदास भी रामानंद के शिष्य थे।
 
2. इस्लाम धर्म का प्रवेश – 11वीं-12वीं सदी में मुसलमानों ने राजस्थान पर निरन्तर आक्रमण किये और उन्होंने लूट-मार के साथ-साथ इस्लाम धर्म का प्रचार भी किया, तो वहीं मुसलमानों के धार्मिक अत्याचारों ने हिन्दुओं को अपनी धार्मिक आस्था से डिगा दिया, जिससे वे निराशा के सागर में निमग्न हो गये। धर्म सुधारकों के द्वारा ऐसे वातावरण में धर्म में व्याप्त बुराईयों को दूर किया गया तथा हिन्दुओं के हृदय में अपने धर्म के प्रति आस्था का पुनः संचार किया गया।
 
3. सूफी मत का प्रसार- सूफी मत सुन्नी मत से ज्यादा उदार एवं सरल है, तो वहीं सूफी संतों ने अपनी मधुर वाणी के माध्यम से अपने विचार हिन्दुओं तक पहुँचाये। सूफी संत धार्मिक आडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे। हिन्दू इनके विचारों से काफी प्रभावित हुए। संतों एवं मुस्लिम दरवेशों ने हिन्दुओं व मुस्लिमों के बीच सामंजस्य उत्पन्न करने का प्रयास किया। राजाओं ने भी सूफिओं की आर्थिक सहायता की, जैसे-जोधपुर महाराजा अजीतसिंह के द्वारा दरगाह के लिए ग्राम (गाँव) जागीर के रूप में प्रदान किये गये थे।
 
4. राजस्थान के सिद्ध पुरुषों का धर्म आंदोलन में सहयोग- राजस्थान के इस धार्मिक आंदोलन की प्रवृत्ति यहाँ के सिद्ध पुरुषों के चिंतन में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। सिद्ध पुरुषों (गोगाजी, पाबूजी, मल्लीनाथजी, तेजाजी, हड़बूजी, रामदेवजी आदि) ने अपने आत्म-बलिदान तथा सदाचारी जीवन में अमरत्व प्राप्त नहीं किया, अपितु राजस्थान धर्म सुधार आंदोलन की भूमिका तैयार की।
 
5. नवीन साहित्य का सृजन-हरिबोल चिन्तामणि एवं विप्रबोध नामक साहित्यकारों ने अपने साहित्यिक ग्रन्थों के माध्यम से हृदय की शुद्धि पर विशेष बल दिया, तो वहीं पश्चिमाद्विस्रोत नामक ग्रंथ में राम, रहीम, गोरख, पीर व अल्ला को एक ही शक्ति के विभिन्न नाम बताया गया है। इन साहित्यिक ग्रंथों की रचना से राजस्थान के लोगों के धार्मिक विचार उदार हो गये और परम्परागत विचारों की जगह नवीन उदार धार्मिक मान्यताओं को महत्व देना शुरू किया गया। 
 
6. हिन्दुओं व मुसलमानों में समन्वयात्मक भावना का विकास- प्रारम्भ में मुस्लिमों ने धर्म के नाम पर अत्याचार किये, जिससे हिन्दुओं में उनके प्रति रोष व आक्रोश की भावना उत्पन्न हुई, लेकिन जब मुस्लिमों को यहाँ रहते समय हो गया, तो उनका धार्मिक जोर धीमा पड़ गया। दोनों सम्प्रदाओं में विचारों का आदान-प्रदान होने लगा और दोनों के द्वारा एक-दूसरे को समझने का प्रयास किया जाना लगा।
 
राजस्थान के शासकों के द्वारा भी मुस्लिम धर्माधिकारियों को सम्मान देना शुरू किया गया। उल्लेखनीय है कि मेवाड़ महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने अजमेर दरगाह को चार गाँव जागीर के रूप में प्रदान किये थे। इस प्रकार की विचारधारा से राजस्थान में धार्मिक आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार हुई ।
 
7. धर्म तथा समाज में व्याप्त आड़म्बर व कुप्रथाएँ – हिन्दू समाज में व्याप्त आड़म्बर व सामाजिक कुप्रथाओं के कारण जनसामान्य अंधविश्वास का शिकार बना हुआ था। हिन्दू समाज इस समय अनेक जातियों एवं उपजातियों में बंट गया था । निम्न जातियों की दशा अत्यंत शोचनीय थी, जिसके फलस्वरूप निम्न जातियों के लोग इस्लाम की ओर आकर्षित हुए। इस स्थिति से बचने का एकमात्र उपाय यही था कि समाज में व्याप्त दोषों को दूर किया जाये।
 

धार्मिक आंदोलन का प्रभाव

 
1. बहुदेववाद व मूर्ति पूजा का विरोध,
 
 
2. आडम्बरों, पाखण्डों व कर्मकाण्डों का विरोध,
 
3. उदारवादी दृष्टिकोण का विकास (इसने हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, फारसी आदि सम्प्रदायों में एकता वाला दृष्टिकोण रखा),
 
4. ब्राह्मणों के एकाधिकार पर आघात (इसमें धर्म के क्षेत्र में ब्राह्मणों के एकाधिकार व जातिगत विशेषाधिकार का विरोध किया गया),
 
5. भक्ति पर बल (भक्ति आंदोलन के संतों ने ईश्वर की भक्ति पर सर्वाधिक बल दिया और उसे मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन बताया),
 
6. गुरु की महत्ता का प्रतिपादन (भक्ति संतों का मत था कि ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु की मदद आवश्यक है),
 
7. एकेश्वरवाद का विकास (भक्ति संतों के अनुसार ईश्वर एक है। और उसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है),
 
8. सामाजिक समानता एवं भ्रातृत्व का प्रचार (सभी संतों ने जाति प्रथा व ऊँच-नीच की भावना का खण्डन करते हुए कहा था- जात-पात पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई) तथा
 
9. समाज सुधार (धार्मिक आंदोलन ने न केवल धर्म को वरन् सामाजिक संस्थाओं को भी बौद्धिक आधार पर प्रतिष्ठापित करने की चेष्टा की) ।
 

धार्मिक आंदोलन का. महत्त्व

 
धार्मिक आंदोलन ने मनुष्य की हृदयगत भावनाओं को पहचानते हुए उनको जगाने का सफल प्रयास धार्मिक एवं नैतिक आधार पर किया। इसने भगवत् भक्ति को सुदृढ़ आलम्बन प्रदान कर समाज में. असीम उत्साह का संचार किया।
 

राजस्थान में संत एवं सम्प्रदाय

 
मध्यकाल में उपासना पद्धति के आधार पर वैष्णव एवं शैव उपासकों को दो भागों में विभक्त किया गया था-
 
1. सगुण भक्तिधारा
 
2. निर्गुण भक्तिधारा
 

सगुण भक्तिधारा

 
सगुण भक्ति का अर्थ है-प्रभु के अवतारों को मानना । जैसे कि राजा दशरथ के पुत्र राम की भक्ति करना। सगुण भक्ति परम्परा में गुणों/साधनों को महत्व दिया जाता है। इसमें ईश्वर के साकार रूप की भक्ति होती है। पूजा स्थलों और मंदिरों में भगवान की मूर्ति होती है तथा इसमें मूर्ति पूजा की जाती है। सगुण भक्ति में किसी इच्छा के साथ भगवान की भक्ति की जाती है।
 
भक्ति के साधन मूर्ति, संगीत, भजन, नृत्य, कीर्तन व माला आदि होते हैं। प्रमुख सगुण संत- यमुनाचार्य, रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य, रामानन्द, माध्वाचार्य, नाथ सम्प्रदाय, चैतन्य महाप्रभू, मीरांबाई, गवरी बाई, भक्त कवि दुलर्भ जी आदि।
 

निर्गुण भक्ति धारा

 
निर्गुण भक्ति से अर्थ है-कण-कण में व्याप्त प्रभु को मानना । उसका कोई रूप नहीं है, वह जन्म नहीं लेता अर्थात् इसमें ईश्वर के निराकार रूप की भक्ति होती है। भक्ति के साधन ध्यान, साधना, निर्गुण ईश्वर के भजन आदि होते हैं। निर्गुण भक्ति परम्परा में गुणों/साधनों को महत्व नहीं दिया जाता है।
 
इसमें मूर्ति पूजा नहीं की जाती है। प्रमुख पीठों और मंदिरों में भगवान की मूर्ति नहीं होकर गुरू की मूर्ति या संत की समाधि होती है। निर्गुण भक्ति में बिना किसी इच्छा या फल प्राप्ति की चाहत के साथ भगवान की भक्ति की जाती है।
 
