राजनीतिक जागरूकता

 
राजस्थान की भूमिका 1857 के विद्रोह में अन्य राज्यों की अपेक्षा इतनी ज्यादा सक्रिय नहीं रही, लेकिन फिर भी अंग्रेजों ने राजपूताना की रियासतों के शासकों के माध्यम से यह पूरा प्रयास किया कि यहाँ किसी भी प्रकार की राष्ट्रवादी भावना नहीं पनप सके, परन्तु राष्ट्रीय सोच में बदलाव के साथ ही देशी रियासतों में भी राष्ट्रवादी भावना ने जन्म लिया तथा जन-आन्दोलनों के द्वारा भी स्थानीय स्तर पर अपनी जगह बनाकर उत्तेजित माहौल का वातावरण तैयार किया गया |
 
तो वहीं राजपूताना के लोगों में स्वाधीन होने की प्रबल आकांक्षा किसी भी शक्ति के द्वारा बाधित नहीं हो सकी और 19वीं सदी के अन्त व 20वीं सदी में राजपूताना में तीव्र गति से राजनीतिक चेतना का विकास हुआ।(राजनीतिक जागरूकता)
 
किसानों में व्याप्त असंतोष व उनके आन्दोलनों की भी राजस्थान के राजनीतिक जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका रही। इंस समय किसानों पर जांगीरदारों द्वारा बहुत अत्याचार किये जा रहे थे, तो वहीं कृषि भूमि की माँग में वृद्धि, लाग-बाग की बढ़ती दरें व जागीरदारों की बढ़ती विलासिता का व्यय किसानों के ऊपर थोपा गया, जिससे किसानों में बढ़ते असंतोष द्वारा आन्दोलन का रूप ले लिया गया। बिजौलिया किसान आंदोलन, बेगूं किसान आन्दोलन, मारवाड़ में किसान आन्दोलन आदि यहाँ के किसानों के असंतोष की चरम अभिव्यक्ति थी। (राजनीतिक जागरूकता)
 
राजस्थान के क्रांतिकारियों के द्वारा भी राजनीतिक जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया। राज्य के प्रसिद्ध क्रांतिकारियों में केसरीसिंह बारहठ, अर्जुनलाल सेठी, गोपालसिंह खरवा, रामनारायण चौधरी, विजयसिंह पथिक (मूलतः उत्तरप्रदेश निवासी), श्यामजी कृष्ण वर्मा, सेठ जमनालाल बजाज, जारावर सिंह बारहठ, प्रतापसिंह बारहठ, सागरमल गोपा, हीरालाल शास्त्री, गोकुलभाई भट्ट, बालमुकुन्द बिस्सा, जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा, सेठ दामोदर दास राठी आदि का नाम उल्लेखनीय है, तो वहीं राजस्थान के क्रांतिकारियों के लिए पृष्ठभूमि श्यामजी कृष्ण वर्मा के द्वारा तैयार की गयी।
 
 
राजस्थान के क्रांतिकारियों के द्वारा भी राजनीतिक जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया। राज्य के प्रसिद्ध क्रांतिकारियों में केसरीसिंह बारहठ, अर्जुनलाल सेठी, गोपालसिंह खरवा, रामनारायण चौधरी, विजयसिंह पथिक (मूलतः उत्तरप्रदेश निवासी), श्यामजी कृष्ण वर्मा, सेठ जमनालाल बजाज, जारावर सिंह बारहठ, प्रतापसिंह बारहठ, सागरमल गोपा, हीरालाल शास्त्री, गोकुलभाई भट्ट, बालमुकुन्द बिस्सा, जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा, सेठ दामोदर दास राठी आदि का नाम उल्लेखनीय है, तो वहीं राजस्थान के क्रांतिकारियों के लिए पृष्ठभूमि श्यामजी कृष्ण वर्मा के द्वारा तैयार की गयी। (राजनीतिक जागरूकता)(राजनीतिक जागरूकता)(राजनीतिक जागरूकता)(राजनीतिक जागरूकता)
 
