राजस्थान की प्रमुख लोकदेवियाँ
लोकदेवी से तात्पर्य ऐसी महान् महिलाओं से है जो नारी रूप में जन्म लेकर अपने जनकल्याणकारी कार्यों, अलौकिक चमत्कारों के साथ ही लोकहित में कुछ ऐसा कर गई की आज भी लोग उनकी
लोक देवियों के रूप में पूजा करते हैं। आदि शक्तिपीठ हिंगलाज माता– भगवान शिव की प्रथम पत्नी
भगवती सती का ‘ब्रहरंध्र’ (मांग भरने वाला हिस्सा अर्थात् मस्तक व शोरा) चन्द्रकुप पर्वत पर आकर गिरा। सती की माँग हिंगलू (कुमकुम) से सुशोभित थी, जिससे यह हिंगलू सारे पर पर्वत पर फैल गया। अतः इस स्थान व माता का नाम ‘हिंगलाज’ पड़ा। हिंगलाज माता की पूजा चांगला खाप के मुसलमानों/चारण मुसलमानों (चारणों से मुसलमान बने थे) की ब्रह्मचारिणी कन्या द्वारा की जाती है, इसलिए वह ‘चांगली माई’ कहलाती है। प्रथम आदि शक्तिपीठ हिंगलाज माता का मुख्य मंदिर (ल्यारी) बलूचिस्तान वर्तमान पाकिस्तान में स्थित है।
राजस्थान में हिंगलाज माता के प्रमुख स्थल इस प्रकार है-
(1) बाड़मेर जिले की सिवाना तहसील में स्थित छप्पन की पहाड़ियों में कोयलिया गुफा में यहाँ माता की पूजा पूरी संन्यासी करते हैं।
( 2 ) चूरू जिले के बीदासर गाँव में स्थित नाथों के अखाड़े में हिंगलाज माता का पुराना मंदिर है।
(3) सीकर जिले के फतेहपुर गाँव में महात्मा बुद्ध गिरी की मढ़ी पर माता का मंदिर है जहाँ माता की पूजा गिरी संन्यासी करते हैं।
(4) जैसलमेर जिले के लोद्रवा गाँव में हिंगलाज माता का मंदिर स्थित है जो वर्तमान में भूमिगत हो चुका है। माता के दर्शन हेतु सीढ़ियाँ उतर कर नीचे जाना पड़ता है। यह लोदवा के चौहानों की कुल देवी है।
(5) अजमेर जिले की पंचायत समिति अरांई के पास (गेहलपुर) की पहाड़ी पर हिंगलाज माता का पुराना मंदिर बना हुआ है।
(6) हिंगलाज माता के अन्य मंदिर चांदली (टोंक), खादरा (सीकर), नारलोई (जयपुर) व दौसा में भी हैं।
अर्बुदा देवी
– अर्बुदा देवी का मंदिर सिरोही जिले में माउंट आबू में स्थित है। इन्हें ‘अधर देवी’ के नाम से जाना जाता है। प्राचीनकाल में यह पर्वत अर्बुद पर्वत कहलाता था, इसी कारण इन्हें ‘अर्बुदा देवी’ भी कहा जाता है। यह माता ‘राजस्थान की वैष्णो देवी’ कही जाती है। अर्बुदा देवी के नाम पर ही अरावली पर्वत माला के इस क्षेत्र को अर्बुदांचल भी कहा जाता है।
ज्वाला माता
– ज्वाला माता का मंदिर जयपुर से 45 किमी. दूर जोबनेर कस्बे में स्थित है। ज्वाला माता कछवाह वंश की शाखा खंगारोत शासकों की कुल देवी है। जनश्रुति है, कि 1641 ई. के लगभग अजमेर के शाही सेनापति मुहम्मद मुराद (लाल बेग) ने जोबनेर के शासक जैतसिंह पर आक्रमण किया ज्वाला माता के रूप में मधुमक्खियों का एक बड़ा झुंड लालबेग की सेना पर टूट पड़ा जिससे लालबेग की सेना नौबत छोड़कर भाग गई। ज्वाला माता को मधुमक्खियों की देवी भी कहते हैं। प्रतिवर्ष चैत्र व अश्विन नवरात्रों में यहाँ मेला लगता है।
जमवाय माता / अन्नपूर्णा माता
यह कछवाहा राजपूतों की कुल देवी है। इसका मन्दिर जमवारामगढ़ (जयपुर) में दुल्हेराय ने बनवाया। इस मंदिर में देवी प्रतिमा के साथ गाय व बछड़े की मूर्ति भी स्थित है। मरवण व दूल्हेराय / ढ़ोला की पुत्री जमवाय / बुड़वाय थी। ढोला की शादी के समय उम्र 3 वर्ष थी।
ढोला-मारू की शादी पुष्कर में हुई थी। रामगढ़ को ढूँढ़ाड़ का पुष्कर कहते हैं। राजस्थान में जमवाय माता के अन्य प्रसिद्ध मंदिर- (अ) जमवा रामगढ़ (जयपुर), (ब) भौडकी (झुंझुनूँ), (स) महरौली एवं मंढा मदनी (सीकर) तथा (द) भूणास (नागौर)।
