राजस्थान के प्रमुख लोकदेवता
समय-समय पर उत्कृष्ट कार्य, बलिदान, उत्सर्ग या परोपकार करने वाले महापुरुषों को ‘लोक देवता’ या ‘पीर’ कहा जाता है। अर्थात् लोकदेवता से तात्पर्य ऐसे महान् पुरुषों से है जो मानव रूप में जन्म लेकर अपने जनकल्याणकारी कार्यों, अलौकिक चमत्कारों के साथ ही लोकहित में बलिदान हो गए, जिन्हें वर्तमान में देवताओं के रूप में पूजा जाता है।
राजस्थान में पाबूजी, हड़बूजी, रामदेवजी, मांगलिया मेहाजी व गोगाजी पंचपीर माने जाते हैं। इसके लिए राजस्थान में कहावत भी है-
पाबू, हरबू, रामदे, मांगलिया मेहा। पाँचों पीर पधारजो, गोगाजी जेहा ।।
पाबूजी
यह पंच पीरों में से एक पीर हैं। इन्हें गौरक्षक देवता / लक्ष्मण का अवतार (साहित्य में) / ऊँटों का देवता / प्लेग रक्षक देवता / वचनपालक / शरणागत के रक्षक / अछूतोद्धारक आदि नामों से जाना जाता है। इनका जन्म कोलूमण्ड गाँव (फलौदी तहसील, जोधपुर) में हुआ।
इनके पिता धांधल जी राठौड़, माता-कमलादे, पत्नी- अमरकोट के राजा सूरजमल सोढ़ा की पुत्री फूलमदे / सुप्यारदे, घोड़ी-केसर कालमी थीं। मारवाड़ में सर्वप्रथम ऊँट लाने का श्रेय इन्हीं को जाता है। इन्होंने अपनी भतीजी केलम की शादी में ऊँट उपहार में दिये थे। यह राईका (रेबारी) जाति के लोकदेवता कहलाते हैं।
(लोकदेवता )
जब ऊँट कभी बीमार पड़ता है तो इनकी फड़ (राजस्थान की सर्वाधिक लोकप्रिय फड़) गाई जाती है। पाबूजी की पगड़ी बाईं ओर झुकी होती है। पाबूजी की बहिन सोहन बाई थी। पाबूजी को देवलचारणी नामक महिला ने केसर कालमी घोड़ी उपहार में दी थी लेकिन उनसे वचन लिया था, कि जब भी कभी मेरे को आपकी जरूरत पड़े, तो मेरी आपको सहायता करनी पड़ेगी।
जब पाबूजी शादी के फेरों में बैठे हुए थे, उसी समय जायल जागीर का राजा व पाबूजी का बहनोई जिंदराव खींची देवल चारणी की गायों को ले जाता है। देवल चारणी पाबूजी के पास मदद मांगने के लिए जाती है, तो वचनबद्ध पाबूजी शादी के तीसरे फेरे के बाद गायों को छुड़ाने के लिए फेरों को बीच में ही छोड़कर चले जाते हैं और देंचू गाँव (जोधपुर) में पाबूजी जिंदराव खींची से लड़ते हुए मारे जाते हैं, उसके बाद पाबूजी की पत्नी फूलमदे सती हो जाती है। (लोकदेवता )
इनका पूजा स्थल कोलूमण्ड गाँव है, जहाँ प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को मेला भरता है। अन्य मंदिर- आहड़ (उदयपुर)। पाबूजी के भतीजे झरडो जी (रूपनाथ जी/हिमाचल प्रदेश में बालकनाथ के रूप में) ने जिंदराव खींची को मारकर अपने चाचा की मौत का बदला लिया। नायक एवं आयरी जाति के भोपे रावणहत्था वाद्ययंत्र के साथ पाबूजी की फड़ गाते हैं, तो पाबूजी के पावड़े माठ वाद्य यंत्र के साथ गाया जाता है।
