मेवाड़ का चौहान राजवंश पार्ट – 02

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पृथ्वीराज सिसोदिया

 
पृथ्वीराज सिसोदिया रायमल का बड़ा पुत्र था। पृथ्वीराज एक अच्छा धावक व कल्पना बनाने में माहिर था, इसलिए इसे मेवाड़ में ‘उड़ना राजकुमार’ के नाम से जाना जाता है। यह तलवार के जोर से कहा करता था कि “मुझको मेवाड़ राज्य का शासन करने के निमित्त पैदा किया गया है।”
 
पृथ्वीराज की एक बहन आनंदाबाई की शादी सिरोही के शासक राव जगमाल के साथ हुई, लेकिन वह पृथ्वीराज की बहन को अत्यधिक कष्ट दे रहा था अतः पृथ्वीराज अपने बहनोई को समझाने सिरोही आया। कहा जाता है कि लौटते समय राव जगमाल ने विषयुक्त लड्डू पृथ्वीराज के साथ बँधवा दिए, जिनको खाने से रास्ते में ही कुंभलगढ़ दुर्ग के समीप पृथ्वीराज की मृत्यु हो गई ।
 
ध्यातव्य रहे-पृथ्वीराज सिसोदिया की याद में बारह खंभों की छतरी कुंभलगढ़ दुर्ग में बनवाई गई, तो रायमल की छतरी जावर (उदयपुर) में है ।
 

ताराबाई

 
ताराबाई टोडा (उस समय मेवाड़ रियासत की जागीर) के शासक राव सुरताण की पुत्री थी। जब मालवा के सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर, टोडा और बूँदी पर आक्रमण करके अपने अधिकार में कर लिया तो टोडा के राव सुरताण अपनी अद्वितीय सुंदर और वीरांगना पुत्री ताराबाई के साथ मेवाड़ रियासत के शासक रायमल की शरण में चला गया। राव सुरताण ने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि वह अपनी पुत्री का विवाह उस शूरवीर के साथ करेगा जो टोडा जीतकर उसे वापस दिलाएगा। राणा रायमल के द्वितीय पुत्र जयमल ने तारा की सुंदरता पर आसक्त होकर उससे विवाह करने की जिद्द की तो ताराबाई ने उसे अपने पिता राव सुरताण के पास भेजा। राव सुरताण ने राजकुमार जयमल को अपनी पुत्री की शादी की शर्त से अवगत कराया तो युवराज जयमल ने सुरताण व ताराबाई के साथ अत्यंत ही अशिष्ट व्यवहार किया। इस व्यवहार से क्रोधित होकर राव सुरताण ने जयमल को मौत के घाट उतार कर राणा को सूचित कर दिया (डॉ. गोपीनाथ शर्मा उसका सोलंकियों के विरुद्ध लड़ते हुए मारा जाना बताते हैं)। जयमल की मृत्यु के बाद रायमल के ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज ने तारा से विवाह करने का निर्णय कर टोडा पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। कुँवर पृथ्वीराज ने टोडा का राज्य राव सुरताण को सौंप दिया। वचनबद्ध राव सुरताण ने तारा का विवाह पृथ्वीराज से कर दिया। पृथ्वीराज सिसोदिया ने अजमेर के दुर्ग का जीर्णोद्धार कर उसे अपनी पत्नी के नाम पर तारागढ़ दुर्ग कर दिया।
 
“जब मेवाड़ में कोई भी उचित उत्तराधिकारी नहीं बचा तब रायमल ने अजमेर से अपने पुत्र संग्रामसिंह को बुलाकर 24 मई, 1509 ई. में मेवाड़ का शासक बनाया। 

महाराणा साँगा (1509-28 ई.)