जैसलमेर की सात कल्याण देवियाँ-सडवा शाखा के चारण गायें पालते थे और घी व घोड़ों का व्यापार करते थे। इन्हीं चारणों का वंशज चेला नामक चारण माँड प्रदेश (वर्तमान जैसलमेर) के चेलक गाँव में रहने लगा।
उसी के वंश में मामड़िया चारण हुआ जिसके कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिए मामड़िया चारण सात बार हिंगलाज माता की यात्रा की। हिंगलाज माता के आशिर्वाद से ही विक्रम संवत् 808 में सात कन्याओं के रूप में हिंगलाज माता ने मामड़िया के घर जन्म लिया, जिनके नाम आवड़, आशी, सेसी, गेहली, हुली, रूपा, लांगदे है। बड़ी कन्या का नाम आवड़ रखा गया।
एक बार माँड प्रदेश में अकाल पड़ा तो सभी कन्याएँ अपने माता-पिता के साथ सिंध में हाकड़ा नदी के किनारे पर रहने लगीं। इन चारण कन्याओं के जनकल्याण हेतु किए गए अच्छे कार्यों के कारण ये कल्याणी देवी कहलाई। इनकी याद में माँड प्रदेश (जैसलमेर) में सात मंदिरों का निर्माण किया गया।
काला डूंगराय का मंदिर- माना जाता है, कि आवडादि चारण कन्याएँ सिंध प्रांत को नष्ट कर वहाँ बहने वाली हाकड़ा नदी के जल को सोखकर वापस माँड प्रदेश में आईं जिस गाँव के लोगों ने उनका स्वागत किया उस गाँव का नाम ‘आइता’ रखा गया। आवड़जी ने इसी गाँव में स्थित कालेडूंगर पर अपना निवास स्थान बनाया अतः आवड़ादी माता का नाम ‘डूंगरेचिया’ तथा मंदिर का नाम ‘काला डूंगराय’ मंदिर पड़ा। इस मंदिर का निर्माण महारावल जवाहरसिंह ने करवाया।
लोंगीदेवी
– तनोटिया माता की बहन लोंगीदेवी का मंदिर लोंगेवाला (जैसलमेर) में स्थित है। जहाँ 1971 ई. में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ था।
आशापुरा माता
– यह बिस्सा जाति की कुल देवी है, जिसका मन्दिर पोकरण (जैसलमेर) में है। यहाँ भाद्रपद व माघ शुक्ल दशमी को दो बार मेला लगता हैं। इस देवी के उपासक हाथ में मेंहदी नहीं लगाते है।
सांगिया / स्वांगिया / सुग्गा माता
-इसका मंदिर जैसलमेर में है। यह जैसलमेर के भाटी वंश की कुल देवी है। सुगन चिड़ी को इस माता का अवतार मानते हैं, इसी कारण जैसलमेर राज्य के राजचिह्न में सुगन चिड़ी के हाथ में मुड़ा हुआ स्वांग (भाला) है। इन्हें उत्तर की ढाल कहते हैं।
ध्यातव्य रहे- ढाल तलवार के वार से रक्षा करने वाली होती है।
तणोटिया माता
इसे रूमाल वाली देवी / भाटी शासकों व सेना के जवानों की इष्ट देवी / थार की वैष्णो देवी / राजस्थान की अर्बुदा देवी के नाम से जाना जाता है। इसकी पूजा बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स (BSF) के जवान करते हैं। भारत-पाकिस्तान युद्ध-1965 में भारत की विजय का प्रतीक विजय स्तम्भ यहाँ पर स्थित है।
1965 के भारत-पाक युद्ध के समय पाकिस्तानी सेना द्वारा गिराये गये बम इस माता के चमत्कार के कारण नहीं फटे और आज भी बिना फटे बम माता के मंदिर में रखे हुये हैं।
सप्त गौ माता – इसका मंदिर-रैवासा (सीकर) में है, यह राजस्थान का एकमात्र सप्त गौ माता मंदिर है।
जीण माता (सीकर)
– इन्हें चौहानों की कुल देवी / शेखावाटी क्षेत्र की लोक देवी / मधुमक्खियों की देवी (इनके मंदिर परिसर में भंवरा माता का मंदिर है, जिन्हें मधुमक्खियों की देवी कहते हैं। यह जीण माता का ही एक रूप है।