चांदा, डामा व हरमल पाबूजी के मित्र (रक्षक सहयोगी) थे, जो भील जाति के थे। पाबूजी का प्रतीक चिह्न-भाला लिए अश्वारोही है, तो पाबू प्रकाश-आशिया • मोड़जी द्वारा लिखित ग्रंथ है। पाबूजी के भक्तों का थाली नृत्य प्रसिद्ध है। थोरी जाति के लोग सारंगी वाद्ययंत्र से पाबूजी का यश गाते हैं, तो वहीं थोरी जाति के 7 लोगों ने पाबूजी की गुजरात शासक आना – बधेला से रक्षा की थी। मेहर मुसलमान पाबूजी को पीर मानते हैं। हड़मल राईका पाबूजी के ऊँटों की देखभाल करता था। भील इन्हें अपना आराध्य देव मानते हैं।
हड़बूजी
यह पंच पीरों में से एक पीर है। इनका जन्म 15वीं सदी में भूंडले (नागौर) में मेहाजी साँखला के घर हुआ। इनके मौसेर भाई रामदेवजी की प्रेरणा से इन्होंने बालीनाथ को अपना गुरू बनाया। ये एक अच्छे योगी, शकुनशास्त्र के ज्ञाता, सन्न्यासी व योद्धा थे, इनका मुख्य पूजा स्थल बैंगटी (फलौदी-जोधपुर) में है।
जहाँ इनके मंदिर (इनका मंदिर जोधपुर के महाराजा अजीत सिंह ने बनवाया था) में “इनकी गाड़ी की पूजा की जाती है, जिसमें ये पंगु गायों के लिए चारा लेकर आते थे। इन्होंने रावजोधा को मण्डौर विजय का आशीर्वाद देते हुए, एक कटार भेंट की थी, इसीलिए मण्डौर विजय के बाद जोधा ने बैंगटी गाँव (जोधपुर) दान में दिया।
इसी बैंगटी गाँव में हड़बूजी गायों की सेवा करते थे। हड़बूजी का वाहन सियार है। भाद्रपद शुक्ल पक्ष में इनका मेला भरता है। इनका पुजारी सांखला जाति का होता है। हड़बूजी ने रामदेवजी के 8वें दिन समाधि ली थी।
रामदेवजी
रामदेवरा, जैसलमेर जिला मुख्यालय से पूर्व दिशा में है, तो वहीं रामदेवरा का प्राचीन नाम रूणेचा है ।
यह पंच पीरों में से एक पीर है। इन्हें रूणीचा रा धणी / विष्णु का अवतार / पीरों का पीर / हिन्दू इन्हें कृष्ण का अवतार / मुसलमान इन्हें रामसा पीर आदि नामों से पुकारते हैं। एकमात्र लोकदेवता जो साम्प्रदायिक सद्भावना के लिए जाने जाते हैं। इनका जन्म ऊडूकासमेर गाँव (शिव तहसील, बाड़मेर) में हुआ।
इनके पिता- अजमाल, माता-मैणा दे, बड़े भाई-वीरमदेव (बलराम का अवतार), बहिन-सुगणा व लांछा, पत्नी-नेतलदे, गुरू-बालीनाथ, घोड़ा-नीला घोड़ा था। यह एकमात्र लोकदेवता थे जिन्होंने जीवित समाधि ली तथा ये कवि भी थे, जिन्होंने ‘चौबीस बाणियां’ पुस्तक की रचना कर उसमें अपने उपदेश लिखे। लोक-देवताओं में सबसे लम्बा गीत इन्हीं का है।
इनका मन्दिर देवरा कहलाता है जिनमें इनके दो पगल्ये होते हैं। एकमात्र लोकदेवता जो मूर्ति पूजा के विरोधी थे, अतः आज भी इनके पगल्यों की पूजा होती है। इनकी ध्वजा पाँच रंगों की होती है जिसे नेजा, इनके पुजारी मेघवाल जाति के जिन्हें रिखियाँ, यहाँ होने वाले रात्रि जागरण को ‘जम्मा’ व आने वाले तीर्थ यात्रियों को ‘जातरु’ कहते हैं।
रामदेव के भक्तों द्वारा ब्यावले गाये जाते है। मेघवाल जाति की डालीबाई को अपनी धर्म बहिन बनाया, जिसने रामदेवजी से एक दिन पहले जीवित समाधि ली थी। रामदेवजी ने कामड़िया पंथ (कामड़ जाति की महिलाएँ इनके मेले में तेरहताली नृत्य करती है) की स्थापना कर डालीबाई व सुगनीबाई को अपनी शिष्या बनाया। इनका मंदिर रामदेवरा (जैसलमेर) में है, जहाँ पर भाद्रपद शुक्ल दूज (इस दिन रामदेवजी का जन्म हुआ, बाबेरी बीज) से एकादशी (इस दिन 1458 ई. में रामदेव जी ने समाधि ली) तक मेला लगता है, तो छोटा रामदेवरा गुजरात में है।