 
महाराणा सांगा रायमल व उनकी रानी रतन कुवर का पुत्र था।। महाराणा साँगा का जन्म 12 अप्रैल, 1482 ई. को हुआ। डॉ. ओझा के अनुसार सांगा का राज्याभिषेक 24 मई, 1509 ई. को हुआ। महाराणा सांगा जब मेवाड़ का शासक बना तो उसके चारों तरफ विरोधी थे। साँगा ने धीरे-धीरे एक-एक विरोधियों का दमन किया इसलिए महाराणा साँगा मुख्यतः युद्धों के लिए ही जाना जाता है।
 
महाराणा साँगा 16वीं शताब्दी का एक मात्र अंतिम हिंदू राजा था जिसके सेनापतित्व में सब राजपूत जातियों ने विदेशियों को भारत से निकालने के लिए उसके नेतृत्व में इकट्ठे हुए। इसलिए इसे ‘हिंदूपथ’ के नाम से जाना जाता है। यह एक अच्छा सैनिक था क्योंकि इसने युद्ध में एक हाथ, पैर, आँख गवा दी एवं शरीर पर 80 घाव खाये परंतु फिर भी सैनिक की तरह युद्ध करता रहा इसलिए इसे ‘सैनिकों का भग्नावशेष’ कहते हैं।
 
राणा साँगा ने कई युद्ध लड़े जिनमें से मुख्यतः निम्न हैं- खातौली का युद्ध (1517-1518 ई.)- साँगा के समय दिल्ली सल्तनत पर सिकंदर लोदी का शासन था। जिसने 1504 ई. में आगरा नगर बसाया। सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद 22 नवंबर, 1517 ई. को इब्राहिम लोदी दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बना। उसने साम्राज्यवादी नीति के तहत् मेवाड़ पर चढ़ाई की तब इब्राहिम लोदी व राणा साँगा के मध्य 1517-18 ई. में खातौली, बूँदी (पहले पीपल्दा तहसील, कोटा) का युद्ध हुआ जिसमें साँगा की विजय हुई।
 
बाड़ी/ धौलपुर का युद्ध (1519 ई.)-इब्राहिम लोदी खातौली के युद्ध की हार का बदला लेने के लिए फिर 1519 ई. में मियाँ हुसैन फरमूली व मियाँ माखन के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी। महाराणा साँगा ने बाड़ी (धौलपुर) के निकट इस सेना को पराजित किया। स्वयं बाबर ने भी अपनी पुस्तक ‘बाबरनामा’ में इस युद्ध में राजपूतों की विजय बताई है। इस विजय के बाद महाराणा साँगा उत्तरी भारत का सबसे शक्तिशाली शासक बन गया।
 
ध्यातव्य रहे-इस युद्ध के बाद मेवाड़ राज्य की उत्तरी सीमा आगरा के पास ‘पीलियाखाल’ नामक स्थान को निश्चित किया गया।
 
गागरोन का युद्ध (1519 ई.)- राणा साँगा के शासन क़ाल में मालवा में नासिरशाह का शासन था। 1511 ई. में नासिरशाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महमूद खिलजी द्वितीय मालवा का शासक बना। उसको शासक बनाने में चंदेल के शासक मेदिनी राय ने उसकी मदद की थी। महमूद खिलजी मेदिनी राय के नेतृत्व में मालवा का शासन करता था, परंतु वहाँ के अमीरों ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह द्वितीय की सहायता से मेदिनी राय को मालवा से भगा दिया।
 
मेदिनी राय ने राणा साँगा से मदद माँगी तब राणा साँगा ने मेदिनी राय को गागरोण की जागीर देकर वहाँ का शासक बना दिया। महमूद खिलजी ने मेदिनी राय को दंड देने के लिए गागरोन दुर्ग पर चढ़ाई कर दी। महाराणा साँगा ने 1519 ई. में महमूद खिलजी द्वितीय पर आक्रमण किया और महमूद खिलजी को पराजित कर बंदी बना लिया। उसके बाद साँगा ने 6 महीने बाद महमूद खिलजी के एक शहजादे को जमानत के तौर पर रखकर महमूद खिलजी को मुक्त कर दिया। ‘तबकाते अकबरी’ के लेखक निजामुद्दीन अहमद ने राणा के इस उदार व्यवहार की प्रशंसा की।
 