राजस्थान में मध्यम वर्ग की जनता ने भी राजनीतिक जनजागृति उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा जयनारायण व्यास, अर्जुनलाल सेठी, विजयसिंह पथिक, हीरालाल शास्त्री आदि इस वर्ग के प्रतिनिधि थे, जिन्होंने आन्दोलन को गति प्रदान की, तो वहीं आधुनिक शिक्षा के प्रसार से मध्यम वर्ग के शिक्षित नवयुवक लोकतंत्र, राष्ट्रवाद व स्वतंत्रता के महान आदर्शों से परिचित हुए और नेतृत्व शिक्षक, वकील व पत्रकार वर्ग से आया।(राजनीतिक जागरूकता)
 
राज्य में राजनीतिक चेतना के प्रसार में समाचार पत्रों का योगदान भी उल्लेखनीय है। विभिन्न समाचार पत्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर राजस्थान की समस्याओं तथा आन्दोलनों को उठाया एवं इनके लिए आम सहमति बनायी। इसी तरह जयनारायण व्यास, हीरालाल शास्त्री, केसरीसिंह बारहठ आदि की कविताओं की चरम सीमा परिलक्षित होती है। अर्जुनलाल सेठी की कृतियों ने वैचारिक क्रांति उत्पन्न कर दी, तो वहीं सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा रचित वीर सतसई वीर रस व स्वदेश प्रेम का अनूठा मिश्रण है। (राजनीतिक जागरूकता)
 
प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18 ई.) के समय राजपूताना की लगभग सभी रियासतों के द्वारा ब्रिटिश सरकार की मदद की गयी थी तथा जब ये सैनिक विश्व के अन्य देशों में युद्ध करने गये तो वहाँ की स्वतंत्रता के नये विचारों व आदर्शों से वे अत्यधिक प्रभावित हुए और स्वदेश लौटने पर उन सैनिकों ने अपने अनुभवों को जनसामान्य को बताकर स्वतंत्रता की भावना को प्रज्ज्वलित किया। इसके अलावा ब्रिटिश सरकार ने प्रथम विश्वयुद्ध का समस्त भार भारतीय जनता पर कर के रूप में लाद दिया गया, जिसके फलस्वरूप असंतोष अधिक पनपने लगा।
 
अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार द्वारा भी राजनीतिक चेतना के विकास में अपना योगदान दिया गया, तो वहीं आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोग सरकारी नौकरी प्राप्त करने के इच्छुक थे, परन्तु राजकीय सेवा में नियुक्ति भाई- भतीजावाद के आधार पर दी जाती थी। अतः शिक्षित वर्ग के लोगों में असंतोष फैलना स्वाभाविक था, क्योंकि ये स्वतंत्रता व समानता का पाठ पढ़ चुके थे।(राजनीतिक जागरूकता) 
 
राजपूताना इस समय शेष भारत में चल रही गतिविधियों से अनभिज्ञ नहीं था और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं व कार्यक्रमों का प्रभाव यहाँ भी पड़ा, तो वहीं राजपूताना में एक ओर हरिभाऊ उपाध्याय तथा “सेठ जमनालाल बजाज जैसे लोग गाँधीवादी नीतियों का अनुसरण कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर रासबिहारी बोस के विचारों से प्रेरित अर्जुनलाल सेठी, गोपालसिंह खरवा व बारहठ परिवार द्वारा स्वतंत्रता के विचारों की अलख जगायी जा रही थी। (राजनीतिक जागरूकता)
 