प्रमुख निर्गुण संत- जसनाथ जी, जाम्भोजी, संत दादूदयाल, रज्जबजी, सुन्दरदास, लालदासजी, कबीर, रैदास, धन्नाजी, संत पीपा, . नवलदास जी, लालगिरी जी आदि ।
 
सगुण व निर्गुण का मिश्रित रूप- चरणदास जी, संत मावजी व हरिदास जी ।
 

शैव धर्म/सम्प्रदाय

 
भगवान शिव या उनके अवतारों/स्वरूपों को मानने वालों को शैव कहते हैं। ये जीवन पर्यन्त बाल ब्रह्मचारी, लिंग पूजा पर विश्वास करते हैं। शैव सम्प्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं। इसके संन्यासी जटा रखते हैं। रामायण, महाभारत काल में शैव सम्प्रदाय का ‘माहेश्वर’ नाम था।
 
महाभारत में महेश्वरों (शैव) के चार सम्प्रदाय बतलाए गए हैं- 1. शैव, 2. पाशुपत / लकुलीश, 3. कालदमन 4. कापालिक । पाशुपत सम्प्रदाय शैवों का सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है, जिसके संस्थापक आचार्य लकुलीश (शिव के 28वां अवतार माने जाते हैं) हैं। शैव सम्प्रदाय के साधुओं को नाथ, अघौरी, अवधूत, बाबा, औघड़, योगी, सिद्ध कहा जाता है। शिवलिंग उपासना का प्रारम्भिक पुरातात्विक साक्ष्य हड़प्पा संस्कृति और कालीबंगा से मिलता है। ऋग्वेद में शिव के लिए रुद्र नामक देवता का उल्लेख है।
 
राजस्थान में मेवाड़ राजघराना शैव मत का मानने वाला है। मेवाड़ के हारित ऋषि लकुलीश सम्प्रदाय के थे। राजस्थान में लकुलीश सम्प्रदाय का प्रमुख मंदिर एकलिंग जी मंदिर (कैलाशपुरी, उदयपुर) है। लकुलीश सम्प्रदाय के अन्य मंदिर- सुंधा माता मंदिर (जालौर) में लकुलीश सम्प्रदाय की शिव मूर्ति है। मंडलेश्वर महादेव मंदिर- अर्थणा (बांसवाड़ा)।
 

मत्स्येन्द्रनाथ (नाथ सम्प्रदाय)

 
नाथ सम्प्रदाय भारत का एक हिन्दू धार्मिक पंथ है। मध्ययुग में उत्पन्न इस सम्प्रदाय में बौद्ध, शैव तथा योग की परम्पराओं का समन्वय दिखायी देता है। यह हठयोग की साधना पद्धति पर आधारित है। शिव इस सम्प्रदाय के प्रथम गुरु एवं आराध्य हैं। अर्थात् इसे शैव मत का ही एक नवीन रूप मान सकते हैं।
 
जो योग सम्प्रदाय / अवभूत सम्प्रदाय (हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा)/ सिद्धमत/सिद्धमार्ग सम्प्रदाय आदि नामों से भी जाना जाता है। नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक मत्स्येन्द्रनाथ (नाथ मुनी) थे। नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख गुरु-आदिनाथ (शिव), मत्स्येन्द्र नाथ, गोरखनाथ, जालंधरनाथ, कानीफनाथ, चौरंगीनाथ, चर्पटीनाथ, भृर्तहरिनाथ, गोपीचन्दनाथ, रत्ननाथ, धर्मनाथ, मस्तनाथ । गोरखनाथ (मत्स्येन्द्र के शिष्य) ने हठयोग प्रारम्भ किया।
 
राजस्थान में नाथ सम्प्रदाय की दो प्रमुख शाखाएँ है- बैराग पंथ- राताडूंगा, पुष्कर के पास (नागौर जिले में) व माननाथी- महामंदिर (जोधपुर)। नाथ सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र महामंदिर (जोधपुर) में है। जोधपुर महाराजा मानसिंह (आयसदेव नाथ के शिष्य) ने महामंदिर (84 खम्भों का मंदिर) का निर्माण 1872 ई. में करवाया था। अन्य मंदिर- उदयमंदिर (जोधपुर)। सिरे मंदिर (जालौर) – (यहाँ जालंधरनाथ ने तपस्या की थी) इस मंदिर का निर्माण भी मानसिंह ने करवाया था, यहां मानसिंह ने विपत्ति के समय शरण भी ली थी।
 

वैष्णव धर्म/ वल्लभाचार्य (वल्लभ सम्प्रदाय )

 
वल्लभ सम्प्रदाय को पुष्टि मार्गीय सम्प्रदाय भी कहा जाता है। इसके संस्थापक वल्लभाचार्य थे, जो श्रीकृष्ण के बालरूप की पूजा करते थे। इनका जन्म 1478 में वाराणसी में हुआ था, जबकि ये तेलंगाना के रहने वाले थे। माना जाता है, कि वल्लभाचार्य द्वारिका की यात्रा से लौटते समय कुछ समय के लिए पुष्कर में रहे थे, जिस कारण यहाँ वल्लभ घाट बना है।
 
इसकी प्रधान पीठ नाथद्वारा (राजसमन्द), दूसरी पीठ मथुरेश जी (कोटा) व अन्य प्रमुख पीठ- द्वारिकाधीश (कांकरौली, राजसमंद), गोकुल चन्द्र (कामां, भरतपुर) व मदनमोहन (कामां, भरतपुर) में है।
 
राजस्थान में इस सम्प्रदाय के 41 मंदिर हैं, जिनको हवेली कहा जाता है तथा इन मंदिरों में गाये जाने वाले संगीत को हवेली संगीत कहा जाता है। ‘श्रीकृष्ण शरणम् ममः’ इस संप्रदाय का संबोधन है। ध्यान रहे नाथद्वारा में श्रीकृष्ण की मूर्ति के पीछे एक कपड़े पर कृष्ण लीलाओं का अंकन किया जाता है, जिसे पिछवाई कहते हैं।
 
ध्यातव्य रहे :- अष्टछाप कवि मंडली का संगठन विठ्ठलनाथ ने किया। वैष्णव धर्म का हित हरिवंश (राधावल्लभ) सम्प्रदाय राजस्थान में सबसे कम लोकप्रिय सम्प्रदाय है। विट्ठलनाथ ने 84 वैष्णव की वार्ता, अणुभाष्य, सिद्धांत रहस्य व सुबोधिनी ग्रन्थ की रचना की।
 
वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ के सात पुत्रों ने वल्लभ सम्प्रदाय के सात मंदिर बनवाये – 1. मथुरेशजी (कोटा), 2. गोकुलचन्द्र (कामां, भरतपुर), 3. मदनमोहनजी (कामां, भरतपुर), 4. गोकुलनाथ जी (उत्तरप्रदेश), 5. बालकृष्णजी (सूरत, गुजरात), 6. विट्ठलनाथजी (नाथद्वारा, राजसमंद) व 7. द्वारिकाधीश जी (कांकरौली, राजसमंद) ।
 

संत प्राणनाथ जी (परनामी सम्प्रदाय)

 
संत प्राणनाथ जी का जामनगर-गुजरात में मुख्य स्थान है, जहाँ इनका प्रारम्भिक जीवन गुजरा, बाद में ये राजस्थान के जयपुर में आ गये तथा आदर्श नगर जयपुर में परनामी सम्प्रदाय की स्थापना की, जहाँ आज भी प्राणनाथ जी का प्रसिद्ध मंदिर है। इस सम्प्रदाय की मुख्य पीठ “पन्ना” (मध्यप्रदेश) में है लेकिन इस सम्प्रदाय के सर्वाधिक अनुयायी जयपुर के आदर्श नगर में रहते हैं। इस सम्प्रदाय के उपदेशों का संग्रहित ग्रन्थ-‘कुंजलम स्वरूप’ है। निरजानन्द स्वामी प्राणनाथ के गुरु थे। 
 

रसिक सम्प्रदाय

 
कृष्णदास पयहारी के शिष्य स्वामी अग्रदास जी ने रैवासा ग्राम (सीकर) में इस पीठ की स्थापना की। इसमें राम की भक्ति माधुर्य भाव (राम व सीता की कृष्ण राधा की तरह) से की जाती है। इस कारण अग्रदास जी के मत को रसिक संप्रदाय के नाम से भी जाना जाता है।
 

रामानुजाचार्य जी (रामानुज सम्प्रदाय)