ईडर के उत्तराधिकारी को लेकर युद्ध-साँगा के समय गुजरात पर महमूद बेगड़ा का शासन था। उसकी मृत्यु के बाद 1511 ई. में उसका पुत्र मुजफ्फर शाह द्वितीय गुजरात का शासक बना। महाराणा साँगा व मुजफ्फर शाह के मध्य ईडर के उत्तराधिकारी को लेकर कई बार युद्ध हुए जिसमें अंतिम रूप से महाराणा साँगा ने 1520 ई. में ने मुजफ्फर शाह की सेना को पराजित किया।
 
बाबर
 
बाबर (जहीरूद्दीन मुहम्मद बाबर) काबुल का शासक था। बाबर का जन्म 14 फरवरी, 1483 ई. को काबुल में हुआ। इसके पिता उमरशेख मिर्जा तैमूरलंग के वंशज थे जबकि माता कुतलुगनिगार खानम बेगम चंगेज खाँ के वंश से थी। दौलतखाँ (इब्राहिम लोदी का चाचा) के बुलाने पर बाबर भारत आया और 1526 ई. में पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहिम लोदी को पराजित कर वह दिल्ली व आगरा का शासक बना। 1527 ई. के खानवा के युद्ध में महाराणा साँगा को पराजित कर बाबर ‘हिंदुस्तान का शासक’ बना। भारत में पहली बार तोपखाने का प्रयोग बाबर ने ही किया जो उसकी सफलता का आधार था।
 
बाबर ने तुर्की भाषा में ‘बाबरनामा या तुजुक ए बाबरी’ नामक पुस्तक लिखी, जिसमें बाबर ने अपनी आत्मकथा एवं भारत की भौगोलिक एवं राजनैतिक स्थिति का वर्णन किया है। 1530 ई. में बाबर की आगरा में मृत्यु हो गई। इसका मकबरा काबुल में बनवाया गया। ‘तुजुक -ए-बाबरी’ में बाबर ने खानवा युद्ध को अपने जीवनकाल का ‘काला दाग’ कहा है। इस दाग को धोने के लिए राणा साँगा की पत्नी रानी कर्मावती को उसने अपनी राजपूत बेटी बनाया एवं रानी कर्मावती ने राजपूताना के बदले उसे रणथम्भौर का प्रदेश दिया।
 
राणा साँगा ने बाड़ी के युद्ध में दिल्ली सुल्तान इब्राहिम लोदी को पराजित कर दिया तो इब्राहिम के चाचा दौलतखाँ लोदी व चचेरे भाई आलम खाँ लोदी ने बाबर को भारत पर सशर्त, कि ‘हे! बाबर तुम भारत को जीतने के बाद हमारे में से एक को दिल्ली का दुर्ग तथा दूसरे को आगरे का दुर्ग दे देना’, आमंत्रित किया। उनके बुलाने पर बाबर भारत आया और 21 अप्रैल, 1526 ई. को इब्राहिम लोदी व बाबर के मध्य पानीपत (हरियाणा) का प्रथम युद्ध हुआ। पानीपत के प्रथम युद्ध बाबर ने भारत में पहली बार बारुद का प्रयोग किया था। इस युद्ध में लोदी लड़ता हुआ मारा गया और बाबर का दिल्ली व आगरा पर अधिकार हो गया।
 
मेवाड़ के पुरोहित की डायरी ‘मेवाड़ के संक्षिप्त इतिहास’ के अनुसार बाबर ने काबुल से राणा साँगा को पत्र भिजवाया जिसमें लिखा था, कि “साँगा इब्राहिम लोदी को परास्त करने में बाबर की मदद करे। उसके बदले विजय होने के बाद दिल्ली बाबर के राज्य की तथा आगरा मेवाड़ के राणा के राज्य की सीमा रहेगी।” यह पत्र व्यवहार व वार्तालाप ‘सलहदी तँवर’ के द्वारा किया गया। राणा साँगा इस शर्त को मानते हुए बाबर की सहायता करने को तैयार हुआ।
 