मेवाड़ महाराणा फतेहसिंह, भरतपुर महाराजा कृष्ण सिंह व अलवर महाराजा जयसिंह 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में राजपूताना के ऐसे शासक थे, जो अपनी प्रगतिशील व राष्ट्रीय विचारधारा एवं ब्रिटिश सरकार को राज्य के आंतरिक मामलों में दखल देने से रोकने के कारण ब्रिटिश सरकार के शिकार बने। अलवर महाराजा जयसिंह के द्वारा 1903 के आसपास बालविवाह, अनमेल विवाह व मृत्युभोज पर रोक लगा दी गयी थी तथा उसके द्वारा रियासत की राजभाषा हिन्दी को घोषित कर दिया गया और राज्य में पंचायतों का जाल बिछाया गया, तो वहीं उसने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय व सनातन धर्म कॉलेज (लाहौर) को वित्तीय सहायता प्रदान की। अतः अलवर महाराजा जयसिंह को निर्वासित होना पड़ा।
 
राजस्थान के राजनीतिक जागरण में महिलाओं की भूमिका भी उल्लेखनीय रही, जिनमें अजमेर की प्रकाशवती सिन्हा का नाम विशेष है, तो वहीं 1930-47 ई. के बीच अनेक महिलाएँ जेल गयी, जिनमें अंजना देवी, रतन शास्त्री, नारायणी देवी आदि प्रमुख हैं। ध्यान रहे- अंजना देवी रामनारायण चौधरी, रतन शास्त्री हीरालाल शास्त्री की तथा नारायणी देवी माणिक्यलाल वर्मा की पत्नी थी।
 
अगस्त क्रांति (1942 ई.) में छात्राओं ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन करते हुए रामपुरा (कोटा) पुलिस कोतवाली पर अधिकार कर लिया, तो वहीं डूंगरपुर में भील बालिका कालीबाई ने 19 जून, 1947 ई. को रास्तापाल में अपने शिक्षक सेंगाभाई को बचाते हुए शहादत प्राप्त की। राज्य में जनचेतना के विकास में रमादेवी पाण्डे, सुमित्रा देवी भार्गव, मनोरमा पण्डित, विजया बाई, प्रियंका चतुर्वेदी, विद्या देवी, गौतमी देवी भार्गव आदि का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा।
 
राजस्थान में सत्ता की निरंकुशता के विरूद्ध आवाज उठाने में व्यापारी वर्ग द्वारा भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की गयी और इस वर्ग ने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद कलकत्ता में एक प्रभावशाली मारवाड़ी मण्डल का विकास किया, जिसने राष्ट्रीय विचारधारा को प्रोत्साहित किया, तो वहीं व्यापारी वर्ग ने रियासतों में राजनीतिक चेतना जागृत करने में भी प्रमुख भूमिका निभाई, जिनमें बीकानेर रियासत में खूबराम सर्राफ व सत्यनारायण सर्राफ, जोधपुर रियासत में भँवरलाल सर्राफ, चाँदमल सुराणा व आनंदराज सुराणा तथा जयपुर रियासत में टीकाराम पालीवाल व गुलाबचंद कासलीवाल आदि प्रमुख है।
 
 
 
अजमेर स्थित ब्यावर के सेठ दामोदर राठी एक कुशल उद्योगपति थे, लेकिन राठी का राजनीतिक कार्यक्षेत्र अर्जुनलाल सेठी, राव गोपालसिंह खरवा, केसरीसिंह बारहठ, विजयसिंह पथिक के साथ था, तो वहीं राठीजी हिन्दी के बड़ प्रशंसक थे और उन्होंने 1914 ई. में अपनी कृष्णा मिल के बहीखातों का तथा अन्य सम्पूर्ण कार्य हिन्दी में करने का संकल्प किया। दामोदर राठी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष अमृतलाल चक्रवर्ती की प्रेरणा से ब्यावर में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की और अजमेर-मेरवाड़ा की अदालतों ने नागरी लिपि व हिन्दी के प्रयोग के लिए आंदोलन चलाया, तो वहीं इस प्रकार दामोदर राठी द्वारा उद्योगपति एवं व्यवसाय होने के बावजूद स्वभाषा के प्रयोग सहित स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग को बढ़ावा देकर राष्ट्र प्रेम की भावना का पोषण किया गया। (राजनीतिक जागरूकता)
 