 
इनका जन्म पेराम्बदूर (तमिलनाडु) में 1017 ई. को हुआ तथा इन्हें दक्षिण भारत में मध्यकाल में भक्ति आंदोलन का जनक कहा जाता है, तो वहीं इन्होंने विष्णु व लक्ष्मी की उपासना की थी तथा इन्होंने विशिष्टाद्वैतवाद (ब्रह्मा व जीव एक है) मत का प्रतिपादन किया। यमुनाचार्य रामानुजाचार्य के गुरु थे, तो वहीं रामानुजाचार्य के द्वारा श्रीभाष्य नामक ग्रन्थ की रचना की गई थी। रामानुज सम्प्रदाय के संस्थापक रामानुजाचार्य थे। राजस्थान में इनको प्रसिद्धि कृष्णदास पयहारी ने दिलाई, जिनके अनुयायी आमेर के राजा पृथ्वीराज कच्छवाहा थे।
 
इनकी प्रधान पीठ गलताजी (बंदरों की घाटी / छोटी काशी / उत्तर तोत्ताद्री) है। इनके उपास्य देव भगवान राम है। ध्यान रहे-सवाई जयसिंह के समय कृष्णभट्ट ने रामरासा नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें भगवान राम व सीता के बीच प्रेम संबंधों का वर्णन है ।
 
गौरांग महाप्रभु चैतन्य (गौड़ीय सम्प्रदाय) 12वीं सदी में मध्वाचार्य ने द्वैतवाद नामक दर्शन प्रतिपादित कर पूर्णप्रज्ञ भाष्य की रचना की। इनके अनुसार ईश्वर सगुण है तथा वह विष्णु है। उसका स्वरूप सत्, चित्त तथा आनंद (सच्चिदानंद) हैं। इस सम्प्रदाय को जन-जन तक फैलाने का कार्य गौरांग महाप्रभु चैतन्य (बंगाल) ने किया। इनका जन्म 1485 ई. में नवद्वीप (बंगाल) में हुआ था। इनके पिता, माता एवं गुरु का नाम क्रमशः जगन्नाथ मिश्र, शची देवी एवं माधवाचार्य था, तो वहीं इनकी पत्नी का नाम विष्णुप्रिया व इनके बचपन का नाम निमाई पंडित था ।
 
इनके विचारों को आधुनिक वैष्णववाद कहा जाता है, तो कृष्णदास ने चैतन्य चरितामृत नामक चैतन्य की जीवनी लिखी। गौड़ीय सम्प्रदाय के संस्थापक गौरांग महाप्रभु चैतन्य थे। जयपुर (आमेर) के शासकों पर इस सम्प्रदाय का अधिक प्रभाव था। आमेर के राजा मानसिंह ने मथुरा में राधा गोविंद का मंदिर बनवाया, तो सवाई जयसिंह ने जयपुर में गोविंद देवजी का मंदिर बनवाया।
 
इस सम्प्रदाय की राजस्थान में प्रधान पीठ गोविन्द देवजी का मन्दिर है। इस संप्रदाय में राधा- कृष्ण के युगल स्वरूप की सेवा आराधना की जाती है। इस संप्रदाय का एक अन्य प्रसिद्ध मंदिर करौली में मदनमोहनजी का मंदिर है। 
 
ध्यातव्य रहे-मथुरा से गोविन्द देव जी की मूर्ति सनातन गोस्वामी आमेर लाए जिसका आमेर में कनक घाटी में मंदिर बनाया गया। वहाँ से वर्तमान में मंदिर जयपुर सिटी पैलेस में जयसिंह ने बनवाया। वर्तमान में विश्व का सबसे बड़ा सभामण्डप (बिना खम्भों वाला) गोविन्द देवजी के मंदिर का ही है।
 

संत दादू दयाल जी (दादू सम्प्रदाय)

 
दादू सम्प्रदाय के संस्थापक दादू जी (राजस्थान का कबीर) थे, जिनका जन्म अहमदाबाद (गुजरात) में 1544 ई० में हुआ। इनका लालन-पालन अहमदाबाद में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। कुछ लोग मानते हैं कि इनका लालन-पालन जुलाहा परिवार ने किया। इनके गुरु का नाम-वृद्धानन्द था। इनके बचपन का नाम महाबली था, तो वहीं दादूदयाल को राजस्थान का कबीर कहा जाता है। इनकी कर्मस्थली करड़ाला (नागौर), आमेर (जयपुर) एवं सांभर रही है। 
 
दादू जी ने अपना अंतिम समय नरायणा (जयपुर) में बिताया, इसी कारण दादू संप्रदाय की प्रधान पीठ नरायणा गाँव में है, जिसकी स्थापना दादू दयाल जी ने 1602 ई. में की थी। नरायणा (जयपुर) में ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी विक्रम संवत 1605 ई. में इन्होंने इच्छा मृत्यु प्राप्त की। नरायणा में दादूदयाल के चरण चिह्न पूजे जाते हैं तथा यह हिन्दू-मुस्लिम समन्वय का केन्द्र माना जाता है।
 
दादू की मृत्यु के बाद जैतराम जी के समय दादू पंथ पांच शाखाओं (खालसा, विरक्त, उत्तरादे, खाकी व नागा) में विभक्त हो गया, जिनमें से नरायणा दादू पंथ में खालसा उपशाखा का मुख्य स्थान रहा। दादू जी के कुल 152 शिष्य थे, जिनमें से 52 प्रमुख शिष्यों को ‘बावन स्तम्भ’ कहा जाता है।
 
संत रज्जब-इनका जन्म-सांगानेर में 16वीं सदी में एक मुस्लिम पठान परिवार में हुआ। जब ये विवाह के लिए जा रहे थे, तब दूल्हे के वेश में ही दादूजी का उपदेश सुना और उनके शिष्य बन गए तथा आजीवन दूल्हे के वेश में रहे। इनका निधन सांगानेर में हुआ, जहाँ इनकी प्रधान गद्दी स्थित है। इन्होंने दादू सम्प्रदाय की खाकी शाखा चलाई।
 
इनके प्रमुख ग्रन्थ ‘रज्जबवाणी’ तथा ‘सर्वंगी’ हैं। इस सम्प्रदाय की अन्य प्रमुख कृतियाँ – ज्ञान समुद्र, बावनी, रामची अंटक आदि। रज्जब जी ने संसार को वेद तथा सृष्टि को कुरान कहा है।
 
सुंदरदास-ये दादूजी के परमशिष्य थे, जिनका जन्म दौसा में 1596 ई. में खण्डेलवाल वैश्य परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम श्री परमानन्द (शाह चोखा) था। दादू सम्प्रदाय की नागा शाखा के प्रवर्तक सुंदरदास माने जाते हैं। नागा शाखा के साधु अपने साथ हथियार रखते हैं। इन्होंने मराठा आक्रमणों के खिलाफ जयपुर के राजा प्रतापसिंह की मदद की थी।
 
नागा साधुओं के रहने के स्थान को छावनी कहते हैं। इन्हें दूसरा शंकराचार्य कहा जाता है तथा ये सर्वाधिक शिक्षित थे, तो वहीं इनके उपदेश की भाषा ब्रज थी तथा ये शृंगार रस के घोर विरोधी थे। इनकी मृत्यु 1707 में सांगानेर में हुई थी। ज्ञान समुद्र, बारहमासा, सखी सुंदरविलास आदि इनकी प्रमुख रचना है।
 
गरीबदास (मुगल बादशाह जहाँगीर से मुलाकात की), माधोदास जी, जगन्नाथ दास जी, बालिन्द जी, जग गोपाल जी, बखनाजी, मिस्किन्दास आदि दादूदयाल जी के प्रमुख शिष्यों में आते थे। बखनाजी का जन्म 1600 ई. के लगभग हुआ तथा ये नरायणा के रहने वाले थे, जिन्होंने अपने विचारों को गायन शैली के माध्यम से प्रचारित किया, जिस कारण इनकी रचना को गेयपद कहते हैं, जिनकी संख्या 167 है । बखनाजी के विचार बखनाजी वाणी ग्रन्थ में संग्रहित है।
 
जनगोपालजी का निवास फतेहपुर सीकरी में था, तो इनकी प्रमुख रचना है-चौबीस गुरुओं की लीला, मोह विवेक, भरत चरित्र, ध्रुव चरित्र, प्रहलाद चरित्र, अनन्त लीला, जखड़ी कापा प्राण संवाद आदि । मंगलारामजी ने सुन्दरोदय सर्वोत्तम ग्रन्थ की रचना की, जिसमें नागा सम्प्रदाय का वर्णन है, तो वहीं संत दास अग्रवाल जाति के थे, जिन्होंने 1639 में जीवित समाधि ली तथा इनकी 8 खम्भों की छतरी फतेहपुर में स्थित है व इन्होंने 12000 छंदों की वाणी के नाम से रचना की।
 