एक बार औरंगजेब की सेना ने मंदिर को तोड़ने का प्रयास किया, तो माता ने मधुमक्खी के रूप में सेना को परास्त किया, बाद में औरंगजेब ने माफी मांगते हुए माता के छत्र चढ़ाया और उनकी अखण्ड ज्योति के लिए घी भेजा।) के नाम से जाना जाता है।
जीण माता के मंदिर में दो दीपक हमेशा जलते रहते हैं, जिसमें एक घी का होता है तथा एक तेल का होता है। इनका जन्म धांधू गाँव (चुरू) में हुआ । इनके बचपन का नाम-जीवण बाई था। इसके मन्दिर का निर्माण पृथ्वीराज चौहान प्रथम के समय वि.सं. 1121 ई. में हट्टड़ द्वारा हर्ष की पहाड़ी (रैवासा-सीकर) पर करवाया गया।
जीण माता के मंदिर के पास ही इनके भाई हर्ष का मंदिर है। जीण माता तथा उसकी भाभी में पानी की मटकी उतारने को लेकर शर्त लगी थी, कि हर्ष पहले किसकी मटकी उतारता है। जब हर्ष ने जीण की जगह उनकी भाभी की मटकी उतार दी तो जीण अपने भाई से नाराज होकर तपस्या करने जंगल में चली गई।
जीण के पीछे-पीछे हर्ष भी पहाड़ी पर तपस्या करने लगा, जिसे आज हर्षनाथ पर्वत कहा जाता है। जीणमाता के मंदिर के पास जोगी तालाब नामक एक जलकुण्ड है, जहाँ पांडवों की आदमकद पत्थर की मूर्तियाँ हैं जिससे माना जाता है कि पाण्डव यहाँ आये थे।
यहाँ ढाई प्याले शराब चढ़ती है व पहले बकरे की बलि दी जाती थी, वर्तमान में केवल बकरे के कान चढ़ाते हैं। यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र व आश्विन के नवरात्रों में मेला लगता है। 2003 में मुम्बई के गोरेगाँव में ‘जय जीण माता’ की फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित किया।
सभी देवी-देवताओं में जीण माता का लोकगीत (चिरजा) सबसे लम्बा है, तो केवल देवताओं में रामदेवजी का लोकगीत सबसे लम्बा है ।
राजेश्वरी माता – यह भरतपुर के जाट वंश की कुल देवी है। इसका मंदिर लोहागढ़ दुर्ग (भरतपुर) में स्थित है।
गंगामाता – इसका मंदिर भरतपुर में (अन्य मंदिर झुन्झुनूं में) स्थित है।
जलदेवी – इसका मन्दिर बावड़ी गाँव (टोडारायसिंह तहसील, टोंक) में है।
काकूनी माता- इस माता का मंदिर बारां / कोटा में स्थित है। भदाणा माता – यह हाड़ा चौहानों की कुल देवी है। यहाँ मूंठ की चपेट में आये लोगों का इलाज होता है। इनका मंदिर भदाणा (कोटा) में है।
जोगणिया माता -चित्तौड़गढ़ (बेंगू) में है, इसे डाकुओं की कुल देवी कहते हैं।
बड़ली माता-इसका मन्दिर छीपों का आकोला गाँव में बेड़च नदी के तट पर स्थित है। यह माता आकोला के छीपों की कुल देवी है। यहाँ की ताँती बांधने से बीमारी ठीक हो जाती है। मनौती पूरी होने पर मंदिर में त्रिशूल चढ़ाया जाता है।
तुलजा भवानी -यह छत्रपति शिवाजी की आराध्य देवी थी, जिसका मन्दिर चित्तौड़गढ़ दुर्ग में है। इस मंदिर का निर्माण बनवीर ने करवाया था।
कालिका माता – यह गुहिल वंश की इष्ट देवी है। इसका मन्दिर चित्तौड़गढ़ दुर्ग में 12वीं शताब्दी में प्रतिहार कालीन शैली में बना हुआ है। मूलतः यह सूर्य मंदिर था, जो 8वीं सदी में मान मौर्य ने बनवाया था।
आसावरी / आवरी माता – इसका मन्दिर निकुम्भ गाँव में है, यह
शारीरिक व्याधियों (लकवा) के निवारण हेतु प्रसिद्ध है।
महामाया माता – इसका मंदिर मावली (उदयपुर) में है, इस
देवी को शिशु रक्षक लोक देवी कहते हैं। जावरा माता – इसका मंदिर जावर (उदयपुर) में है, इस देवी को
खानों की देवी भी कहते हैं।
कंठसरी माता – आदिवासियों की कुल देवी कंठसरी माता का मंदिर उदयपुर में है।