कवियों ने भी अपने लोकगीतों के माध्यम से जनसामान्य को जागृत करने का कार्य किया और इन लोकगीतों को स्थानीय भाषाओं •में वहाँ के स्थानीय कवियों व गीतकारों के द्वारा रचा गया, जिनमें भरतपुर के हुलासी का नाम प्रमुख माना जाता है, जिन्होंने वीर रस के गीतों के माध्यम से अंग्रेजों का विरोध किया था। साथ ही भरतपुर के ही पूर्णसिंह की रचनाओं ने भी जनसामान्य को जागृत करने में बहुत योगदान दिया, तो वहीं पूर्णसिंह ग्रामीण कवि होने के साथ-साथ कर्मठ कार्यकर्त्ता भी थे और उन्होंने 1939-47 ई. तक जितने भी आंदोलन हुए, उनमें सक्रियता से भाग लिया था। बूंदी के सूर्यमल्ल मिश्रण (1815-68 ई.) व भारवाड़ के शंकरदान सामौर (1924- 78 ई.) का नाम भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
 
दलितों की स्वतंत्रता आन्दोलन में भूमिका उनकी सामाजिक व राजनीतिक जागृति का प्रतीक थी और उन्होंने प्रजामण्डल आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेकर राजनीतिक जनजागरण को विस्तृत सामाजिक आधार प्रदान किया। 1920-34 ई. के मध्य दलितों ने अजमेर-मेरवाड़ा के राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। राजपूताना की दलित जातियों में सामाजिक व राजनीतिक जागृति के चिह्न दिखाई देते है, जिसका विशेष कारण यह था कि कोटा, जयपुर, भरतपुर व धौलपुर रियासतों में दलितों का बाहुल्य था | (राजनीतिक जागरूकता)
 
तथा इन राज्यों में इन्होंने सामाजिक व राजनीतिक आन्दोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई और इसी कारण इन राज्यों के द्वारा दलितों की माँगों की तरफ ध्यान दिया गया था, तो वहीं बैरवा जाति के द्वारा 1945-46 ई. में उणियारा में नागरिक असमानता विरोधी आंदोलन चलाकर अपनी सक्रियता का परिचय दिया गया था।
 

राजस्थान में कांग्रेस की स्थापना

 
राजस्थान में कांग्रेस की स्थापना 1887 ई. में राजकीय महाविद्यालय अजमेर के छात्रों द्वारा की गयी थी, जिसके प्रमुख सदस्य रामगोपाल कायस्थ, फतेहचन्द खूबिया, हरबिलास शारदा आदि थे। अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1888 ई. में इलाहबाद अधिवेशन में पहली बार अजमेर का प्रतिनिधि मण्डल शामिल हुआ, जिसका नेतृत्व गोपीनाथ माथुर व किशनलाल द्वारा किया गया, तो वहीं प्रारम्भ में कांग्रेस ने देशी रियासतों के प्रति तटस्थ रहने की नीति अपनाई लेकिन महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन शुरू होने पर राजस्थान में भी इसका प्रभाव बढ़ता चला गया। 
 
 

क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रभाव

 
राजस्थान में क्रांतिकारी गतिविधियों की शुरूआत स्वदेशी आन्दोलन (1905 ई.) से मानी जाती है, तो वहीं राष्ट्रीय स्तर के क्रांतिकारियों रासबिहारी बोस, अरविन्द घोष, बाल मुकुंद, शचीन्द्रनाथ सान्याल तथा मास्टर अमीरचन्द ने राजस्थान के उत्साही व्यक्तियों से सम्पर्क कर उनमें क्रांतिकारी विचारों का संचार किया। राजस्थान के क्रांतिकारियों का नेतृत्व अर्जुनलाल सेठी, केसरीसिंह बारहठ, राव गोपाल सिंह खरवा, रामनारायण चौधरी, विजय सिंह पथिक आदि के द्वारा किया गया।
 