जगजीवन प्रारम्भ में वैष्णव धर्म के थे, बाद में दादू के सम्पर्क में आने से दादूपंथी बन गये। ये ब्राह्मण जाति के थे। जगन्नाथ दास कायस्थ जाति के थे, जिनके वाणी व गुण गंजनामा प्रसिद्ध ग्रन्थ है ।
 
राजस्थान में भक्ति आंदोलन को फैलाने वाले संत दादू जी थे, तो राजस्थान के संत दादू दयाल ने ही आमेर के राजा भगवंत दास के समय फतेहपुर सीकरी में अकबर से इबादत खाने (सर्वधर्म सम्मेलन बैठक में मुलाकात की। दादू दयाल ने सुप्रसिद्ध कायावेति ग्रन्थ ‘सत्य भामाजी न रूसण’ व मानसिंह के समय वाणी नामक ग्रंथ की रचना की। दादू द्वारा काव्य रूप में व्यक्त किये गये विचारों को उनके शिष्यों ने सरल मिश्रित हिंदी अर्थात् सधुक्कड़ी में संकलित किया जिन्हें ‘दादूदयाल की वाणी’ तथा ‘दादूदयाल रा दूहा’ कहते है।
 
दादू पंथियों के मंदिर को दादूद्वारा कहते हैं, जिसमें मूर्ति की पूजा न करके दादू की वाणी रखी जाती है। ‘ईश्वर केवल मनुष्य के सद्गुण को पहचानता है तथा उसकी जाति नहीं पूछता । आगामी दुनिया में कोई जाति नहीं होगी।’ यह सिद्धांत दादू जी का है। इस संप्रदाय का सत्संग स्थल ‘अलख दरीबा’ कहलाता है। दादू पंथी शव को जलाते या दफनाते नहीं है बल्कि पशु-पक्षियों के खाने के लिए खुले में छोड़ देते है।
 
दादू जी की लाश भैराणा की पहाड़ी पर छोड़ी गई थी, जिसे आज दादू खोल/दादूपालकी कहते हैं। यहीं पर स्थित गुफा में दादू जी ने समाधि ली थी।
 
दादू पंथ के 5 विशिष्ट स्थानों को पंचतीर्थ कहा जाता है, जो क्रमश: कल्याणपुर, सांभर, आमेर, भराणां व नरायणा हैं। दादू सम्प्रदाय के अनुयायी मिलने पर “संतराम” कहकर अभिवादन करते है। संत दादू व उनके शिष्यों की रचनायें ढूँढ़ाड़ी भाषा में लिखी गई है।
 

संत नवलदासजी (नवल सम्प्रदाय)

 
नवल सम्प्रदाय के संस्थापक हरसौलाव गाँव में जन्मे संत नवलदास जी थे, जिनका प्रमुख मंदिर जोधपुर में है। नवलदासजी ने नवलेश्वर अनुभववाणी नामक ग्रन्थ की रचना की।
 

संत हरिदास जी (निरंजनी सम्प्रदाय)

 
इसके संस्थापक संत हरिदास जी थे जिनका जन्म कापड़ोद गाँव (डीडवाना, नागौर) व मृत्यु गाढ़ा बास गाँव (नागौर) के पास हुई। इस सम्प्रदाय की मुख्य पीठ गाढ़ा गाँव (नागौर) है। संत हरिदास जी का मूल नाम हरिसिंह सांखला था जो पहले डकैत थे, फिर साधू बने अत: इन्हें ‘कलयुग का वाल्मिकी’ कहते हैं। इन्होंने टूटे हुए मिट्टी के घड़े को जोड़ने एवं पागल हाथी को वश में करने का चमत्कार दिखाया।
 
ये अकबर व जहाँगीर के समकालीन थे। इनके उपदेश ‘हरिपुरूष जी की वाणी’ में संग्रहित है। इनके द्वारा निरंजनी सम्प्रदाय चलाया गया। निहंग व घरबारी निरंजनी सम्प्रदाय की दो शाखायें हैं। हड़बू जी सांखला हरिदास जी के गुरु थे, तो वहीं हरिदास जी के 52 शिष्य थे तथा इनका मेला फाल्गुन शुक्ल प्रथमा से द्वादशी तक लगता है। इनके अन्य प्रमुख ग्रन्थ-मंत्र राजप्रकाश, भरथरी संवाद व विरदावली ।
 
ध्यातव्य रहे- भीनमाल (जालौर) के कवि माघ को राजस्थान का वाल्मिकी कहते हैं।
 

आचार्य भिक्षु स्वामी (तेरापंथी सम्प्रदाय)

 
जैन श्वेताम्बर के तेरापंथी सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य भिक्षु स्वामी थे, जिनका जन्म कंटालिया गाँव (जोधपुर) में 1726 ई. में हुआ। इन्होंने तेरह साधुओं और तेरह ही सामायिक करने वाले श्रावकों के साथ 1760 ई. में जैन श्वेतांबर के तेरापंथ संप्रदाय की स्थापना की। ये इस सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य बने ।
 
ध्यातव्य रहे- राजस्थान में तेरह पंथ के प्रवर्तक भीखण जी रहे हैं।

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आचार्य श्रीतुलसी

 
तेरापंथ के 9वें आचार्य श्री तुलसी का जन्म नागौर जिले के लाडनूं में हुआ था। इन्होंने अणुव्रत सिद्धांत दिया। 1 मार्च, 1949 को सरदारशहर (चुरू) से अणुव्रत आंदोलन की शुरूआत की थी, तो वहीं अणुव्रत आंदोलन ने साम्प्रदायिक सौहार्द के माध्यम से सभी धर्मों को यह समझाने की कोशिश की, कि धर्म के मौलिक सिद्धांत एक हैं। 1994 ई. में इन्होंने सुजानगढ़ (चुरू) में मर्यादा महोत्सव का आयोजन करवाया।
 

आचार्य महाप्रज्ञ

 
आचार्य महाप्रज्ञ जैन धर्म के श्वेताम्बर तेरापंथ के दसवें संत थे, जिनका जन्म 1920 ई. को झुंझुनूं के टमकोर गाँव में हुआ था, तो वहीं इन्होंने अणुव्रत आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाई, जो आचार्य तुलसी के द्वारा 1949 ई. में शुरू किया गया था। इन्होंने 1970 के दशक में सुव्यवस्थित नियमबद्ध प्रेक्षाध्यान को शुरू किया, जिसके प्रमुख चरण हैं-ध्यान, योगासन, प्राणायाम, मंत्र एवं थेरेपी ।
 
इन्होंने 1979 ई. में शिक्षा प्रणाली में जीव विज्ञान का विकास किया, जो छात्रों के संतुलित विकास एवं चरित्र निर्माण की प्रायोगिक अवधारणा है।
 
1991 ई. में लाडनूं (नागौर) में जैन विश्व भारती डीम्ड विश्वविद्यालय की स्थापना में भी इन्होंने आचार्य तुलसी के साथ पूरा सहयोग किया। इनकी विद्ववता को देखते हुए आचार्य तुलसी ने इन्हें महाप्रज्ञ की उपाधि दी। 2001 में आचार्य महाप्रज्ञ ने सुजानगढ़ (चुरू) से अहिंसा यात्रा शुरू की।
 
इनकी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें-मंत्र साधना, I and Mine, Mirror of world, Art of Thinking Posi- tive, Mind beyond Mind, New man New world, योग, अनेकांतवाद आदि हैं।
 

संत रामचरण दास जी (रामस्नेही सम्प्रदाय)

 
रामस्नेही सम्प्रदाय के संस्थापक रामचरण जी (वास्तविक नाम- रामकिशन ) थे, जिनका जन्म सोड़ा ग्राम (टोंक जिले की मालपुरा तहसील) में हुआ । इनके पिता का नाम बख्तराम, माता का नाम देऊजी व पत्नि का नाम गुलाब कंवर था।
 
इन्होंने शिक्षा प्राप्ति के बाद सवाई जयसिंह द्वितीय के समय जयपुर राजघराने में मंत्री पद प्राप्त किया तथा 1743 ई० में सवाई जयसिंह द्वितीय की मृत्यु से आहत होकर संत बन गये। दांतड़ा (भीलवाड़ा) नामक स्थान पर ये संत कृपाराम से दीक्षा लेने के बाद रामचरण कहलाये। इस सम्प्रदाय का प्रार्थना स्थल ‘रामद्वारा’ कहलाता है, जहाँ गुरु का चित्र रखा जाता है।
 
इनकी प्रधान पीठ शाहपुरा (भीलवाड़ा) में है जहाँ फूलडोल उत्सव रामस्नेही सम्प्रदाय द्वारा चैत्र कृष्ण एकम् से चैत्र कृष्ण पंचमी तक मनाया जाता है। ध्यान रहे शाहपुरा के राजा रणसिंह ने रामचरण जी के रहने के लिए छतरी का निर्माण करवाया था। आना भाई वेणी रामचरणजी के गीतों का समूह है। 1798 ई. में रामचरणजी का शाहपुरा में देहांत हो गया था।
 