हिचकी माता सनवाड़ (उदयपुर) माता का मंदिर सलम्बूर (उदयपुर) में है। यह रावत जाति की कुलदेवी है।
आमजा माता केलवाड़ा (उदयपुर) के रीछड़े गाँव में इसका मन्दिर है, जहाँ ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी को मेला लगता है। यह भीलों की कुल देवी है, जिसकी पूजा एक भील भोपा व एक ब्राह्मण पुजारी करता है।
बाण माता – कुम्भलगढ़ किले के पास केलवाड़ा (उदयपुर) की गढी में इसका मन्दिर है। यह मेवाड़ के शासकों व सिसोदिया वंश की कुल देवी है।
अम्बिका माता – इसका मन्दिर जगत गाँव (उदयपुर) में है। इस मंदिर को “मेवाड़ का खजुराहो” कहते है। यह प्रतिहार कालीन मंदिर है, जिसका निर्माण 10वीं सदी में अल्लट ने महामारू शैली में करवाया था।
ध्यातव्य रहे – राजस्थान का खजुराहो-किराडू (बाड़मेर), मेवाड़ का खजुराहो-जगत (उदयपुर), हाड़ौती का खजुराहो / मिनी/ लघु खजुराहो – भिण्डदेवरा (बारां)।
घेवर माता – इसका मन्दिर राजसमन्द झील की पाल पर स्थित है, जिसका निर्माण महाराणा राजसिंह ने करवाया था, क्योंकि जब ये जीवित थी तब इन्हीं के हाथों राजसमंद झील की नींव रखी गई थी।
राजस्थान की एकमात्र लोकदेवी जो बिना पति के अकेली सती हो गई। ध्यान रहे ये मूलत: मालवा की राजकुमारी थी और गुजरात के राजकुमार से प्यार करती थी लेकिन विवाह नहीं हुआ था। जब गुजरात का राजकुमार युद्ध में शहीद हो गया, तो ये भी उसके नाम पर कुँवारी सती हो गई थी।
चारभुजा देवी – इसका मंदिर खमनौर (राजसमंद) में है। मरकण्डी माता- इस माता का मंदिर नीमाज (पाली) में है।
सुगाली माता – यह आऊवा (पाली) के ठाकुर कुशालसिंह चम्पावत की इष्ट देवी (जिसके 10 सिर व 54 हाथ है), एवं आउवा के ठाकुर परिवार की कुलदेवी है, जिसे 1857 की क्रांति की देवी कहते हैं। 1857 की क्रांति में अंग्रेज इसे अपने साथ अजमेर ले गये। अजमेर से यह कलकत्ता, कलकत्ता से यह बांगड़ म्यूजियम में रखी गई तथा बांगड़ म्यूजियम से पुनः 2018 में वसुंधरा राजे ने से आऊवा गांव में स्थापित ।
आशापुरा माता – चौहानों की कुल देवी आशापुरा माता का मंदिर नाडौल (पाली) व मोंदरा (जालौर) में है।
रूपादे माता – इसे बरसात की देवी भी कहते हैं, जिनका मंदिर- नाकोड़ा (बाड़मेर) में है, जिसका पुराना नाम-मेवानगर था। यह जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहाँ पार्श्वनाथ, भैरवनाथ, शांतिनाथ के प्रसिद्ध मंदिर है।
भटियाणी माता – इस माता का मंदिर जसोल (बाड़मेर) में है, जहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी को मेला लगता है।
सांभरा माता – इसे लवणता की देवी भी कहते हैं, जिसका
मंदिर पचभद्रा (बाड़मेर) में स्थित है। विरात्रा माता – यह भोपों की कुल देवी है, जिसका मन्दिर चौहटन
गाँव (गोंद के लिए प्रसिद्ध) में है।
आई माता – आई माता के बचपन का नाम जीजीबाई था, जिनका ‘ जन्म अम्बापुर (गुजरात) में हुआ था। यह सिरवी जाति के क्षत्रियों की कुल देवी है। इनका मन्दिर बिलाड़ा (जोधपुर) में हैं। इनके मन्दिर को दरगाह व थान को बड़ेर कहते हैं। भीखा डाबी इनके पिता तथा रैदास गुरु थे। यह दुर्गा का अवतार मानी गई है। माण्डू का शासक इन्हें अपनी बेगम बनाना चाहता था। यह रामदेवजी की अनुयायी थी तथा 11 नियमों का डोरा पंथ चलाया। आईजी माता का मंदिर नीम के पेड़ के नीचे होता है। प्रत्येक माह की शुक्ल द्वितीया को इनका मेला लगता है। इनके मन्दिर में मूर्ति नहीं है तथा यहाँ जलने वाले दीपक की ज्योति से केसर टपकती है।