राजस्थान का रामदेवरा (जैसलमेर) पर्यटन स्थल हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक माना जाता है। राजस्थानी लोकगीतों में गाये जाने वाला ‘नेतल का करतार’ रामदेवजी के संदर्भ में हैं। खुड़ियास (अजमेर) को राजस्थान का छोटा / मिनी रामदेवरा कहा जाता है, तो वहीं सुरताखेड़ा (चित्तौड़गढ़) में भाद्रपद शुक्ल एकम् से तृतीया तक इनका मेला भरता है।
(लोकदेवता )
अन्य स्थल-बराठिया (पाली) तथा मसूरिया (जोधपुर)। बालीनाथ की समाधि मसूरिया पहाड़ी (जोधपुर) पर स्थित है। रामदेवजी को कपड़े के घोड़े चढ़ाये जाते हैं। रामदेवजी ने शुद्धि आंदोलन चलाकर हिन्दू बने मुसलमानों को पुनः हिन्दू बनाया।
मक्का से रामदेवजी की परीक्षा लेने आये पांच पीरों को रामदेवजी ने उनके बर्तनों को मक्का से लाकर दिया, जिस कारण उन्होंने रामदेवजी को पीरों का पीर कहा था । रत्ना रायका, लंकी बंजारा, हरजी भाटी आदि रामदेवजी के सेवक व सहयोगी थे।
(लोकदेवता )
हरजी भाटी औसियाँ (जोधपुर) के थे, जिन्हें रामदेवजी ने परचा दिया था, तो वहीं हरजी भाटी ने आगम पुराण, भादरवा री मैमा, गऊ पुराण, मूलारम री वीरता ग्रन्थों की रचना की। सातलमेर कस्बे में रामदेवजी ने भैरव राक्षस का वध कर सांतलमेर का नाम पोकरण किया तथा पोकरण अपनी बहिन सुगणा को दिया। सुगणा की शादी पूंगलगढ़ (बीकानेर) के विजयसिंह के साथ हुई थी।
ध्यातव्य रहे- मेवाड़ महाराणा कुम्भा की पुत्री रमाबाई की शादी भी पूंगलगढ़ में हुई थी।
मांगलिया मेहाजी
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इनका जन्म 14वीं सदी में भाद्रपद कृष्णा अष्टमी (जन्माष्टमी) को हुआ था। इनके पिता का नाम गोपलराव सांखला था तथा इनका पालन-पोषण ननिहाल में हुआ, जो मांगलिया गौत्र के थे। यह पंच पीरों में से एक पीर हैं। यह कामड़िया पंथ से दीक्षित थे। ये जैसलमेर फौज की तरफ से राव राणंगदेव भाटी के विरूद्ध लड़ते हुये वीरगति को प्राप्त हुये।
इनका मुख्य मन्दिर बापणी (जोधपुर) नामक गाँव में है। जहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्ण अष्टमी (कृष्ण जन्माष्टमी) को मेला लगता है। इनका घोड़ा “किरड़ काबरा” है। इन्होंने राव चूड़ा को तलवार भेंट की थी। मेहाजी के पुजारी के संतान नहीं होती है और वे पुत्र गोद लेकर अपना वंश चलाते हैं।
लोकदेवता – गोगाजी
गौरक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले और सर्पदंश से मुक्तिदाता माने जाने वाले राजस्थान के पंच पीरों में से एक पीर गोगाजी है। इन्हें गौरक्षक देवता / साँपों का देवता / हिन्दू इन्हें नागराज / मुसलमान इन्हें गोगा पीर / महमूद गजनबी ने जाहरपीर आदि नामों से पुकारा है।