इन्होंने निर्गुण राम की उपासना की थी। रामचरणजी के 12 शिष्य थे। रामस्नेही सम्प्रदाय की अन्य शाखाएँ-
 
रामस्नेही सम्प्रदाय की रैण शाखा (मेड़ता, नागौर) – इसके संस्थापक दरियावजी थे। इनका जन्म 1676 में जैतारण (पाली) में हुआ, तो इनके पिता व माता का नाम क्रमश: मानजी धुनिया व गीगण था। इनका निधन 1758 में रैण में हुआ, तो वहीं इन्होंने वाणी (10000 पद) ग्रंथ की रचना की तथा पैमदास इनके गुरु थे।
 
 
रामस्नेही सम्प्रदाय की खेड़ापा शाखा (जोधपुर) – इसके संस्थापक रामदास जी थे। इनका जन्म जोधपुर हुआ था। इनके गुरु, पिता व माता का नाम क्रमशः हरिरामजी, शार्दुल जी व अणमी था।
 
इन्होंने जमभारगती, चेतावनी, भक्तमाल, गुरुमहिमा, अंगबद्ध अनुभव वाणी ग्रन्थ की रचना की, तो इन्होंने योग व प्राणायाम पर निशानी ग्रन्थ की रचना की। इनके बाद यह सम्प्रदाय पांच भागों में बंट गया – घरबारी, विरक्त, विदेही, परमहंरन, प्रवृत्ति ।
 
रामस्नेही सम्प्रदाय की सिंहथल शाखा (बीकानेर) – इसके संस्थापक हरिराम दास जी थे। इनका जन्म सिंहथल (बीकानेर) में हुआ । इनके पिता का नाम भागचंद जोशी व माता का नाम रामी देवी था, तो वहीं इनकी पत्नी का नाम चम्पा व पुत्र का नाम बिहारी तथा गुरु का नाम जैमलदास था ।
 
ध्यान रहे – जैमल दास जी को सिंहथल शाखा (बीकानेर) व खेड़ापा शाखा (जोधपुर) शाखाओं का आदि आचार्य कहते हैं ।
 

संत दास जी (गूदड़ सम्प्रदाय)

 
गूदड़ सम्प्रदाय के संस्थापक संत दास जी थे। इनकी प्रमुख पीठ दाँतड़ा गाँव (भीलवाड़ा) में है। ये भगवान राम के निर्गुण रूप की पूजा करते थे।
 

लालदास जी (लालदासी सम्प्रदाय)

 
लालदासी सम्प्रदाय के संस्थापक लालदास जी थे। ये मेव जाति के लकड़हारे थे, जिनके गुरु तिजारा के सूफी संत-गद्दन चिश्ती थे। | इनका जन्म धौलीदूब गाँव (अलवर) में 1540 ई. में श्रावण कृष्ण पंचमी को हुआ। इसकी प्रधान पीठ नगला (भरतपुर) में है, तो समाधि-शेरपुर (अलवर) में है। इस सम्प्रदाय में दीक्षा लेने वाले शिष्य को गधे पर काला मुंह करके उल्टा बिठाया जाता है।
 
इनके पिता का नाम चाँदमल, माता का नाम समदा व पत्नी का नाम मोगरी था। इन्होंने निर्गुण राम की उपासना करते हुये हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया, तो वहीं इनके उपदेश लालदास की चेतावणी व वाणी में संग्रहित है तथा आश्विन शुक्ल एकादशी व माघ पूर्णिमा को इनका मेला भरता है।
 
दिल्ली के लिए इन्होंने भविष्यवाणी की थी, कि वही शासक बनेगा जो अपने भाईयों का वध करेगा और औरंगजेब अपने भाईयों का वध कर दिल्ली का शासक बना।
 

चरणदास जी (चरणदासी सम्प्रदाय)

 
‘चरणदासी सम्प्रदाय के संस्थापक चरणदास जी थे व इस सम्प्रदाय में कुल 42 नियम हैं। इनका जन्म 1706 ई. में भाद्रपद शुक्ला तृतीया को डेहरा गाँव (अलवर) में हुआ। इनका प्रारम्भिक नाम- रणजीत था। मुनि सुखदेव से दीक्षा लेने के पश्चात चरणदास रखा गया। ये पीले वस्त्र पहनते थे। इनके पिता का नाम मुरलीधर व माता का नाम कुंजोबाई था।
 
इन्होंने 42 नियमों वाला चरणदासी सम्प्रदाय भाद्रपद शुक्ल तृतीया को चलाया, तो वहीं इनकी भक्ति सखा भाव की थी। इनके 52 शिष्य थे तथा 1982 में इनका दिल्ली में निधन हुआ। इस सम्प्रदाय की प्रधान पीठ दिल्ली में है। इन्होंने भारत पर नादिरशाह के आक्रमण की भविष्यवाणी की थी।
 
नादिरशाह ने 1739 ई. में भारत पर आक्रमण किया, तो वहीं नादिरशाह को ईरान का नेपोलियन व समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाता है। नेपोलियन फ्रांस का था। इन्होंने ब्रह्मज्ञान सागर, ब्रह्मचरित्र, भक्ति सागर, ज्ञान स्वरोदय ग्रन्थों की रचना की।
 
जयपुर शासक सवाई प्रतापसिंह चरणदासी सम्प्रदाय के अनुयायी थे।
 
बसंत पंचमी को इस सम्प्रदाय का मेला भरता है। चरणदासी ने मूर्तिपूजा का खण्डन किया। दयाबाई व सहजोबाई इनकी शिष्या थी। दयाबाई ने विनयमालिका व दयाबोध ग्रन्थ की रचना की तथा उनकी मृत्यु 1855 ई. में बिठूर (उ.प्र.) में हुई, वे केशव की पुत्री थी, तो वहीं ‘सहजोबाई ‘ ने भगवान कृष्ण की भक्ति की तथा उन्होंने सहज प्रकाश, सबदवाणी, सोलह तिथि आदि ग्रन्थों की रचना की। 
 

संत जाम्भोजी (विश्नोई सम्प्रदाय)

 
 
 
विश्नोई सम्प्रदाय के संस्थापक जाम्भोजी (विष्णु के अवतार/ गूंगा – गहला/ पर्यावरण वैज्ञानिक/वास्तविक नाम-धनराज) थे, जिनका जन्म 1451 ई. में पीपासर गाँव में भाद्रपद कृष्ण जन्माष्टमी को पँवार वंशीय राजपूत, पिता-लोहट जी व माता-हंसाबाई के घर हुआ, जिनके बचपन का नाम धनराज था।
 
जाम्भोजी ने 1485 ई. में समराथल (बीकानेर) में विश्नोई मत का प्रवर्तन कर 29 नियम / सिद्धांत (बीस + नो = विश्नोई) बनाये, अतः जाम्भोजी के अनुयायी ‘विश्नोई’ कहलाते हैं, जो राजस्थान में वन्य जीवों (मृग) एवं वृक्षों की रक्षा के लिए परम्परागत रुप से सक्रिय जाति है।
 
जाम्भोजी ने सबसे पहले अपने काका फूलोजी को विश्नोई बनाया था। जाम्भोजी के अनुयायियों में सर्वाधिक जाट जाति के लोग हैं। जाम्भोजी के दिए गए उपदेशों का संकलन ‘जम्भ सागर’ के नाम से जाना जाता है। इनको पढ़ने वाला शब्दी या गयणा कहलाता है। जाम्भोजी द्वारा रचित अन्य ग्रन्थ- जम्भ संहिता, धर्म प्रकाश, शब्दवाणी और जम्भसागर (29 नियम व 120 शब्दों का संग्रह) थे। 1536 ई. में जाम्भोजी ने मुकाम (बीकानेर) में समाधि ली थी अत: इनकी प्रधान पीठ मुकाम गाँव में है, जहाँ प्रतिवर्ष अश्विन व फाल्गुन अमावस्या को मेला लगता है।
 
जाम्भोजी ने सिकंदर लोदी से बीकानेर क्षेत्र में गौ-वध निषेध का आदेश पारित करवाया था। जोधपुर के राव जोधा व उनके पुत्र बीका भी इनके भक्त थे। इस सम्प्रदाय के सर्वाधिक लोग जोधपुर में निवास करते हैं। इनके अन्य मंदिर-जम्भा (जोधपुर) रामड़ावास (जोधपुर), रोटू (नागौर) एवं जांगलू (बीकानेर) में है।
 