1907 ई. में कन्हैया लाल ढूँढ तथा गोपाल दास के द्वारा चुरू में सर्वहितकारिणी सभा का गठन किया गया, जिसके द्वारा लड़कियों की शिक्षा के लिए पुत्री पाठशाला तथा अछूतों की शिक्षा के लिए कबीर पाठशाला का गठन किया गया। जयपुर में क्रांतिकारी गतिविधियों हेतु क्रांतिकारियों को तैयार करने का काम अर्जुनलाल सेठी के द्वारा किया गया था। अर्जुनलाल सेठी जी ने 1907 ई. के सूरत कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया था।
 
अर्जुनलाल सेठी ने क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने के लिए 1908 ई. में जयपुर में वर्धमान पाठशाला की स्थापना की थी, तो वहीं यहाँ पूरे देश के विधार्थी क्रांति की शिक्षा प्राप्त करने आते थे। 1914 ई. में बनारस के पास निमाज महंत की हत्या के आरोप में सेठी जी को मद्रास की वेल्लूर जेल में डाल दिया गया, जहाँ उन्होंने आमरण अनशन किया, तो वहीं 1920 ई. में जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने अपना शेष जीवन अजमेर दरगाह में अध्यापन में बिताया। 1909 ई. में राजस्थान के शासकों को वायसराय लॉर्ड मिन्टो के द्वारा अपनी-अपनी रियासतों में क्रांतिकारी साहित्य व समाचार-पत्रों पर रोक लगाने तथा गतिविधियों को कुचलने के आदेश दिए गए थे।
 
राजस्थान के क्रांतिकारियों का जनक शाहपुरा (भीलवाड़ा) का बारहठ परिवार माना जाता है, तो वहीं 1903 ई. में केसरी सिंह बारहठ ने चेतावनी रा चूंगट्या नामक 13 सोरठे मेवाड़ महाराणा फतेहसिंह को लिखकर भेजे जिसके कारण महाराणा ने दिल्ली दरबार में भाग नहीं लिया था। क्रांतिकारी गतिविधियों के व्यापक प्रसार के लिये 1910 ई. में केसरीसिंह बारहठ ने राजपूताने में वीर भारत सभा (अभिनव भारत की शाखा) का गठन किया, तो वहीं सशस्त्र क्रांति के लिए क्षत्रिय वर्ग का सहयोग प्राप्त करने के लिए केसरी सिंह बारहठ ने छात्र शिक्षा परिषद् के गठन की योजना बनाई । (राजनीतिक जागरूकता)
 
क्रांतिकारी गतिविधियों हेतु धन जुटाने के लिए 1912 ई. में केसरीसिंह बारहठ ने अपने साथियों के साथ मिलकर कोटा के महन्त साधु प्यारेलाल की हत्या कर दी और इस केस में उनको 20 साल की सजा हुई तथा उनको हजारीबाग जेल (बिहार) में रखा गया, लेकिन 1919 ई. में उनको जेल से मुक्त कर दिया गया। उल्लेखनीय है कि जेल से रिहा होने के बाद केसरीसिंह बारहठ जब कोटा पहुँचे तो उनको अपने पुत्र प्रतापसिंह बारहठ की शहादत का समाचार मिला। केसरीसिंह बारहठ 1920 ई. में वर्धा में महात्मा गाँधी से मिले और कांग्रेस के 1920 ई. के कलकत्ता अधिवेशन में उन्होंने भाग लिया, तो वहीं 1922 ई. में केसरीसिंह बारहठ की हवेली व जागीर को जब्त कर लिया गया था।
 