इनका जन्म ददरेवा गाँव (चुरू) में भाद्रपद कृष्ण नवमी को वि.सं. 1003 में चौहान गौत्र की राजपूत जाति में हुआ। गोरखनाथ जी ने गोगाजी की माता बांछल को गुग्गुल फल दिया, जिससे गोगाजी का जन्म हुआ। इनके पिता-जेवर, माता बाछल, पत्नी-केलमदे (पाबूजी की भतीजी), गुरू गोरखनाथ, पुत्र-केसरिया जी, गोगाजी की सवारी – नीली घोड़ी जिसे ‘गौगा बाप्पा’ कहते हैं, गोगाजी के मुस्लिम पुजारी – चायल कहलाते थे।
गोगामेड़ी में गोगाजी के मंदिर में 1 माह पुजारी हिन्दू व 11 माह पुजारी कायमखानी मुस्लिम पूजा करते हैं। गोगाजी के वंशज कर्मसिंह/कायमसिंह को मुस्लिम बनाया गया, जिसके वंशज कायमखानी मुस्लिम कहलाये। गोगाजी के लिए गांव-गांव खेजड़ी गाँव-गाँव गोगाजी की कहावत प्रसिद्ध है। (लोकदेवता )
इनका थान खेजड़ी वृक्ष के नीचे होता है। इन्होंने महमूद गजनवी से युद्ध किया था। ये अपने मौसेरे भाईयों अर्जन व सर्जन से गौरक्षार्थ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए है। इनका सिर ददरेवा (चुरू) में गिरा अतः वह शीर्षमेड़ी या सिद्धमेड़ी व धड़ गोगामेड़ी (नोहर-हनुमानगढ़) में गिरा अत: इसे धुरमेड़ी कहते हैं। (लोकदेवता )
गोगामेड़ी में मन्दिर का निर्माण मकबरेनुमा आकृति में फिरोज शाह तुगलक ने करवाया जिस पर बिस्मिल्लाह अंकित है। इसका वर्तमान स्वरूप गंगासिंह ने दिया। गोगामेड़ी पर भाद्रपद कृष्ण नवमी को मेला भरता है, तो दूसरा मेला गोगाजी की ओल्ड़ी-किलौरियों की ढ़ाणी (सांचोर-जालौर) भरता है । (लोकदेवता )
प्रत्येक किसान खेत की जुताई शुरु करते समय हल व हाली के ‘गोगा राखड़ी’ बाँधते हैं, जिसमें नौ गाँठे होती है। ध्यान रहे- जनश्रुति के अनुसार इनका विवाह-कोलूमण्ड की राजकुमारी एवं पाबूजी की भतीजी केमलदे के साथ तय हुआ।
विवाह के पूर्व केमलदे को सर्प ने डस लिया, तब गोगाजी ने मंत्र पढ़े, जिससे सभी प्रकार के साँप व नाग कड़ाह में आकर गिरने लगे तथा उबलते तेल में मरने लगे तब स्वयं नाग देवता प्रकट हुए एवं केमलदे के जहर को निकाला तथा गोगाजी को नागों का देवता होने का वरदान दे दिया। गोगाजी की प्रथम शादी उत्तरप्रदेश के सिदया कजरीवन की पुत्री सुरीयल से हुई थी।
लोकदेवता – केसरिया कुँवरजी
ये गोगाजी के पुत्र हैं, जिनकी पूजा भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को होती है। इनके थान पर सफेद रंग की चादर चढ़ाई जाती है। इनके भोपा सर्पदंश को मुंह द्वारा जहर चूसकर दूर करते हैं।
लोकदेवता – मल्लीनाथ जी
इनका जन्म तलवाड़ा में 1358 ई. में (मारवाड़) में हुआ। इनके
पिता-रावतीड़ा जी, माता जीणादे, पत्नी-रूपादे की प्रेरणा से गुरू- उगमसी भाटी को बनाया। इनकी पत्नी रूपादे का मंदिर तिलवाड़ा के पास मालाजाल गाँव में है। मल्लीनाथ के नाम पर बाड़मेर का नाम | मालाणी क्षेत्र पड़ा।