ध्यान रहे-माता हँसा देवी ने इनको श्रीकृष्ण का अवतार माना, तो लोगों ने इन्हे प्रथम पर्यावरणीय संत माना है। संत जाम्भोजी के गुरु गोरखनाथ थे। इन्होंने आज्ञानुवर्ती सम्प्रदाय को विश्नोई सम्प्रदाय में ही दीक्षित किया। विश्नोई सम्प्रदाय के उपदेश स्थल को सांथरी कहते हैं, तो वहीं महाराणा सांगा, सांतलदेव, मुहम्मद खाँ, राव दूदा, जैत्रसिंह, सिकन्दर लोदी इसके अनुयायी थे। पीपासर को खड़ाऊ की पीपा तथा जम्भा को विश्नोईयों का पुष्कर कहा जाता है।
 
ध्यातव्य रहे- राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी भाग में विश्नोई सम्प्रदाय बहुतायत में पाया जाता है। ‘पर्यावरण चेतना’ जैसी आधुनिक शब्दावली का महत्व बहुत पहले से ही जांभोजी ने जान लिया था।
 
1604 ई. में रामसड़ी (जोधपुर) के करमा-गौरा ने वृक्षों की रक्षा के लिए सर्वप्रथम अपना बलिदान दिया, तो विश्नोई सम्प्रदाय के वूंचोजी ने भी वृक्षों के लिए अपना बलिदान दिया जो पोलवास गांव (मेड़ता) के थे।
 
ध्यातव्य रहे- विश्व का एकमात्र वृक्ष मेला भाद्रपद शुक्ल दशमी को खेजड़ली ग्राम में भरता है। वृक्षों हेतु बलिदान देना खण्डाणा साका कहलाता है, तो बीकानेर रियासत के झण्डे में खेजड़ी का वृक्ष था ।
 

संत जसनाथ जी (जसनाथी सम्प्रदाय)

 
जसनाथ जी का जन्म देवउठनी ग्यारस को 1482 ई. में कतरियासर गाँव (बीकानेर) में पिता-हमीर जाट व माता-रुपादे के घर हुआ। इनके गुरु गोरखनाथ जी थे। जसनाथी सम्प्रदाय के संस्थापक जसनाथ जी (सबसे छोटी उम्र / 24 वर्ष के संत) थे और इसकी प्रधान पीठ कतरियासर गाँव (बीकानेर) में है।
 
जसनाथ जी को आश्विन शुक्ल सप्तमी को ही ज्ञान की प्राप्ति हुई व इसी तिथि को 1506 ई. में उन्होंने समाधि ली। इनकी पत्नी कालदे इन्हीं के साथ सती हुई थी, अतः कालदे की पूजा भी इनके साथ करते हैं । जसनाथ जी ने 36 नियम बनाये तथा उनको अपने उपदेशों सिंभूदड़ा व कोड़ा ग्रंथों में सुरक्षित किया। इस सम्प्रदाय के लोग धधकते हुए अंगारों पर नृत्य करते हैं ।
 
जसनाथजी चमत्कारों से प्रभावित होकर सुल्तान सिकंदर लोदी ने उन्हें कतरियासर गाँव में जागीर दी। इस सम्प्रदाय के सर्वाधिक लोग बीकानेर में निवास करते हैं, जो सर्वाधिक जाट जाति से संबंध रखते हैं। जसनाथी सम्प्रदाय के लोग गले में काली ऊन का धागा पहनते हैं और मयूर पंख व जाल वृक्ष को पवित्र मानते हैं। ये अपने शव को दफनाते हैं।
 
इस सम्प्रदाय की उप पीठें लिखमादेसर, पूनरासर, पांचला, बम्मल व मालासर में स्थित है । लालनाथजी, चौखनाथजी व सवाईदास जी जसनाथजी सम्प्रदाय से सम्बन्धित थे । जसनाथी सम्प्रदाय के अनुयायी तीन प्रकार के होते हैं- 1. सिद्ध-ये पुजारी होते हैं, 2. परमहंस-ये विरक्त होते हैं व शादी नहीं करते हैं तथा 3. जसनाथी जाट-ये गृहस्थी होते हैं।
 

स्वामी लालगिरी (अलखिया सम्प्रदाय)

 
इसके संस्थापक स्वामी लालगिरी थे, जिनका जन्म चूरू में सुलखनिया गाँव में मोची परिवार में हुआ तथा इनकी प्रधान पीठ बीकानेर में है। अलख स्तुति प्रकाश लालगिरी जी का प्रमुख ग्रन्थ है। बचपन में ही ये नागा साधु बन गये थे।
 

संत मावजी (निष्कलंक सम्प्रदाय)

 
निष्कलंक सम्प्रदाय के संस्थापक संत मावजी (संत मावजी ने वेणेश्वर धाम की स्थापना की थी) थे। संत मावजी का जन्म संवत 1771 (1714 ई.) साबला (डूंगरपुर) में ब्राह्मण परिवार में हुआ। इन्हें ज्ञान की प्राप्ति 1727 ई. में सोम-माही-जाखम नदी के संगम पर वेणेश्वर नामक स्थान पर हुई। निष्कलंक सम्प्रदाय की प्रधान पीठ साबला गाँव (डूंगरपुर) में है।
 
निष्कलंक सम्प्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण की पूजा निष्कलंकी अवतार के रूप में करते हैं। इनका मुख्य ग्रंथ चौपड़ा है, जिसमें तीसरे विश्व युद्ध की भविष्यवाणी की गई थी। ध्यान रहे प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा के अवसर पर वेणेश्वर में इन्हीं की स्मृति में आदिवासियों का कुंभ मेला लगता है।
 
संत मावजी के पिता का नाम दालम ऋषि व माता का नाम केशर बाई था। मावजी के अनुयायी को साध कहते हैं। चौपड़ा ग्रन्थ दीपावली पर बाहर निकाले जाते हैं तथा मकर संक्राति पर इनका वाचन होता है। मावजी द्वारा अछूतों के लिए लसोड़िया आंदोलन चलाया गया था, तो वहीं इनकी पुत्रवधू जनक कुमारी ने सर्वधर्मसमन्वयवादी मंदिर का निर्माण वेणेश्वर में करवाया।
 

निम्बार्क सम्प्रदाय / सनकादि सम्प्रदाय/हंस सम्प्रदाय

 
इसके संस्थापक निम्बार्काचार्य थे। निम्बार्काचार्य का जन्म 1165 ई. में वैलारी (मद्रास) में हुआ था। नारद मुनि इनके गुरु थे, तो वहीं इनके बचपन का नाम भास्कर था। राजस्थान में इस सम्प्रदाय की स्थापना करने का श्रेय परशुराम जी को जाता है। इस सम्प्रदाय की भारत में प्रधान पीठ वृंदावन (मथुरा) में है,
 
तो वहीं राज्य में इसकी प्रधान पीठ सलेमाबाद (किशनगढ़-अजमेर) व दूसरी पीठ उदयपुर में है। 17वीं सदी में स्थापित सलेमाबाद पीठ रूपनगढ़ नदी के किनारे स्थित है। परशुराम जी (36वें निम्बार्काचार्य) का जन्म 16वीं सदी में ठिकरिया गाँव (सीकर) में हुआ था। हरिव्यास जी परशुराम के शिष्य थे।
 
राजस्थान में इस सम्प्रदाय के मंदिरों को गोपाल द्वारे कहा जाता है, तो वहीं मारवाड़ में निम्बार्क सम्प्रदाय को निमावत साध के नाम से जाना जाता है। वेदांत परिजात सौरभ व दस सलोकी निम्बार्काचार्य की प्रमुख रचना है। इस सम्प्रदाय में राधा व श्रीकृष्ण की युगल रूप में उपासना की जाती है तथा प्रतिवर्ष राधाष्टमी को यहाँ मेला लगता है। 
 

संत पीपाजी

 
इनका जन्म – 1425 ई. चैत्र पूर्णिमा को गागरोन के राजा खींची चौहान कड़ावा राव के यहाँ हुआ। इनका वास्तविक नाम प्रताप राव खींची था तथा इनकी माता का नाम लक्ष्मीवती था। इनके गुरु रामानन्द जी थे, इन्हीं की प्रेरणा से राजपाठ छोड़कर समदड़ी गाँव (बाड़मेर) में जाकर दर्जी का कार्य करते हुए अपना जीवन यापन किया, इसी कारण दर्जी समुदाय इनको अपना आराध्य देवता मानता है।
 
समदड़ी (बाड़मेर) में संत पीपा का मंदिर बना हुआ है, जहाँ चैत्र पूर्णिमा को मेला भरता है, तो पीपा का एक अन्य मंदिर मंसूरिया (जोधपुर) में है।
 