सचिया माता – यह साम्प्रदायिक सद्भाव की देवी व ओसवालों की कुल देवी है। इसके मन्दिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में प्रतिहार शैली में परमार राजकुमार उपलदेव ने औसियाँ (जोधपुर) में करवाया। इस मंदिर में महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति स्थित है। 100 अधिक जैन व ब्राह्मण मंदिरों के अवशेष औसियाँ में मिले हैं।
नागणेची माता – यह 18 भुजाधारी देवी राठौड़ वंश की कुल देवी है, जिसका मन्दिर मण्डौर (जोधपुर) में है। नागणेची माता को भी सुगन चिड़ी का स्वरूप माना जाता है।
ध्यान रहे-राजस्थान में सर्वप्रथम नागणेची माता की मूर्ति राव धूहड़ ने कर्नाटक से मंगवाई, जो लकड़ी की मूर्ति थी, इसका मंदिर नागाणा (बाड़मेर) में स्थापित करवाया गया। बीकानेर में राव बीका ने इसका मंदिर बनवाया। इनके भक्तों द्वारा बीकानेर में फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को ‘खेलड़ी शातम’ मनाई जाती है।
चामुण्डा माता – यह मारवाड़ के राठौड़ों की इष्ट देवी है, जिसका मंदिर मेहरानगढ़ (जोधपुर) में है, जिसमें 30 सितम्बर, 2008 के आश्विन नवरात्रों में भगदड़ मच जाने के कारण कई लोगों की जान गई जिसकी जाँच जसराज चौपड़ा कमेटी ने की और उसकी रिपोर्ट 2019 में सरकार को सौंपी।
लुटियाला/ लटियाला माता – यह कल्लों की कुल देवी है। जिसका मन्दिर फलौदी (जोधपुर) में बना हुआ है। इसके मन्दिर के आगे खेजड़ी का वृक्ष स्थित है अत: इन्हें “खेजड़ बेरी राय भवानी” भी कहते हैं।
भद्रकाली माता – इस माता का मंदिर अमरपुरा गांव, पल्लू (हनुमानगढ़) में स्थित है। यह सुनारों की कुलदेवी है। इस मंदिर का निर्माण गंगासिंह ने करवाया।
‘नारायणी माता – इनका बचपन का नाम-करमेती बाई था। इनका मन्दिर राजगढ़ तहसील (अलवर) की बरवा की डूंगरी पर 11वीं शताब्दी में प्रतिहार शैली का बना हुआ है। यह सैन समाज की कुल देवी है तथा इसके पुजारी मीणा जाति के लोग है। यहाँ वैशाख शुक्ल एकादशी को मेला लगता है। इनके पित करमंसी थे, जिनकी सांप के डसने से मृत्यु हो गई थी। नारायणी माता ने मीणाओं के लड़कों के सहयोग से लड़कियाँ एकत्रित कर अपने पति का दाह संस्कार किया और स्वयं उनके साथ सती हो गई।
जिलाणी माता इसका मन्दिर बहरोड़ कस्बे (अलवर) में है। इन्होनें हिन्दूओं को मुसलमान बनने से बचाया था ।
धौलागढ़ देवी – इस माता का मंदिर बहतूकला (अलवर) में स्थित है।
कैला देवी (करौली) – महाभारत काल में कंस ने देवकी की जिस कन्या को मारने के लिए आकाश में फेंका था, वही कन्या कैलादेवी के रूप में करौली से 21 किमी० दूर त्रिकूट पर्वत पर प्रकट हुई, इसलिए यह यादव वंश की कुलदेवी के रूप में पूजी जाती है, जहाँ कभी मांस का भोग नहीं लगता। कैला देवी को अंजनी माता का अवतार व भगवान कृष्ण की बहन माना जाता है। इसका मन्दिर 19वीं शताब्दी में गोपाल सिंह द्वारा काली सील नदी के मुहाने त्रिकूट पहाड़ी पर करवाया गया। इसके सामने बोहरा भक्त की छतरी है। यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल अष्टमी को लक्खी मेला लगता है। इस मेले के लांगुरिया गीत/नृत्य (भक्ति गीत) व घुटकन नृत्य प्रसिद्ध है। जिसे गुर्जर व मीणा जाति के लोग करते हैं।
