बाल-विकास / child development

बाल-विकास बाल-मनोविज्ञान की ही एक शाखा है, जो बालकों के विकास, व्यवहार को प्रभावित करने वाले विभिन्न तत्वों का अध्ययन करती है।

बाल-विकास के क्षेत्र (Scope of child Development) 

बाल-विकास का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक और विस्तृत है। यह बालक के विकास के सभी आयामों, स्वरूपों, असामान्यताओं, शारीरिक व मानसिक परिवर्तनों तथा उनको प्रभावित करने वाले तत्वों, जैसे— परिपक्वता और शिक्षण, वंशानुक्रम और वातावरण आदि सभी का अध्ययन करता है। वर्तमान समय में इस विषय का दिन-प्रतिदिन विस्तार बढ़ता जा रहा है। बाल-विकास के विषय-क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें सम्मिलित की जाती हैं—

(1) बाल-विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन (Study of various stages of child development)- जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि बाल-विकास का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक और विस्तृत है। वह बालक के विकास के सभी आयामों, स्वरूपों, असामान्यताओं, शारीरिक परिवर्तनों, मानसिक परिवर्तनों तथा उन्हें प्रभावित करने वाले कारको, जैसे—परिपक्वता और शिक्षण, वंशानुक्रम और वातावरण आदि सभी का अध्ययन करता है। प्राणी के जीवनकाल में अनेकों अवस्थाएँ होती हैं, जैसे—बाल्यावस्था, शैशवावस्था, और किशोरावस्था तथा गर्भावस्था आदि । बाल-विकास में केवल बाल्यावस्था का ही नहीं अपितु विकास-क्रम की सभी अवस्थाओं के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, बौद्धिक आदि सभी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है। विकास क्रम की प्रत्येक अवस्था स्वयं में अत्यन्त महत्वपूर्ण होती हैं। नई परिस्थितियों के साथ समायोजन करने के लिए बालक अपने व्यवहार प्रतिमानों में कुछ-न-कुछ परिवर्तन करता है, फलस्वरूप प्रत्येक अवस्था में पहुँचने पर बालक की शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का स्वरूप भी बदल जाता है। इसी कारण से बाल-विकास प्रत्येक अवस्था की विशेषताओं, क्षमताओं और व्यवहारों का अध्ययन करता है, साथ ही समायोजन समस्याओं को हल करने के लिए उचित मार्गदर्शन भी करता है। इस प्रकार, बाल-विकास जन्म-पूर्व से लेकर जीवन-पर्यन्त तक होने वाली सभी अवस्थाओं के विकास-क्रम का विस्तृत अध्ययन करता है।

(2) बाल-विकास को प्रभावित करने वाले तत्वों का अध्ययन (Study of various factors affecting child development)- बाल-विकास में उन सभी तत्वों का अध्ययन किया जाता है, जो बालक के विकास को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष किसी भी रूप से प्रभावित करते हैं। ‘वंश परम्परा’ और ‘वातावरण’ तथा ‘परिपक्वता’ और ‘शिक्षण’ का बालक के विकास पर प्रमुख रूप से प्रभाव पड़ता है। बाल-विकास की प्रक्रिया में इन तत्वों के कारण बालक का व्यक्तित्व एक विशेष रूप ग्रहण कर लेता है। वंश परम्परा के द्वारा गर्भाधान के समय ही बालकों को उनके माता-पिता तथा पूर्वजों के विभिन्न शारीरिक व मानसिक गुण, योग्यताएँ व क्षमताएँ विरासत में मिल जाती हैं, जिनका प्रभाव जन्म के बाद से आजीवन तक बालक के विकास के विभिन्न पक्षों पर पड़ता है। जन्म के बाद बालक के विकास को प्रभावित करने वाले तत्व वातावरणीय होते हैं। ये तत्व भी प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से निरन्तर बालक के विकास को विभिन्न रूपों में प्रभावित करते रहते हैं। इन तत्वों का परिवार, पास-पड़ोस, समाज, विद्यालय, संस्कृति तथा समाजीकरण की प्रक्रिया पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है। बाल-विकास को सामान्य एवं असामान्य दोनों प्रकार के वातावरण प्रभावित करते हैं। बालकों की अपराध प्रवृत्ति, व्यक्तित्व विघटन, बालकों में गलत आदतों की उत्पत्ति तथा समायोजन की समस्याएँ आदि सभी अनुपयुक्त और दूषित वातावरण के कारण ही उत्पन्न होती है। परिपक्वता और शिक्षण का भी बाल-विकास पर समुचित प्रभाव पड़ता है। अन्तर केवल इतना होता है कि परिपक्वता उसे आन्तरिक रूप से तथा शिक्षण बाह्य रूप से प्रभावित करता है, किन्तु बालक के यथोचित विकास के लिए इन दोनों का ही होना आवश्यक होता है |