मेवाड़ी सरदारों को इस वार्तालाप का पता चलते ही साँगा को यह कहते हुए कि ‘साँप को दूध पिलाने से क्या लाभ’ ऐसा करने से रोका। साँगा ने अपनी शक्ति को संगठित करना शुरू कर दिया और चित्तौड़ से रवाना होकर बयाना दुर्ग पर अधिकार कर लिया। 
 
बयाना का युद्ध (16 फरवरी, 1527 ई.) – बाबर के सैनिक पानीपत के प्रथम युद्ध से वापस दिल्ली लौट रहे थे तो रास्ते में बयाना (भरतपुर) में राणा साँगा के सैनिकों ने उनको देखा और उन पर आक्रमण कर दिया। बाबर (सेनापति मेहंदी ख्वाजा) व साँगा के सैनिकों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मुगल सैनिक डर कर भाग गये और साँगा के सैनिकों की विजय हुई और उन्होंने बयाना के दुर्ग पर अपना कब्जा कर लिया।
 
डर कर भागे हुए मुगल सैनिक जब बाबर के पास पहुँचे तो बाबर ने साँगा को इस कार्य की सजा देने के लिए अपने सैनिकों को एकत्रित किया। उसी समय काबुल के एक ज्योतिषी मोहम्मद शरीफ ने यह घोषणा की कि बाबर के ग्रह इस समय उसके अनुकूल नहीं है, अतः बाबर इस युद्ध में हारेगा और उधर बाबर के सैनिकों ने साँगा के सैनिकों की ताकत को बयाना के युद्ध में देख लिया था। मुगल सैनिकों ने बाबर को यह कहते हुए कि ये राजपूत युद्ध जीतने के लिए युद्ध नहीं करते अपितु मरने-मारने के लिए युद्ध करते हैं। हम तो तुम्हारे साथ युद्ध करने नहीं जाएँगे क्योंकि हमें अभी जीना है।
 
बाबर ने अपने सैनिकों से कहा कि तुम सभी मेरे शराब पीने के कारण परेशान रहते हो, अगर तुम मेरा युद्ध में साथ दोगे तो मैं कभी शराब नहीं पीऊँगा। सैनिकों ने यह कहते हुए मना कर दिया कि “हे बादशाह! तुम चाहे शराब पीओ या ना पीओ लेकिन हम तुम्हारे साथ मरने के लिए वहाँ नहीं जाएँगे।” बाबर ने सैनिकों से कहा कि मैं मुगल व्यापारियों के ऊपर लगने वाले तगमा कर को हटा दूँगा व जीतने पर सभी सैनिकों को चाँदी का सिक्का दूंगा। मुगल सैनिकों ने कहा कि “हे बाबर ! तुम व्यापारियों के ऊपर से कर हटाओ या मत हटाओ यदि युद्ध में हम तुम्हारे साथ जाते हैं तो मरने के बाद हमारे वह सिक्का किस काम का । “
 
अंत में उसने सभी सैनिकों को इसे ‘जिहाद का युद्ध’ (धर्म युद्ध) बताते हुए कहा कि “सभी कुरान को छूकर खुदा का नाम लेकर कसम खाओ कि या तो हम फतह ही करेंगे अन्यथा इस जंग में अपनी जान दे देंगे।” बाबर के इन शब्दों ने मुगल सैनिकों में एक नया उत्साह भर दिया। मुगल सैनिक युद्ध के लिए तैयार हो गए।
 
मेवाड़ के इतिहास से हमें पता चलता है कि बाबर ने एक दूत को संधि का प्रस्ताव देकर साँगा के पास भेजा जिसमें यह तय हुआ था कि दिल्ली और उसके सब परगने बाबर के अधिकार में रहेंगे जबकि बयाना के समीप बहने वाली पीली नदी मुगलों व मेवाड़ की सीमा मानी जाएगी। सलहदी तँवर ने इस संधि को नहीं होने दिया। यह सलहदी तँवर रायसीन का सरदार था जो साँगा का एक विश्वस्त एवं प्रमुख सामंत था। बाबर व साँगा के मध्य युद्ध होना अनिवार्य हो गया था।
 