इन्होंने लूनी नदी के तट पर तिलवाड़ा (यहाँ उनका मंदिर बना हुआ है) नामक स्थान पर समाधि ली। जहाँ प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण एकादशी से चैत्र शुक्ल एकादशी तक पशु मेला लगता। है, जो राजस्थान का सबसे पुराना पशु मेला है, जिसमें थारपारकर व कांकरेज गायों का सर्वाधिक क्रय-विक्रय होता है।
मल्लीनाथ जी ने 1378 में फिरोजशाह तुगलक के सेनानायक निजामुद्दीन की सेना को पराजित किया। सिद्धपुरुष, सूरवीर, चमत्कारी पुरुष मल्लीनाथ को कहा जाता है, जिन्होंने 1399 में कुण्डा पंथ की स्थापना की थी, तो वहीं 1394 में इन्होंने अपने भतीजे राव चूड़ा की मण्डौर विजय में सहायता की थी।
लोकदेवता – तल्लीनाथ जी
इनका जन्म शेरगढ़ (जोधपुर) में हुआ। इनका वास्तविक नाम • गांगदेव राठौड़ (यह नाम गुरु जालंधरनाथ ने दिया था। इनके पिता- वीरमदेव, भाई- रावचूड़ा, गुरू जालंधर नाथ थे। यह जालौर क्षेत्र के लोकदेवता है, जिनका जालौर के पाँचोटा गाँव (जालौर) में पंचमुखी पहाड़ी पर पूजा स्थल है।
राजस्थान के एकमात्र लोकदेवता जिन्होंने वृक्ष काटने पर रोक लगाई थी, इसी कारण इन्हें ओरण का देवता कहते हैं। जहरीला कीड़ा काटने पर इनके मंदिर में इलाज होता है।
लोकदेवता – देवनारायण जी
देवनारायण जी का जन्म 1243 ई. में आसींद (मालासेरी डूंगरी, भीलवाड़ा) में बगड़ावत गुर्जर परिवार में हुआ । इनके बचपन का नाम उदयसिंह था। बचपन में भिनाई के शासक ने इनके पिता की हत्या कर दी तब यह अपनी माँ के साथ देवास (मध्यप्रदेश) क्षेत्र में पले-बढ़े तथा वहीं रहते हुए आयुर्वेद (जड़ी-बूटियों) का ज्ञान प्राप्त किया और उसी ज्ञान के बल पर इनका विवाह धार के शासक जयसिंह की पुत्री पीपलदे के साथ हुआ। इन्हें गुर्जर जाति विष्णु का अवतार / आयुर्वेद ज्ञाता आदि नामों से पुकारते हैं। (लोकदेवता )
यह एक मात्र लोकदेवता है जिन पर भारतीय डाक विभाग द्वारा 2 सितम्बर, 1992 को 5 रु. का डाक टिकट जारी किया गया। (लोकदेवता )
इनका जन्म मालासेरी गाँव-आसींद (भीलवाड़ा) में सवाई भोज (पिता) व सेडू खटाणी (माता) के घर हुआ। इनका घोड़ा-लीलागर, पत्नी-पीपलदे (धार नरेश जयसिंह की पुत्री)। इनकी गौरक्षार्थ भिनाय (अजमेर) के शासक से लड़ते हुए देवमाली (मसूदा – अजमेर) मृत्यु हुई। (लोकदेवता )
इनका मुख्य मन्दिर खारी नदी के किनारे आसींद (भीलवाड़ा) के पास गोठा दड़ावत में है, जहाँ उनकी मूर्ति की जगह पर बड़ी ईंटों की पूजा नीम की पत्तियों से कर छाछ-राबड़ी का प्रसाद चढ़ाते हैं, तो दूसरा मंदिर देवधाम जोधपुरिया (निवाई-टोंक) में मासी, बांडी व खारी नदी के संगम पर है। यहाँ पर प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को मेला भरता है। देवजी की डूंगरी (चित्तौड़) में देवनारायणजी के मंदिर का निर्माण राणा सांगा ने करवाया था।
राजस्थान की सबसे पुरानी, सबसे लम्बी व सबसे छोटी फड़ देवनारायण जी की है, जिसे पढ़ते समय देवनारायण जी के भोपे ‘जंतर’ संगीत वाद्य यंत्र का प्रयोग करते हैं। ध्यान रहे-देवनाराणजी को राज्य क्रांति का जनक माना जाता है।