संत पीपा ने अपना अंतिम समय टोंक जिले में टोडारायसिंह कस्बे में पहाड़ी के ऊपर स्थित गुफा में गुजारा, जिसे हम संत पीपा की गुफा कहते हैं। संत पीपा का दाह संस्कार गागरोन दुर्ग में किया गया, इसी कारण संत पीपा की छतरी गागरोन दुर्ग (झालावाड़) में स्थित है। राजस्थान में इन्हें निर्गुण भक्ति परम्परा का जनक माना जाता है पीपा ने अपने भाई कल्याणराव के पुत्र भोजराज को राज्य सौंपकर तपस्या की थी, तो वहीं पीपा की कुल 20 रानियाँ थी।
 
पीपा के उपदेश जोग चिन्तामणि में संग्रहित है। 1848 ई. में फ्रांसीसी दार्शनिक गार्सा द तासी ने पीपा की जीवनी लिखी थी।
 
ध्यान रहे – पीपा ने गागरोन गढ़ का प्रबन्ध संभालते समय दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक को पराजित किया। राजस्थान में भक्ति आन्दोलन की अलख जगाने वाले ये प्रथम संत थे। इन्होंने मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख साधन भक्ति को माना है।
 

संत धन्ना

 
इनका जन्म 1415 ई० में धुवन गाँव (टोंक) वैशाख कृष्ण अष्टमी को जाट परिवार में हुआ। ये राजस्थान छोड़कर बनारस गए एवं वहाँ रामानन्द के शिष्य बने। इन्होंने अपने गुरु की आज्ञा मानते हुए वृन्दावन क्षेत्र से वापस गाँव आकर माता-पिता की सेवा करते हुए ईश्वर भक्ति की । इन्होंने ‘बिना बीज की खेती’ का चमत्कार दिखाया।
 
इन्हें बीकानेर संभाग व पंजाब क्षेत्र के जाट अपना भगवान मानते हैं तथा इनको मानने वाले धन्ना वंशी कहलाते हैं। टोंक जिले के दूनी कस्बे के पास एक विशाल मंदिर गुरुद्वारा के रूप में पंजाबियों ने बनवाया है। इन्होंने भगवान को हठात् भोजन करवाया। धन्नाजी के उपदेश धन्नाजी की आरती में संग्रहित है। इनके कुछ पद्य आदि ग्रन्थ में संग्रहित है।
 

भक्त कवि दुर्लभ

 
इनका जन्म बागड़ क्षेत्र में हुआ। इनका कार्यक्षेत्र-डूंगरपुर व बांसवाड़ा रहा। इन्हें राजस्थान का नृसिंह के नाम से भी जाना जाता है।
 

राजाराम सम्प्रदाय

 
इसके प्रवर्तक राजाराम थे। इस समप्रदाय की प्रमुख पीठ शिकारपुरा (जोधपुर) में है। इसमें वृक्षारोपण व भ्रातृभाव का संदेश दिया जाता है।
 
 

मीरां बाई (दासी सम्प्रदाय)

 
दासी सम्प्रदाय की संस्थापक मीरां बाई (बचपन का नाम पेमल) थी। इन्हें ‘राजस्थान की राधा’ / ‘मरुमंदाकिनी’ के नाम से पुकारते हैं। मीरां का जन्म 1498 को पाली जिले (तत्कालीन मेड़ता-परगना) के कुड़की गाँव में राठौड़ वंश में रतनसिंह राठौड़ (पिता) व कुँवरि बाई (माता) के घर हुआ। इनके पति का नाम भोजराज (सांगा का पुत्र) व गुरु का नाम-रैदास (शादी के बाद) था।
मेड़ता ‘मीरां बाई की क्रीड़ास्थली’ के नाम से जानी जाती है। मीरा का विवाह राणा सांगा के बड़े पुत्र भोजराज के साथ 1516 ई. में हुआ था। भोजराज की विवाह के 7 वर्ष बाद 1523 ई. में मृत्यु हो गई ।
 
ध्यातव्य रहे- कुछ इतिहासकारों के अनुसार भोजराज की मृत्यु 1517 ई. में खातोली के युद्ध में हुई थी, तो वहीं डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार भोजराज की मृत्यु 17 मार्च, 1527 ई. को खानवा के युद्ध में हुई थी।
 
मीरा के आरम्भिक गुरु चंपाजी थे। गधाधर गुर्जर गौड़ मीरा के धार्मिक गुरु थे। वृंदावन में मीरा ने रूप गोस्वामी के सानिध्य में भक्ति की। मीरा की भक्ति सगुण व माधुर्य भाव की थी। वे कृष्ण को अपना पति मानकर भक्ति किया करती थी। मीरा को कृष्ण का गिरधर रूप सबसे अधिक पसंद था। मीरा चित्तौड़ से वृंदावन चली गई।
 
मीरा के देवर उदयसिंह ने सुरदास चम्पावत को मीरा को लाने के लिए वृंदावन भेजा था। मीरा ने वृंदावन में दासी सम्प्रदास चलाया। इस सम्प्रदाय में पुरुष भी स्त्रियों की वेशभूषा पहनते हैं। मीरां ने अपना अंतिम समय द्वारिका/डाकोर (गुजरात) में स्थित रणछोड़ मंदिर में बिताया और अंत में 1546 ई. में रणछोड़ मंदिर की मूर्ति में विलीन हो गई।
 
इनकी रचनाओं में ‘टीका राग गोविन्द’, ‘नरसी मेहता री हुंडी’, ‘रूक्मण मंगल’, ‘गीत गोविन्द’ आदि प्रमुख है। मीरां बाई के निर्देशन में रतनाखाती ने ब्रजभाषा में ‘नरसी जी रो मायरो’ नामक ग्रंथ की रचना की। मीरा महोत्सव आश्विन पूर्णिमा को चित्तौड़ में आयोजित किया जाता है, तो वहीं मीरा के पदों को वृद्ध व्यक्ति की मृत्यु पर गाया जाता है, जिन्हें हरजस कहा जाता है।
 
दोहा
 
‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोय।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोय ।।’
 
ध्यान रहे महात्मा गाँधी मीरां बाई को अन्याय के विरूद्ध संघर्ष करने वाली पहली सत्याग्राही महिला के रूप में देखते हैं। मीरा बाई ने फुटकर पदों की रचना की जिनकी संख्या 610 है।
 

संत गवरी बाई

 
इनका जन्म – डूंगरपुर के नागर कुल में हुआ। इन्हें बागड़ की मीरा के नाम से भी जाना जाता है। इनके पति की मृत्यु शादी के 7 दिन बाद हो गई थी। अंतिम समय इन्होंने काशी में बिताया, जहाँ 1865 में इनका निधन हो गया।
 

करमाबाई

 
करमा बाई का जन्म कालवा गाँव (नागौर) में एक जाट परिवार में हुआ । इनके पिता का नाम जीवनराम डुडी व माता का नाम रतनी देवी था। इनका ससुराल गढ़ी सामोर (अलवर) में था। करमाबाई ने ईश्वर की सगुण भक्ति पर बल दिया। करमाबाई जाट ने भगवान कृष्ण की प्रतिमा को जिद्द करके खिचड़ा खिलाया था, जिसकी स्मृति में आज भी भगवान जगन्नाथ को खिचड़े का भोग लगाया जाता है। इनका मंदिर कालवा (नागौर) में है।
 
इनका प्रसिद्ध गीत-थाळी भरके लाई रे खीचड़ो, ऊपर घी की बाटकी जीमो म्हारा श्याम धणी, जीमाव बेटी जाट की।
 

भूरी बाई

 
भूरी बाई का जन्म 1892 ई. में सरदारगढ़ (राजसमंद) के एक सुथार परिवार में हुआ । इनका विवाह नाथद्वारा के विधुर फतहलाल से विवाह हुआ था। देवगढ़ की मुस्लिम योगिनी नूराबाई से मिलने पर इन्हें वैराग्य प्राप्त हुआ और संत जीवन व्यतीत किया। भूरी बाई ने भगवान श्री कृष्ण की सगुण भक्ति की ।
 

संत राना बाई

 
राना बाई का जन्म 1504 ई. में हरनावा गाँव (नागौर) के एक जाट परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम रामगोपाल एवं माता का नाम गंगाबाई था। इनके गुरू चतुरदास थे। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण की सगुण भक्ति की । इन्हें ‘राजस्थान की दूसरी मीरां’ के नाम से भी जाना जाता है। 1570 ई. में रानाबाई ने हरनावा गाँव में जीवित समाधि ली थी।
 
संत फूली बाई
 
मझवास गाँव (जोधपुर) में जन्मी फूली बाई जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह के समकालीन थी। जाट परिवार की इस महिला को महाराजा जसवंत सिंह ने अपनी धर्मबहिन बनाया था। इन्होंने शादी नहीं करके आजीवन वैराग्य धारण किया था।
 