खानवा का युद्ध – महाराणा साँगा और बाबर की सेना 17 मार्च, 1527 ई. को गंभीरी नदी के किनारे भरतपुर जिले की रूपवास तहसील के खानवा नामक स्थान पर प्रातः साढ़े नौ बजे के लगभग आमने- सामने हुई। इस युद्ध में साँगा की हार तथा बाबर की जीत हुई।
 
पाती परवन-महाराणा साँगा ने खानवा के युद्ध में जाने से पूर्व ‘पाती परवन’ की पुरानी राजपूत परंपरा को पुनः जीवित किया। इस परंपरा के अंतर्गत राजपूत शासक प्रत्येक सरदार को अपनी ओर से युद्ध में भाग लेने के लिए निमंत्रण भिजवाता है। 
 
 
खानवा के युद्ध में राणा साँगा के साथ महमूद लोदी (इब्राहिम लोदी का भाई जो कि सांगा की शरण में आ गया था। पृथ्वीराज कछवाहा (आमेर के कछवाहा शासक जो कि लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए), राव गाँगा का पुत्र मालदेव (मारवाड़ के राठौड़ वंशी), मेदिनीराय (चंदेरी का शासक, जिसको साँगा ने गागरोन की जागीर देकर अपना सामंत बनाया। मेदिनीराय को बाबर ने 1528 ई. में चंदेरी के युद्ध में पूर्णरूप से पराजित किया।), अशोक परमार (जगनेर, भरतपुर) का शासक, जिसे महाराणा साँगा ने भीलवाड़ा में ऊपरमाल की जागीर देकर अपना सामंत बनाया।) एकमात्र मुस्लिम सेनापति हसनखाँ मेवाती, बीकानेर का कल्याण मल, सिरोही का अखैराज देवड़ा, ईडर का भारमल, सादड़ी का झाला अज्जा, वागड़ का उदयसिंह, गोगुंदा का झाला सज्जा, मेड़ता का वीरमदेव आदि राजपूत साँगा की तरफ से युद्ध के मैदान में आए।
 
 
ध्यातव्य रहे-कर्नल टॉड के अनुसार खानवा के युद्ध में साँगा के सात उच्च श्रेणी के राजा, 9 राव तथा 104 सरदार उपस्थित थे। खानवा के युद्ध में बाबर के पास सेना कम थी तथा साँगा के पास सेना अधिक थी फिर भी इस युद्ध में बाबर की विजय हुई उसके पीछे मुख्यतया तीन कारण हैं-
 
पहला कारण-बाबर का तोपखाना। इस युद्ध में बाबर ने सर्वप्रथम । भारत में तोपों का प्रयोग किया। बाबर के पास इस युद्ध में दो तोपची ‘मुस्तफा और उस्ताद अली’ थे।
 
दूसरा कारण-युद्ध करने की तुलुगमा पद्धति थी जो कि उज्जबेगों से सीखी थी।
 
तीसरा कारण-राजपूत इतिहासकार रायसीन के सलहदी तँवर (पहले साँगा का विश्वासपात्र सेनापति) व नागौर के खानजादा युद्ध के अंतिम दौर में बाबर से मिल गए।
 
खानवा के युद्ध में साँगा के घायल होने पर उनके मुकुट (राजचिह्न) को हलवदं (काठियावाड़) के झाला राजसिंह के पुत्र झाला अज्जा ने धारण किया तो साँगा को अखैराज (सिरोही) व पृथ्वीराज कछवाहा (आमेर) की देखरेख में युद्ध से बाहर भेजा गया।
 