लोकदेवता – झुंझार जी
इनका जन्म इमलोहा (नीमकाथाना-सीकर) नामक गाँव में हुआ। झुंझार जी का थान प्राय: खेजड़ी वृक्ष के नीचे होता है, स्यालोदड़ा गाँव (गौरक्षार्थ मृत्यु) में इनका पाँच स्तम्भ [ यहाँ 5 पत्थर की मूर्तियाँ लगी हुई है, जिसमें एक दुल्हा (स्वयं) एक दुल्हन व तीन इनके भाईयों की है] का मन्दिर है, जहाँ प्रतिवर्ष रामनवमी को मेला लगता है।
लोकदेवता – तेजाजी
ये राजस्थान के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लोकदेवता है। इन्हें धौलिया पीर / साँपों का देवता / काला और बाला का देवता / कृषि कार्यों का उपकारक देवता आदि नामों से जाना जाता है। इनका जन्म-खड़नाल गाँव (नागौर) में माघ शुक्ल चतुर्दशी के दिन हुआ। इनके पिता – ताहड़ जी, माता – राजकुंवर, पत्नी-पैमल (तेजाजी का ‘विवाह पनेर (अजमेर) निवासी रायचन्द्रजी की पुत्री पैमलदे के साथ हुआ था), घोड़ी – लीलण (इनकी मृत्यु की सूचना इसी ने दी थी। इनके पुजारी-घोड़ला, स्थान-थान, गीत-तेजा टेर कहलाते हैं। (लोकदेवता )
सैंदरिया तेजाजी का मूल स्थान है, यहीं पर तेजाजी को नागदेवता ने डसा था। परबतसर (नागौर) में प्रतिवर्ष तेजा दशमी / भाद्रपद शुक्ल दशमी को मेला लगता है, जो राजस्थान में आय की दृष्टि से सबसे बड़ा मेला है तथा यहां स्थित मंदिर की मूर्ति को जोधपुर शासक अभयसिंह के समय सुरसुरा से लाया गया था। (लोकदेवता )
तेजाजी का पवित्र तीर्थ स्थल बांसी (दुगारी, बूंदी) में स्थित है, तो सुरसुरा अजमेर में तेजाजी धाम है। सुरसुरा में 1103 ई. में तेजाजी का निधन हुआ था। यहाँ स्थित तेजाजी की मूर्ति को जागीर्ण/जागती जोत कहा जाता है। तेजाजी एक दिन अपने खेत में काम कर रहे थे, तो अपनी भाभी के खाना देरी से लेकर आने पर वे उनसे नाराज हो गये। उनकी भाभी ने उन्हें ताना देते हुए कहा कि अपनी पत्नी को क्यों नहीं ले आते, तो इस बात से नाराज होकर तेजाजी अपनी माँ से ससुराल का पता पूछकर पनेर (अजमेर) चले आते हैं। (लोकदेवता )
जब वह अपने ससुराल पहुंचे, तो उस समय उनकी सास दूध निकाल रही थी, तभी तेजाजी की घोड़ी के घर में प्रवेश करने से गाय उछल जाती है और दूध को गिरा देती है, जिससे तेजाजी की सास तेजाजी को गाली देती है और तेजाजी वहाँ से नाराज होकर वापस चले आते हैं। रात ज्यादा होने के कारण पनेर गांव में लाछा गूजरी के घर रूकते हैं। (लोकदेवता )
रात्रि के समय लाछा गूजरी की गायों । को मेर जाति चुरा ले जाती है और इस तरह तेजाजी ने अपनी पत्नी पैमल की सखी लाछा गूजरी की गायों को मेर (सिरोही) के मीणाओं से छुड़ाने हेतु अपने प्राणों की आहुति दी। तेजाजी को तलवार धारी अश्वारोही योद्धा के रूप में चित्रित किया जाता है। (लोकदेवता )
तेजाजी से संबंधित अन्य स्थल- माडवालिया (अजमेर) -यहाँ तेजाजी की। मेर जाति से लड़ाई हुई, भांवता (नागौर) – यहाँ पर सांप काटे व्यक्ति का गौमूत्र से इलाज होता है तथा पनेर (अजमेर) – यहां स्थित मंदिर में पुजारी माली होता है। तेजाजी के जन्म स्थल खड़नाल पर 5 रुपये का डाक टिकट जारी दिया गया है, तो वहीं लाछा गूजरी की छतरी नागौर में स्थित है। (लोकदेवता )