कोडिया देवी – यह माता सहरिया जाति की कुल देवी है, जिसका मंदिर बारां में स्थित है।
ब्रह्माणी माता इसका मन्दिर सौरसेन (अंता-बारां) में है। यह कुम्हारों की कुल देवी है। जहाँ माघ शुक्ल सप्तमी को गधों का मेला लगता है। एकमात्र ऐसी देवी, जिसकी पीठ का श्रृंगार एवं पीठ की पूजा की जाती है। ध्यान रहे-सौरसेन (बाराँ) में गोडावन पक्षी पाये जाते हैं। गोड़ावन पक्षी जमीन पर अंडा देता है।
त्रिपुरा सुन्दरी/तुरताई माता – इसका मन्दिर तलवाड़ा गाँव (बाँसवाड़ा) में है। यह पांचाल जाति (लुहारों) की कुल देवी व वसुंधरा राजे की इष्ट देवी है। इन्हें तुरताई माता / त्रिपुरा महालक्ष्मी भी कहते हैं ।
छींछ देवी – बाँसवाड़ा।
कुशाल माता – महाराणा कुम्भा ने 1490 ई. में मालवा विजय के उपलक्ष्य में बदनौर (भीलवाड़ा) में इसका निर्माण करवाया। यह चामुण्डा देवी का अवतार है, इसी के पास बैराठ माता का मन्दिर स्थित है।
मंदाकिनी माता – इस माता का मंदिर बिजौलिया (भीलवाड़ा) में स्थित है।
नौसट माता – इस माता का मंदिर पुष्कर (अजमेर) में स्थित है। चामुण्डा माता – इसका मन्दिर अजमेर में है। यह पृथ्वीराज चौहान तृतीय व चन्दबरदाई की इष्ट देवी है।
पाडा माता / सरकी माता इस माता मंदिर डीडवाना झील (नागौर) में स्थित है।
भुवाल माता – इस माता का मंदिर मेड़ता सिटी (नागौर) में स्थित है, यहाँ इन्हें शराब चढ़ाने व बकरों की बलि देने का रिवाज है। सुराणा देवी- यह माता दुग्गड़ जाति की कुल देवी है, जिसका मंदिर नागौर में है।
कैवाय माता – इसका मंदिर किणसरिया, परबतसर (नागौर) में है। इस मंदिर का निर्माण राजा चच्च ने करवाया।
दधिमति माता – इसका मन्दिर गोठ मांगलोद (जायल तहसील, नागौर) में है। यह दाधीच ब्राह्मणों की कुल देवी है। इस क्षेत्र को पुराणों में “कुशाक्षेत्र” कहा गया है।
अंता देवी – इस माता को ऊँटों की देवी भी कहा जाता है, जिनका मंदिर बीकानेर में स्थित है।
करणी माता – यह चारणों की कुल देवी व बीकानेर के राठौड़ों की कुल देवी है। इनका जन्म वि.सं. 1444 में सुआप गाँव (फलौदी, जोधपुर) में मेहाजी चारण (पिता) व देवलबाई (माता) के घर हुआ । इनके बचपन का नाम रिद्धि बाई था।
इनकी शादी साठीका गाँव के चारण बीठू केलू के पुत्र देपाजी बीठू से हुई। करणी माता को ‘चूहों की देवी / जोग माया व जगत माता का अवतार’ भी कहते। हैं, तो सफेद चील को करणी माता का रूप माना जाता है।
मान्यता के अनुसार मेहरानगढ़ दुर्ग की नींव करणी माता ने रखी थी तथा राव बीका ने बीकानेर की स्थापना करणीमाता के आशीर्वाद से की। इनका मन्दिर (मठ) देशनोक (बीकानेर) में है, जिसकी नींव स्वयं करणी माता ने रखी (मुख्य मंदिर से कुछ दूरी पर एक अन्य मंदिर है, जिसे नेहड़ी जी कहते हैं) जबकि 19वीं शताब्दी में रावराजा जैतसिंह द्वारा मूल मन्दिर बनवाया गया।
इस मन्दिर का वर्तमान भव्य स्वरूप महाराजा सूरतसिंह ने दिया। इस मन्दिर में सर्वाधिक चूहे पाये जाते हैं, अत: इस मन्दिर को ‘चूहों का मन्दिर’ एवं करणी माता को ‘चूहों की देवी’ कहते हैं। इनके भक्तों द्वारा की जाने वाली विशेष आरती को ‘चीरजा’ कहते हैं, जो दो प्रकार की होती है- 1. छड़ाऊ – यह आरती विपत्ति के समय की जाती है तथा संघाऊ-यह आरती शांति के समय की जाती है।