(3) बाल-विका स के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन (Study of various aspects of child development) – बाल-विकास किसी एक ही क्षेत्र विशेष से सम्बन्धित नहीं है। इसके अन्तर्गत विकास के विभिन्न पहलुओं, जैसे—शारीरिक एवं मानसिक विकास, सामाजिक विकास, क्रियात्मक विकास, भाषा विकास, नैतिक तथा चारित्रिक विकास तथा व्यक्तित्व विकास सभी का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया जाता है।

(4) मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अध्ययन (Study of mental Hygiene) – बाल-विकास केवल मानसिक रोगो और दुर्बलताओं का ही अध्ययन नहीं करता, बल्कि अनेक मनोवैज्ञानिक तरीकों से उनके उपचार की व्यवस्था भी करता है। वास्तव में, बाल-मनोविज्ञान तथा बाल-विकास के कारण ही मनोचिकित्सा का जन्म हुआ है।

(5) बाल-व्यवहारों और अन्त:क्रियाओं का वर्णन (Study of child development and interactions) – प्राणी गतिशील व सामाजिक होता है। अपनी आयु के विभिन्न स्तरों पर वह अपने समायोजन के लिए अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों , जैसे—परिवार के सदस्य, पड़ोसी, अन्य सम्बन्धी, सहपाठी, खेल-कूद के साथी, मित्रगण और समाज में अन्य परिचितों के साथ अन्त:क्रियाएँ करता रहता है। बाल-विकास की विभिन्न अवस्थाओं में होने वाली बालक की विभिन्न अन्त:क्रियाओं का अध्ययन करके वह यह जानने की कोशिश करता है कि ये क्रियाएँ कौन-सी है, इनसे बालकों के व्यवहार में क्या परिवर्तन होते हैं तथा ये परिवर्तन समा योजन में सहायक हैं अथवा बाधक। बालक के समुचित विकास तथा समायोजन के लिए ये अन्त:क्रियाएँ अत्यन्त आवश्यक है। यदि कोई बालक निर्धारित आयु स्तर पर ये अन्त:क्रिया एँ नहीं करता है, तब भी बाल-विकास उन कारणों को जानने का प्रयास करता है जिन्होने अन्त:क्रियाओं में अवरोध उत्पन्न किया।

(6) बालकों की विभिन्न असामान्यताओं का अध्ययन (Study of various abnormalities of children) –

बाल-विकास के अन्तर्गत केवल सामान्य बालकों के विकास का ही अध्ययन नहीं किया जाता, बल्कि बालकों के जीवन व विकास-क्रम में होने वाली असामान्यताओं तथा विकृतियों का भी अध्ययन किया जाता है। बाल-विकास, असन्तुलित व्यवहारों, मानसिक विकारों, बौद्धिक दुर्बलताओं तथा बाल—अपराध के कारणों को जानने का प्रयत्न करता है और उसका निदान भी बताता है।

(7) बालकों की रूचियों का अध्ययन (Study of children’s interests) – बाल-विकास बालकों की रूचियों का अध्ययन कर उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करता है। रूचियाँ जन्मजात नहीं होती, वरन् वे एक प्रकार का अर्जित व्यवहार हैं जो बालक धीरे-धीरे सीखता और स्वयं में ग्रहण करता है। रूचियाँ कार्य की प्रगति में प्रेरणा का कार्य करती है और बालक की लक्ष्य की पूर्ति को सरल बनाती है। यदि बालकों को किसी भी कार्य में रूचि होती है तो वे उस कार्य को शीघ्रता, निपुणता एवं सरलता से कर लेते हैं। इसके विपरीत, अरोचक कार्यों को बालक जबरदस्ती और भार मानकर उन्हें सीधे ढंग से देर-सवेर सम्पन्न करता है।