राणा साँगा को पालकी में बसवा (दौसा) ले जाया गया जहाँ उनको होश आया और वह पुनः युद्ध स्थल पर जाने के लिए तैयार हुए। जब उन्हें युद्ध का हाल पता चला तो उसने बाबर को हराने की शपथ ली। वह योजना बनाने के लिए इरिच नामक गाँव में पहुँचा। इरिच में उसके साथियों ने देखा कि इस बार अगर हम बाबर से युद्ध करते है तो हमारा सर्वनाश निश्चित ही है अतः उन्होंने मिलकर कालपी नामक स्थान पर साँगा को विष दे दिया। विष के कारण 30 जनवरी, 1528 ई. को कालपी में ही साँगा की मृत्यु हो गई। 
 
साँगा को कालपी से माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) ले जाया गया, रास्ते में बसवा (दौसा) में रात का पड़ाव डाला गया, उसी की याद में बसवा में आज भी साँगा का चबूतरा (स्मारक) बना हुआ है! माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) में साँगा का दाह संस्कार किया गया, आज भी उसके नाम की छतरी बनी हुई है। वहाँ
 
ध्यातव्य रहे- साँगा का बसवा (दौसा) में स्मारक आमेर के शासक पृथ्वीराज कछवाहा के काल में बनवाया गया तो मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में छतरी का निर्माण जगनेर (भरतपुर) के अशोक परमार ने करवाया।
 
खानवा का युद्ध भारत के इतिहास का निर्णायक युद्ध था। इस युद्ध में बाबर की विजय से भारत में मुगल वंश की नींव रखी गई। खानवा के युद्ध की विजय के बाद बाबर ने अपने हताहत शत्रुओं की खोपड़ियों को बटोर कर मीनार खड़ी की और ‘गाजी / हिन्दुधर्म पर बिजली गिराने वाला / काफ़िरों का वध करने वाला’ की उपाधि धारण की।
 
भोजराज-यह महाराणा साँगा का पुत्र था जिसकी शादी मेड़ता के रतनसिंह की पुत्री मीरा बाई के साथ 1511 ई. में हुई। वह खानवा के युद्ध में बाबर के विरुद्ध लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। 
 
राणा साँगा ने अपने जीते जी ही अपने प्रिय (छोटी) रानी कर्मावती (करमेती), की बूँदी के हाड़ा शासक नरबद की पुत्री थी, उसको व उसके दो पुत्रों विक्रमादित्य व उदयसिंह को रणथम्भौर की जागीर व दुर्ग दे दिया था।
 

महाराणा रतन सिंह द्वितीय (1528-31 ई.)

 
साँगा की मृत्यु के बाद 5 फरवरी, 1528 ई. को रतन सिंह मेवाड़ का राजा बना, परंतु 1531 ई. में शिकार खेलते हुए बूँदी में उसकी मृत्यु हो गई।
 

महाराणा विक्रमादित्य ( 1531-36 ई.)

 
रतनसिंह की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई विक्रमादित्य छोटी उम्र में मेवाड़ का राजा बना अतः राजकार्य का संचालन इनकी माता हाड़ारानी कर्मावती करती थी। इसके शासन काल में पहली बार 1533 ई. में गुजरात के शासक बहादुर शाह ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया, लेकिन कर्मावती ने बहादुर शाह से संधि की, जिसके तहत रणथम्भौर दुर्ग बहादुर शाह को दिया गया। इसके बाद बहादुर शाह चित्तौड़ से लौट गया, लेकिन बाद में बहादुर शाह ने दुबारा 1534 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया, तब हाड़ारानी कर्मावती/ कर्णावती ने बादशाह हुमायूँ से मदद माँगने के लिए राखी भेजी थी, लेकिन हुमायूँ ने सहायता नहीं की। जब हुमायूँ न आ पाया तो कर्मावती ने अपने पुत्रों विक्रमादित्य व उदयसिंह को युद्ध से पहले उनके ननिहाल बूँदी भेज दिया तथा देवलिया (प्रतापगढ़) रावत बाघसिंह को महाराणा का प्रतिनिधि बनाया और बहादुर शाह से युद्ध किया, जिसमें मेवाड़ के राजपूत लड़ते हुये मारे गये (केसरिया) व हाड़ारानी कर्मावती ने 1200 महिलाओं के साथ जौहर किया, जो 8 मार्च, 1535 ई. को चित्तौड़गढ़ का दूसरा साका था।
 