यहाँ प्राप्त सफेद चूहों को ‘काबा’ कहते हैं, तो यहाँ स्थित दो कड़ाईयों का नाम ‘सावन-भादो कड़ाईयां’ है । यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र व आश्विन नवरात्रों में दो बार मेला लगता है। करणी माता की आराध्य देवी तेमडा माता थी, जिनका मंदिर देशनोक (बीकानेर) में करणी माता के मंदिर के पास ही स्थित है।
करणी माता के मंदिर को मठ कहते हैं, क्योंकि इसकी आकृति ऊपर से उल्टे कटोरे यानि मठ के समान है। श्रवण पूर्णिमा को कोलायत झील (बीकानेर) में करणी माता के पुत्र लाखा की डूबने से मृत्यु हो गई, जिस कारण चारण जाति के लोग कोलायत झील में स्नान करने नहीं जाते हैं। मंशा माता-इस माता का मंदिर उदयपुर वाटी (झुंझुनूं) में स्थित है।
सती माता/ दादीजी -यह अग्रवालों की कुल देवी है, जिनका मूल नाम नारायण बाई व इनके पति का नाम तन-धन-दास था, जो हिसार के नवाब से लड़ते हुये मारे गये। 1652 ई. में पति के साथ नारायण बाई सती हो गई। विश्व का सबसे बड़ा सती माता का मन्दिर झुंझुनूं में है तथा दूसरा बड़ा मन्दिर खेमीसती का भी झुंझुनूं में ही है। प्रतिवर्ष भाद्रपद अमावस्या को यहाँ मेला लगता है (ध्यातव्य रहे-सती महिमा मंडन कानून के कारण अब ये मेला बंद है)। 1987 ई० में दिवराला (श्रीमाधोपुर-सीकर) रूपकँवर सती महिला काण्ड के बाद राणी सती मेले पर रोक लगा दी गई। इन्हें दादी माँ के नाम से भी जानते हैं। राजा राममोहन राय के प्रयासों से 1829 में सती प्रथा पर रोक लगायी गयी।
सकराय / शंकरा / शाकम्भरी माता – अकाल के समय इन्होंने अकाल पीड़ितों को कन्द, मूल, फल, सब्जियाँ प्रदान की अतः इनका नाम शाकम्भरी पड़ा। यह खण्डेलवालों की कुल देवी है जिनका मुख्य मन्दिर उदयपुर वाटी (झुंझुनूं) में है, यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र व आश्विन नवरात्रों में मेला लगता है।
सरस्वती माता / शारदा देवी इस माता का मंदिर पिलानी (झुंझुनूं) में स्थित है।
हिचकी माता – इसका मन्दिर सनवाड़ गाँव (सवाई माधोपुर) में है।
चौथ माता – यह कंजर जाति की आराध्य देवी है, जिनका मन्दिर चौथ का बरवाड़ा गाँव (सवाई माधोपुर) में है। महिलाएँ अपने पति की दीर्घ आयु मांगने के लिए ‘कार्तिक कृष्ण चतुर्थी / करवा चौथ /
नवम्बर’ को चौथ माता का व्रत रखती है।
खलकाणी माता – इन्हें गधों की देवी भी कहते हैं, जिनका मंदिर लूणियावास (जयपुर) में स्थित है, जहाँ दशहरे पर राजस्थान का सबसे प्रसिद्ध गधों का मेला लगता है।
नामदेवी – यह माता सांगानेर के छीपा की कुल देवी है, जिनका मंदिर सांगानेर (जयपुर) में स्थित है।
नकटी माता – इस माता का मंदिर जयभवानीपुरा (जयपुर) में
स्थित है। यह मंदिर प्रतिहार कालीन मंदिर है।
शिला देवी – यह आमेर के कछवाहा वंश की इष्ट देवी है। 16वीं शताब्दी में मानसिंह प्रथम द्वारा पूर्वी बंगाल के राजा केदार को हराकर “जस्सोर” नामक स्थान से अष्टभुजी भगवती की मूर्ति आमेर लाकर आमेर दुर्ग में स्थित जलेब चौक के दक्षिणी-पश्चिमी कोने में मन्दिर बनवाया।
इस मन्दिर का वर्तमान स्वरूप मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा करवाया गया। यहाँ ढाई प्याला शराब चढ़ती है तथा भक्तों को शराब व जल का चरणामृत दिया जाता है। इन्हें सुहाग देवी भी कहते हैं।
छींक माता – जयपुर में गोपाल जी के रास्ते (चौड़ा रास्ता, जयपुर) में इसका मन्दिर है जहाँ माघ सुदी सप्तमी को पूजा की जाती है।