संत समान बाई चारण
 
माहुन्द गाँव (अलवर) में जन्मी समान बाई चारण भगवान श्री कृष्ण की उपासक थी। इनको ‘मत्स्य प्रदेश की मीरां’ के नाम से भी जाना जाता है। इन्होंने आजीवन आंखों पर पट्टी बांधे रखी।
 
संत रानी रत्नावली
 
रानी रत्नावली भानगढ़ (अलवर) के शासक माधोसिंह की रानी थी। ये कृष्ण की प्रसिद्ध भक्त थी।
 
संत भोली गुजरी
 
भोली गुजरी करौली के बुगडार गाँव की निवासी थी। ये कृष्ण के मदनमोहन स्वरूप की उपासिका थी। 
 
संत ज्ञानमति बाई
 
जयपुर की ज्ञानमति बाई चरणदासी सम्प्रदाय की अनुयायी थी। इनके गुरु आत्माराम थे। इनकी 50 वाणियाँ आत्माराम परम्परा के संतों के साथ संकलित है।
 
संत ब्रज कंवरी
 
ब्रज कंवरी किशनगढ़ के शासक सावंतसिंह की बहन थी। ये भगवान कृष्ण की पूजा करती थी। इन्होंने श्रीमद्भागवत गीता का ब्रज भागवत गीता के नाम से अनुवाद किया था।
 
संत बाला बाई अपूर्व दे
 
बाला बाई बीकानेर के राव लूणकरण की पुत्री एवं आमेर नरेश पृथ्वीराज कछवाहा की पत्नी थी। इन्होंने वैष्णव दीक्षा ली।
 
संत करमेती बाई, खंडेला (सीकर)
 
खण्डेला के श्री परशुराम जी की पुत्री जो कृष्ण भक्ति की संत थी। इन्होंने वृंदावन में ब्रह्मकुण्ड में साधना की, जिनकी स्मृति में ठाकुर बिहारी का मंदिर खण्डेला ठाकुर साहब ने बनवाया था।
 
संत सुमति झाला
 
कुंभा की पत्नी जो भगवान श्री कृष्ण की उपासक थी।
 
संत ताप बेगम (फतेहपुर) 
 
फतेहपुर के कायमखानी नवाब फदन खां की पुत्री थीं, जो कृष्ण भक्त थी।
 

सिक्ख सम्प्रदाय

 
इस धर्म के प्रवर्तक एवं प्रथम गुरु नानकदेव जी हैं, जिनका जन्म 15 अप्रैल, 1469 ई. को तलवण्डी (ननकाना, पाकिस्तान) में हुआ था। इन्होंने ईश्वर की प्राप्ति हेतु अहंकार का त्याग एवं भक्ति को आवश्यक बताया तथा ये अवतारवाद को नहीं मानते थे। गुरुनानक जी के उपदेश पवित्र पुस्तक गुरुग्रंथ साहिब में संकलित हैं। राजस्थान में इस सम्प्रदाय के अनुयायी गंगानगर व हनुमानगढ़ में अधिक हैं, तो वहीं राजस्थान में सिक्खों का सबसे बड़ा गुरुद्वारा-बुढ़ड़ा जोहड़ (श्रीगंगानगर) है।
 

पारसी धर्म

 
राज्य में उदयपुर, अजमेर व बाड़मेर जिलों में पारसी मतानुयायी निवास करते हैं। ये सूर्य की पूजा करते हैं। उल्लेखनीय है कि भीनमाल (जालौर) में वराह श्याम मंदिर से पारसी पद्धति के सूर्यदेव की प्रतिमा मिली है, जिसने पारसी ढंग के जूते पहन रखे हैं।
 

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (अजमेर)

 
अजमेर में ‘ तारागढ़’ की पहाड़ी की गोद में बनी ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह यहाँ आने वाले यात्रियों के लिए आकर्षण व श्रद्धा का केन्द्र रही है। इनका जन्म 1143 ई. में सिस्तान (पूर्व पर्शिया का क्षेत्र) में हुआ । इनके बचपन का नाम खुरासान था। मोईनुद्दीन चिश्ती के पिता का नाम ‘ग्यासुद्दीन अहमद’ तथा माता का नाम ‘बीबी मनहूर / सोहनूर’ था ।
 
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती मुहम्मद गोरी के साथ तथा पृथ्वीराज चौहान तृतीय के शासन काल में अजमेर आये। ये भारत में चिश्ती सम्प्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं, इन्हें गरीब नवाज (गरीबों का हितैशी) भी कहा जाता है। मुहम्मद गोरी ने इन्हें सुल्तान- अल-हिन्द अर्थात् हिन्दुस्तान का आध्यात्मिक गुरु की उपाधि से नवाजा था। चिश्ती संप्रदाय के संत जिस जगह रहते हैं वह ‘खानकाह/
 
खानखाह’ कहलाता है। इस संप्रदाय में ‘गुरु’ को ‘पीर’, ‘शिष्य’ को ‘मुरीद’ तथा ‘उत्तराधिकारी’ को ‘वली’, उपदेश स्थल को जमीदखान, तीर्थयात्री को ‘जायरीन’ व तीर्थयात्रा को ‘जियारत’ कहते हैं। इनकी वफात (मृत्यु) 15 मार्च, 1236 ई. को अजमेर में हुई। इनकी दरगाह बनाने की शुरुआत इल्तुतमिश ने की तथा पूर्ण हुमायूँ ने करवाया।
 
माण्डू के सुल्तान ने ख्वाजा साहब की समाधि पर इमारत बनवायी तथा आलमगिरि मस्जिद का निर्माण करवाया। यहाँ पर प्रतिवर्ष पहली रज्जब से छह रज्जब/नौ रज्जब तक उर्स का मेला लगता है, जिसका उद्घाटन भीलवाड़ा का गोरी परिवार करता ।
 
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के गुरु हजरत शेख उस्मानी हारुनी थे, जबकि मोईनुद्दीन चिश्ती के शिष्य बख्तियार काकी थे। ख्वाजा साहब की जीवनी ‘होली बायोग्राफी’ के लेखक ‘मिर्जा वहीउद्दीन बेग’ के शब्दों में, ‘ख्वाजा साहब की दरगाह कौमी एकता का सदाबहार चरचश्मा है।
 
ख्वाजा फखरुद्दीन चिश्ती-सरवाड (अजमेर) ये मोइनुद्दीन चिश्ती के ज्येष्ठ पुत्र थे ।
 
ख्वाजा हसामुद्दीन चिश्ती-सांभर (जयपुर)
 
ये ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के पौत्र थे। इनके उपदेश – 1. इल्म (ज्ञान) वह है जो सूरज की भांति चमके ओर अपनी चकाचौंध से पूरी | दुनिया को रोशन कर दे। 2. दुनिया दो चीजों से बढ़कर कुछ भी नहीं है, एक- आलियों की सोहबत (विद्वानों की संगति), दूसरी – बड़ों की इज्जत ।
 
शेख हमीमुद्दीन (नागौरी ) चिश्ती
 
ये ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के प्रथम शिष्य थे। इन्हें ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने दीक्षा दी थी। ये मोहम्मद गौरी के साथ 1192 ई. में भारत आये व ख्वाजा साहब के कहने पर इन्होंने नागौर को अपनी कार्यस्थली बनाया। इन्हें ख्वाजा साहब ने ‘सुल्तान-ए- तारकीन’ (सन्यासियों का सुल्तान) की उपाधि से नवाजा। इनकी दरगाह निगाणी तालाब, नागौर, राजस्थान में बनी हुई । ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के उर्स के बाद राजस्थान का दूसरा सबसे बड़ा उर्स (मेला) यहीं लगता है । 
नरहड़ के पीर
 
हाजिब शक्कर बाबा शेख सलीम चिश्ती के गुरु थे । इनकी दरगाह नरहड़ (चिड़ावा, झुंझुनूं) में है। इन्हें बागड़ के धणी/ शक्कर पीर बाबा / नरहड़ शरीफ दरगाह के नाम से भी जाना जाता है। जन्माष्टमी के दिन इनका ऊर्स लगता है। यह दरगाह साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा स्थल है।
 
पीर फखरुद्दीन-गलियाकोट (डूंगरपुर)
 
गलियाकोट (डूंगरपुर) में संत सैय्यद फखरुद्दीन की मजार है। इसे मजार-ए-फखरी भी कहते हैं। यह मजार दाऊदी बोहरा सम्प्रदाय (मुस्लिम) की आस्था का प्रमुख केन्द्र है। इनका ऊर्स मोहर्रम के 27 वें दिन लगता है।
 
 
राजस्थान के संत

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