बाद में विक्रमादित्य ने हुमायूँ की सहायता से चित्तौड़ पर पुनः अधिकार कर लिया, लेकिन विक्रमादित्य योग्य शासक नहीं था इसी कारण पृथ्वीराज सिसोदिया की दासी पूतलदे का पुत्र बनवीर विक्रमादित्य की हत्या कर उसके छोटे भाई उदयसिंह की हत्या करने पहुँचा । इसका पता उदयसिंह की धाय माँ पन्नाधाय को चला, तो पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर उदयसिंह को बचाकर कुम्भलनेर के किलेदार आशादेवपुरा के पास पहुँचाया।
 

महाराणा उदयसिंह (1540-72 ई.)

 
महाराणा उदयसिंह के पिता का नाम महाराणा संग्राम सिंह व माता का नाम कर्मावती था। इनका जन्म चित्तौड़गढ़ दुर्ग में हुआ । उदयसिंह को पन्नाधाय अपने पुत्र चन्दन की बलि देकर बनवीर से बचाकर कीरत व वारीन दम्पत्ति के संरक्षण में कुम्भलनेर के किलेदार आशादेवपुरा के पास ले गई। जहाँ कुम्भलगढ़ में उदयसिंह का लालन-पालन हुआ तथा 1537 ई. में मेवाड़ के सरदारों ने कुम्भलगढ़ दुर्ग में उदयसिंह का राज्याभिषेक किया। उदयसिंह 1540 ई. में बनवीर को मारकर चित्तौड़गढ़ का राजा बना। 1544 ई. में उदयसिंह मेवाड़ का प्रथम शासक था जिसने अफगान शेरशाह सूरी की अधीनता स्वीकार की एवं चित्तौड़गढ़ की चाबियाँ शेरशाह सूरी के पास भेज दी। प्रारम्भ में राव मालदेव राणा का सहयोगी था, लेकिन खैरवा के ठाकुर जैत्रसिंह द्वारा अपनी छोटी पुत्री का विवाह जिससे मालदेव विवाह करना चाहता था, उदयसिंह से करने के कारण मालदेव राणा का विरोधी हो गया। 1557 में मेवात के हाजी खाँ (शेरशाह का सेनानायक) व उदयसिंह के मध्य हरमाड़ा का युद्ध लड़ा गया, जिसमें राव मालदेव की मदद से हाजी खाँ विजयी हुआ। 1559 में धूणी नामक स्थान पर उदयसिंह ने उदयपुर नगर बसाया तथा वहाँ पर उदयसागर झील बनवाई।
 
उदयसिंह के समकालीन दिल्ली सल्तनत का बादशाह अकबर था, जिसने 1562 ई. में अपने साम्राज्य विस्तार के लिए भारत के लोगों को साथ लेने की सोची। उसने अपने साम्राज्य के चारों तरफ देखा तो उसे वहाँ विश्वसनीय व ताकतवार जाति राजपूत लगी। उसने इन राजपूतों से मित्रता करने के लिए सुलह-कुल की नीति अपनाई अर्थात् पहले तो बातचीत से शासक को अपनी तरफ मिलाना और फिर भी वह शासक न मिले तो कुल अर्थात् दमन करके अपनी तरफ मिलाना। इस नीति के सफल होने के लिए अकबर 1562 ई. में दिल्ली से मन्नत मांगने (जियारत करने) अजमेर के लिए रवाना हुआ, तो रास्ते में जयपुर के निकट सांगानेर में मजनूँ खाँ चंगताई की मदद से आमेर के शासक भारमल, जो मीणाओं से व गृह क्लेश से परेशान था, ने 1562 में अकबर की अधीनता स्वीकार की अर्थात् अकबर की मन्नत तो रास्ते में ही पूरी हो गई।
 