शीतला माता – इसे चेचक की देवी/बोदरी की देवी /सेढ़ल माता/ महामाई / बच्चों की संरक्षिका आदि नामों से जाना जाता है। इसके मन्दिर का निर्माण सवाई माधोसिंह ने चाकसू गाँव (जयपुर) में शील की डूंगरी पर करवाया।
इसके मन्दिर में मूर्ति की जगह पाषाण (पत्थर) के खण्ड ( राजस्थान की एकमात्र लोकदेवी जिनकी खण्डित मूर्ति की पूजा की जाती है) है। इनका वाहन-गधा, पुजारी- कुम्हार, प्रतीक चिह्न-मिट्टी की कटोरियाँ (दीपक) है। यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण अष्टमी/ शीतलाष्टमी को मेला भरता है।
इस दिन यहाँ ठण्डा भोजन / बास्योड़ा का भोग लगाया जाता है। बांझ स्त्रियाँ संतान प्राप्ति हेतु इनकी पूजा करती है। ध्यान रहे-शीतला माता का प्राचीन मन्दिर उदयपुर में गोगुन्दा ग्राम में स्थित है।
शाकम्भरी माता – इसका मन्दिर साँभर में है, जिसका निर्माण वासुदेव चौहान ने करवाया था। यह साँभर के चौहानों की कुल देवी है। इसे शाक-सब्जी की देवी भी कहते हैं। अकाल के समय इस देवी ने शाक-सब्जी उगाकर लोगों का भरण-पोषण किया था ।
सुदर्शन चक्र से खंडित देवी का एक अंश यहाँ आकर गिरा था। भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को शाकम्भरी माता का मेला लगता है। इनका अन्य मन्दिर उदयपुर वाटी-झुन्झुनूं (खण्डेलवालों की कुलदेवी) व सहारनपुर – उत्तरप्रदेश में है।
ध्यान रहे देवयानी तीर्थ स्थल सांभर (जयपुर) के निकट स्थित है, जिसे तीर्थों की नानी कहते हैं। तीर्थों का मामा पुष्कर (अजमेर) व तीर्थों का भांजा मचकुण्ड (धौलपुर) कहलाता है।
ज्वाला माता – यह जोबनेर के खंगारोत राजवंश की कुल देवी है, जिसका मन्दिर जोबनेर में है। इसे मधुमक्खियों की देवी भी कहते हैं।
मंशा देवी इस माता का मंदिर चुरू में स्थित है। ऊँटाला माता / सारकी माता-यह माता पुष्करणा ब्राह्मणों की कुल देवी है, जिसका मंदिर बीकानेर में स्थित है। ये ब्राह्मण रम्मत खेलते हैं।
बीजासण माता – इस माता का मंदिर इन्द्रगढ़ (बूंदी) में स्थित है।
पपलाज / पिपलाज माता- इस माता का मंदिर लालसोट (दौसा) में स्थित है। इनका वाहन भैंसा है।
हर्षद माता – इस माता का मंदिर आभानेरी (दौसा) में स्थित है।
ध्यान रहे – आभानेरी की चाँद बावड़ी प्रसिद्ध है । अर्बुदा देवी – इस माता को राजस्थान की वैष्णो देवी भी कहते
हैं, जिनका मंदिर माउंट आबू (सिरोही) में स्थित है, इनके नाम पर ही सिरोही का नाम आर्बुद प्रदेश पड़ा। राजस्थान की एकमात्र देवी जिसकी अधर (होठों) की पूजा होती है।
सुंधा माता – इस माता का मंदिर जसवंतपुरा (भीनमाल, जालौर) के सुंधा पर्वत (जालौर) में स्थित है। यह एकमात्र देवी है, जिसकी धड़ रहित पूजा होती है। यहाँ पर राज्य का पहला रोप वे (निजी) वर्ष 20 दिसम्बर, 2006 में शुरू किया गया।
क्षेमकरी माता – सौलंकी राजपूतों की कुलदेवी, जिसका माता का मंदिर भीनमाल (जालौर) में स्थित है।
पथवारी माता – इस माता को तीर्थ यात्रा की देवी भी कहते हैं, जिनका मंदिर हर गाँव के बाहर होता है। तीर्थ यात्रा की मंगल कामना हेतु इनकी पूजा की जाती है ।
ध्यातव्य रहे :- राजस्थान में 33 करोड़ देवी-देवताओं की साल मण्डौर (जोधपुर) में स्थित है, तो वहीं तिजारा का मंदिर जैन धर्म से संबंधित है । रात्रिभर का जागरण ओजकौ कहलाता है । गधों का प्रसिद्ध मेला माघ शुक्ल सप्तमी को लूणियावास (जयपुर) व सौरसेन (अंता, बारां) में भरता है। डूंडलोद (झुंझुनूं) में गर्दभ अभयारण्य स्थित है।