(8) बालकों की वैयक्तिक भिन्नताओं का अध्ययन (Study of Individual differences of children) – यद्यपि प्रत्येक आयु स्तर पर सभी बालकों का विकास समान रूप से नहीं हो पाता । एक ही आयु स्तर पर कुछ बालक अधिक लम्बे, कुछ नाटे तथा कुछ सामान्य लम्बाई के होते हैं अर्थात् इन बालकों का उसी आयु स्तर पर विभिन्न प्रकार का शारीरिक विकास होता है। इसी प्रकार, मानसिक विकास में भी कुछ प्रतिभाशाली मन्दबुद्धि होते है। इसी प्रकार उसी आयु स्तर पर कुछ बालक सामाजिक तथा बहिर्मुखी होते हैं, जबकि कुछ अन्तर्मुखी। अत: विकास के सभी क्षेत्रों में व्यक्तिगत भिन्नता पाई जाती हैं। बाल-विकास इन वैयक्तिक भिन्नताओं का अध्ययन कर उन कारणों को जानने का प्रयास करता है, जिनसे बालकों का सामा न्य विका स प्रभावित हुआ है।

(9) बालकों के व्यक्तित्व का मूल्यांकन (Evaluation of children’s personality) – बाल-विकास के अन्तर्गत बालकों की विभिन्न शारीरिक और मानसिक योग्यताओं का मापन एवं मूल्यांकन किया जाता है। योग्यताओं के मापन व मूल्यांकन के लिए बाल-विकास के क्षेत्र में मनोवैज्ञानिकों द्वारा नित्य प्रति नए वैज्ञानिक तथा प्रमापीकृत परीक्षणों का निर्माण किया जाता है। ये परीक्षण विभिन्न आयु स्तरों पर बालकों की योग्यताओं का मापन कर उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हैं।

(10) बालकों की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन (Study of various mental processes of children) –

बाल-विकास बालकों के बौद्धिक विकास की विभिन्न मानसिक प्रक्रि याओं,ओं जैसे—तर्क, चिन्तन-मनन, स्मृति, अधिगम, कल्पना तथा प्रत्यक्षीकरण आदि का अध्ययन करता है। बाल-विकास के द्वारा यह जानने का प्रयास किया जाता है कि विभिन्न आयु स्तरों में ये मानसिक प्रक्रियाएँ किस रूप में पाई जाती हैं और इनके विकास की गति क्या होती हैं, इन्हीं बातों के आधार पर मानसिक प्रकियाओं का विकास किया जाता है |

(11) बालक-अभिभावक सम्बन्धों का अध्ययन (Study of child-parents relationship) – हर जगह, जन्म के पश्चात् हर शिशु को सर्वप्रथम अपने माता-पिता का संरक्षण ही प्राप्त होता है। बालक के आचरण निर्माण, व्यक्तित्व निर्धारण और समुचित विकास में माता-पिता का योगदान सर्वोपरि होता है। जिन बालकों के सम्बन्ध अपने माता-पिता के साथ अपेक्षित और सम्मा नजनक नहीं होते, वे प्राय: कुसमायोजित और अपराधी प्रवृत्ति के हो जाते हैं। इसके विपरीत, जिन बालकों का सम्बन्ध अपने माता- पिता अथवा अभिभावक से सुसमायोजित होता है, वे सदाचारी एवं कर्तव्यनिष्ठ होते हैं। बाल-विकास, बालक-अभिभावक सम्बन्धों के निर्धारक तत्वों तथा समस्याओं और उनके निराकरण का अध्ययन कर माता-पिता तथा बालकों के बीच अच्छे व मधुर सम्बन्ध विकसित करने का प्रयास करता है। इसी के फलस्वरूप बालक परिवार, समाज व राष्ट्र के अच्छे नागरिक के रूप में स्थापित होता है।

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