दिसम्बर, 1912 ई. में बारहठ परिवार के ही ठाकुर जोरावर सिंह व कुँवर प्रताप सिंह ने दिल्ली में हॉर्डिंग बम केस में प्रमुखता से भाग लिया, तो वहीं जोरावर सिंह आजीवन फरार रहे तथा कुँवर प्रताप सिंह बरेली जेल में यातनाओं को सहते हुए शहीद हो गये। खरवा ठाकुर गोपालसिंह आर्य समाज एवं स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों से प्रभावित थे तथा वे रासबिहारी बोस व बंगाल के क्रांतिकारियों से सम्पर्क में आने पर सशस्त्र क्रांति के माध्यम से स्वाधीनता प्राप्ति के उद्देश्य में लग गये, तो वही गोपाल सिंह खरवा ने ही फरवरी, 1915 ई. में राजस्थान में सशस्त्र क्रांति का खरवा ने ही फरवरी, 1915 ई. में राजस्थान में सशस्त्र क्रांति का उत्तरदायित्व लिया, परंतु योजना योजना असफल होने पर उनको टॉडगढ़ जेल में बंद कर दिया गया,
 
जहाँ से वे फरार हो गये लेकिन उनको पुनः बन्दी बनाकर अजमेर जेल में बंद कर दिया गया। 1915 ई. में जयपुर में रामनारायण चौधरी, उमरावमल जैन ने ‘साइक्लोस्टाइल’ पर्ची के द्वारा अंग्रेज विरोधी वातावरण का निर्माण किया।
 
1912 ई. में भारत के गर्वनर जनरल हार्डिंग्स के जुलूस पर बम फेंके जाने की घटना का संबंध सेठीज़ी से जोड़ा जाता हैं। काकोरी कांड के मुख्य आरोपी अशफाक उल्ला खां को अर्जुनलाल सेठी ने ही राजस्थान में छुपाया, तो वहीं क्रांतिकारियों के भामाशाह ब्यावर के सेठ दामोदरदास राठी ने क्रांतिकारियों की आर्थिक सहायता की तथा 21 जनवरी, 1915 ई. को सशस्त्र क्रांति हेतु धन उपलब्ध करवाया। दामोदरदास राठी जी स्वदेशी के प्रबल समर्थक थे तथा इन्होंने अनेक क्रांतिकारियों को शरण दी। 1919 ई. में विजय सिंह पथिक, हरिभाई किंकर के द्वारा गाँधीजी की प्रेरणा पर वर्धा (महाराष्ट्र) में राजस्थान सेवा संघ की स्थापना की गई, जिसका प्रमुख उद्देश्य रियासतों में चल रहे आंदोलनों को गति प्रदान करना था ।
 
इस संस्था के द्वारा राजस्थान केसरी नामक समाचार पत्र प्रकाशित किया गया तथा इसका मुख्यालय वर्धा (महाराष्ट्र) को बनाया गया, लेकिन राजस्थान में इसका मुख्यालय अजमेर बनाया गया। मध्य भारत के कुछ उत्साहित नवयुवकों द्वारा जिनमें गणेश शंकर विद्यार्थी, चाँद करण शारदा (इनके द्वारा विधवा विवाह एवं दलितोद्धार नामक पुस्तकों की रचना की गई), विजय सिंह पथिक, रामनारायण चौधरी, सेठ जमनालाल बजाज के द्वारा भारतीय जनता को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से परिचित करवाने, शासकों एवं जागीरदारों के विरूद्ध जनता में जागृति उत्पन्न करने के उद्देश्य से राजपूताना मध्य भारत सभा नामक संस्था का गठन किया गया तथा इस संस्था का प्रथम अधिवेशन दिल्ली में 1919 ई. सेठ जमनालाल बजाज की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। (राजनीतिक जागरूकता)
 
इसका मुख्यालय अजमेर था। 1927 ई. में सेठ जमनालाल बजाज के द्वारा चरखा संघ की स्थापना की गई तथा इसके माध्यम से सामाजिक चेतना जागृत करने का प्रयास किया गया। (राजनीतिक जागरूकता)
 