लोकदेवता – देव बाबा
मेवात क्षेत्र में ” ग्वालों के देवता / पशुपालकों के पालनहार” के नाम से प्रसिद्ध है क्योंकि इन्हें पशु चिकित्सा का अच्छा ज्ञान था। इन्हें राजी करने के लिए सात ग्वालों को भोजन कराना पड़ता है। इनका मुख्य पूजा स्थल नगला जहाज (भरतपुर) में है। जहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पंचमी व चैत्र शुक्ल पंचमी को दो बार मेला लगता है । इनका वाहन पाड़ा / भैंसा है तथा इन्होंने मृत्यु के बाद भी अपनी बहिन का भात भरा था।
लोकदेवता – बिग्गा जी
इनका जन्म रीडी गाँव (जाँगल प्रदेश-बीकानेर) में जाट परिवार में हुआ । इनके पिता राममोहन व माता – सुल्तानी थी। यह जाखड़ (जाट) समाज के कुल देवता है। गौरक्षार्थ इनकी मृत्यु हुई, जिसकी याद में प्रतिवर्ष बीकानेर की श्रीडूंगरगढ़ तहसील के बिग्गा गाँव में 14 अक्टूबर को मेला लगता है।
लोकदेवता – रूपनाथ जी
इनका जन्म कोलूमण्ड गाँव (जोधपुर) में हुआ। ये पाबूजी के भतीजे तथा पाबूजी के बड़े भाई बूढ़ोजी के पुत्र थे। इनकी हिमाचल प्रदेश में बालकनाथ के रूप में पूजा की जाती है। राजस्थान में सिभूदड़ा (नोखा, बीकानेर) व कोलूमण्ड (जोधपुर) में प्रमुख थान है।
लोकदेवता – इलोजी
हिरण्यकश्यप की बहिन होलिका के होने वाले पति थे, जिन्हें मारवाड़ क्षेत्र में “छेड़छाड़ के लोकदेवता” के रूप में पूजा जाता हैं। ये कुँवारे ही थे परन्तु महिलाएँ अच्छे पति व पुरुष अच्छी पत्नी प्राप्त करने के लिए इनकी पूजा करते हैं। प्रतिवर्ष होली पर बाड़मेर में | इनकी सवारी निकाली जाती है।
लोकदेवता – वीर फत्ता जी
इनका जन्म सांथू गाँव (जालौर) में गज्जारणी परिवार में हुआ। इनका मुख्य पूजा स्थल सांथू गाँव में है जहाँ भाद्रपद शुक्ल नवमी को मेला लगता है। लुटेरों से गांव की रक्षा करते हुये वीर फत्ताजी शहीद हुए।
लोकदेवता – हरिराम बाबा
इनका जन्म झोरड़ा गाँव (नागौर) में हुआ। इनके पिता- रामनारायण, माता-चंदणी देवी व गुरू-भूरा थे। सुजानगढ़ से नागौर मार्ग पर झोरडा गाँव में इनका मंदिर है। जहाँ इनकी मूर्ति की जगह साँप की बांबी एवं बाबा के प्रतीक के रूप में इनके चरण कमल की पूजा की जाती है। इनकी पूजा साँप रक्षक देवता के रूप में की जाती है। चैत्र शुक्ल चतुर्थी व भादवा शुक्ल चतुर्थी को इनका मेला भरता है ।
कल्ला जी राठौड़
इन्हें चार हाथों वाला देवता / शेषनाग का अवतार / केहर / कल्याण / कमधज / बालब्रह्मचारी / योगी आदि नामों से पुकारते हैं। इनका जन्म 1544 ई. में मारवाड़ के सामीयाना गाँव में मेड़ता के निवासी आससिंह के घर में हुआ। इनकी बुआ-मीरां बाई, चाचा- जयमल राठौड़, गुरू- भैरवनाथ, कुल देवी-नागणेची थी। इनकी मृत्यु चित्तौड़गढ़ के तीसरे साके 23 फरवरी, 1568 ई. में अकबर के विरूद्ध लड़ते हुये हुई। इनकी छतरी चित्तौड़गढ़ दुर्ग में है, तो इनकी सिद्ध पीठ ‘रनेला (सलूम्बर, उदयपुर) ‘नामक स्थान पर है। सामलियाँ (डूंगरपुर) में कल्ला राठौड़ की काले पत्थर की मूर्ति है ।
ध्यातव्य रहे-कल्लाजी की शादी शिवगढ़ के राव कृष्णदास की पुत्री कृष्णा से होनी थी, लेकिन शादी से पहले ही कल्लाजी वीरगति को प्राप्त हो गये। कल्लाजी की मृत्यु के बाद कृष्णा कल्लाजी पर सती हो गई।
लोकदेवता – पनराज जी
इनका जन्म नयागाँव (जैसलमेर) में हुआ। गौरक्षार्थ इनकी मृत्य हो गई। इनका मुख्य पूजा स्थल पनराजसर गाँव में है। जहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल दशमी व माघ शुक्ल दशमी को दो बार मेला लगता है। इन्होंने मुस्लिमों से ब्राह्मणों की गायों की रक्षा की थी।
लोकदेवता – भूरिया बाबा (गौतमेश्वर )
मीणा जाति इन्हें अपना इष्ट-देव मानती है। इनका मंदिर राजस्थान गौड़वाड़ क्षेत्र में अरावली पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य स्थित है। मीणा लोग कभी भी इनकी झूठी कसम नहीं खाते हैं। ये शौर्य के प्रतीक माने जाते हैं। इस मेले में वर्दीधारी पुलिसवालों का प्रवेश वर्जित है।
ध्यातव्य रहे- क्षेत्रपाल राजस्थान की संस्कृति में स्थान विशेष के देवता को कहते हैं। यह मुख्यतः ग्राम देवता होता है। क्षेत्रपाल के सर्वाधिक मन्दिर राजस्थान के डूंगरपुर जिले में पाये जाते हैं।
भूमि के रक्षक देवता भोमिया जी को कहते हैं, तो बरसात के देवता मामादेव को कहते हैं जिनका मंदिर नहीं होता केवल लकड़ी के तोरण की पूजा कर उसे भैंसे की बलि दी जाती है। वीर बावसी गौड़वाड़ क्षेत्र के आराध्य देव हैं, जो गौरक्षा के लिए बलिदान देने के कारण लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं तथा इनका मेला चैत्र शुक्ल पंचमी को भरता है।
लोकदेवता – आलमजी राठौड़ का मंदिर मालाणी (बाड़मेर) में है, तो वहीं बाड़मेर के ढांगी नामक स्थान को आलमजी का धोरा कहते हैं। गौतमेश्वर / भूरिया बाबा मीणाओं के आराध्य देव हैं, जिनका मंदिर अरणोद (सादड़ी, प्रतापगढ़) में है।
लोकदेवता – डूंगरजी-जवाहर जी बठोठ-पाटोदा (सीकर) के कछवाहा वंश के थे, जिन्होंने 1857 की क्रांति में भाग लेने के कारण अंग्रेजों ने पकड़कर आगरा किले के अंदर कैद कर दिया, जहाँ से ये करणीया मीणा व लोहिया जाट की मदद से निकले, तो वहीं इन्होंने आऊवा (पाली) छावनी को लूटा तथा ये सेठों की बालद (सामान से भरी गाड़ियाँ) लूटकर गरीबों में बांट देते थे।
-ये भी जानें-
बुड़ढ़ा जोहड़ (गंगानगर) ‘हिंदू-सिख सद्भावना का प्रतीक’, ख्वाजा साहब की दरगाह (अजमेर), ‘हिंदू-मुस्लिम सद्भावना का प्रतीक’, गोगामेड़ी (नौहर-हनुमानगढ़), ‘हिंदू-मुस्लिम सद्भावना का प्रतीक’, श्री महावीर जी, ऋषभदेव ‘हिंदू-जैन ‘सद्भावना का प्रतीक’ कहलाता है, तो ‘साम्प्रदायिकता का ‘प्रतीक’ रामदेवरा (जैसलमेर) है।