1927 ई. में बम्बई में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् का गठन किया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य रियासतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था। अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् का प्रथम अधिवेशन 18 दिसम्बर, 1927 को दीवान बहादुर रामचन्द्र राव की अध्यक्षता में बम्बई में हुआ तथा इसके उपाध्यक्ष विजय सिंह पथिक को बनाया गया। इस लोक परिषद का मध्य भारत का मंत्री राम नारायण चौधरी को बनाया गया। इस परिषद की कार्यकारिणी में त्रिलोक चन्द माथुर (करौली), रामदेव पोद्दार (बीकानेर), कन्हैया लाल कलत्री (जोधपुर) से शामिल किये गये।
 
 
1919 ई. के बाद राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी जी के पदार्पण के उग्र क्रांतिकारियों का रूझान भी गांधीवादी विचारधारा की तरफ होने लगा और चिरंजीलाल शर्मा ने 1931 ई. में क्रांतिकारी दल की स्थापना की तथा बम बनाने की योजना बनायी, तो वहीं ज्वाला प्रसाद शर्मा, कुमारानंद तथा बाबा नृसिंह दास ने एक दल बनाया और अर्जुनलाल सेठी तथा विजयसिंह पथिक इनके मार्गदर्शक थे। (राजनीतिक जागरूकता)
 
अप्रैल, 1932 ई. में रामचन्द्र बापट ने अजमेर चीफ कमिश्नर पर कोर्ट में गोली चलाई, जिसमें बापट को 10 वर्षों की सजा हुई, तो वहीं 1934 ई. में ज्वाला प्रसाद ने वायसराय के बीकानेर आगमन पर उसकी हत्या की योजना बनाई लेकिन यह योजना असफल रही। अप्रैल, 1935 में ज्वाला प्रसाद ने अजमेर पुलिस अधीक्षक डोगरा पर गोली चलाई तथा इन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया और इसके बाद अजमेर में क्रांतिकारी संगठन समाप्त हो गया। स्वामी गोपालदास ने बीकानेर राज्य के चूरू क्षेत्र में स्वतंत्रता की अलख जगाई और हितकारिणी सभा की स्थापना के साथ-साथ उन्होंने शिक्षा की प्रगति के लिए कार्य किये।
 
दूसरे गोलमेज सम्मेलन में जब बीकानेर महाराजा के विरूद्ध अखिल भारतीय देशी राज्य लोकपरिषद् के कार्यकर्त्ताओं ने पर्चे बांटे तो स्वदेश लौटकर महाराजा ने सभी नेताओं के विरूद्ध मुकदमे चलाकर उन्हें बंदी बना लिया, जिनमें गोपालदास स्वामी भी शामिल थे। 16 जनवरी, 1930 ई. को चंदनमल बहड़ एवं स्वामी गोपालदास ने अपने साथियों सहित चूरू के धर्म स्तूप पर (लाल घण्टाघर) तिरंगा झण्डा फहराया।
 
अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् का सातवाँ अधिवेशन दिसम्बर, 1945 से जनवरी, 1946 तक माणिक्यलाल वर्मा के प्रयासों से उदयपुर में आयोजित किया गया तथा इसकी अध्यक्षता पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा की गई। पं. मोतीलाल का संबंध खेतड़ी (झुंझुनूं) से रहा है, जहाँ उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की।
 
अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् का अंतिम अधिवेशन राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन के साथ 1948 ई. में पट्टाभि सीतारमैया की अध्यक्षता में जयपुर में हुआ तथा इस अधिवेशन में इस परिषद् का विलय राष्ट्रीय कांग्रेस में कर दिया गया। इन सभी क्रांतिकारी गतिविधियों की विशेष बात यह थी कि ये सामाजिक सुधार व शिक्षा के प्रचार के साथ समानांतर रूप से चल रही थी। राजनीतिक हत्याएं धन सामग्री जुटाने व प्रभाव बढ़ाने का माध्यम थी। क्रांतिकारियों “का आंदोलन जन साधारण में विशेष रूप से नहीं फैल पाया था फिर भी अंग्रेजों के दमन को उजागर करने में क्रांतिकारी सफल रहे। (राजनीतिक जागरूकता)

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