अजमेर में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की जियारत कर अकबर ने 1562 ई० में नागौर के जयमल राठौड़ को हराकर नागौर पर अपना अधिकार कर लिया। जयमल राठौड़ हारकर मेवाड़ के राजा उदयसिंह की शरण में चला गया। तब अकबर ने 1567 ई. में उदयसिंह के पास अधीनता स्वीकार करने के लिए एक फरमान / आदेश भेजा। उदयसिंह ने उस फरमान को नहीं माना तो अकबर ने 1567 में चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। उदयसिंह ने आपातकालीन बैठक बुलाई और चित्तौड़ का कार्यभार जयमल राठौड़ व फत्ता राठौड़ को सौंपकर स्वयं गोगुंदा (उदयपुर) चला गया। 23 फरवरी, 1568 ई. को जयमल व फत्ता इस युद्ध में मारे गये (केसरिया) व उनकी रानियों ने फूल कँवर (फतेहसिंह की पत्नी) के नेतृत्व में जौहर किया, यह चित्तौड़ का तीसरा व अन्तिम साका था। 
 
जीतने के बाद अकबर ने उदयपुर का नाम ‘मुहम्मदाबाद’ करवा दिया तथा इस युद्ध में बहुत ज्यादा मुगल सैनिक मारे गये थे, जिसे देखकर अकबर बौखला उठा और उसने ‘इस्लाम की काफिरों पर विजय’ कहते हुये चित्तौड़ में कत्लेआम का आदेश दे दिया, जिसमें 30,000 व्यक्तियों का कत्लेआम करवाया। यह अकबर पर प्रथम व अंतिम अमिट कलंक है जो किसी से भी हट नहीं सकता फिर भी अकबर ने इस कलंक को मिटाने के लिए जयमल व फत्ता की गजारूढ़ संगमरमर की प्रतिमाएँ आगरा के किले के सामने लगवायी ।
 
ध्यातव्य रहे-राजस्थान में दोनों वीरों की मूर्ति जूनागढ़ (बीकानेर) दुर्ग के सामने 1594 में रायसिंह ने लगवाई।
 
कल्ला जी राठौड़, जिसके चाचा जयमल राठौड़ व बुआ मीरां बाई थी। वह भी इस युद्ध में लड़ रहे थे। रात को दुर्ग की निगरानी करते हुए जयमल राठौड़ के पैरों में गोली लगी, तो कल्ला जी अपने चाचा जयमल को अपने कंधों पर बैठाकर युद्ध करने ले गए। जयमल ऊपर से व कल्ला जी नीचे से सेना की कटिंग करने लगे। अकबर ने यह देखा तो कल्ला की गर्दन नहीं दिखी और उसने सेनापति से पूछा की ये चार हाथ वाला योद्धा कौन है, तो सैनिकों ने कहा कि ये तो कल्ला राठौड़ है। तभी से कल्ला जी को चार हाथ के देवता के नाम से जाना जाता है। कल्ला राठौड़ युद्ध करता हुआ मारा गया तथा उसकी छतरी चित्तौड़गढ़ दुर्ग में बनी हुई है।
 
उदयसिंह की 28 फरवरी, 1572 में होली के दिन गोगुन्दा में मृत्यु हो गई। यहीं पर उसकी छतरी बनी हुई है।
 
ध्यातव्य रहे- अकबर ने उदयसिंह को अपने अधीन करने के लिए दो शिष्टमण्डल पहला- राजा भारमल व दूसरा- टोडरमल व भगवंत दास के नेतृत्व में भेजे ।
 
उदयसिंह के मुख्यतया तीन पत्नियाँ थी एक रानी छज्जाबाई (पुत्र- शक्तिसिंह), दूसरी रानी धीर बाई भटियाणी (पुत्र-जगमाल) व तीसरी रानी जयवंताबाई (पुत्र-महाराणा प्रताप) । इनमें भटियाणी रानी खूबसूरत थी अतः उदयसिंह पर उसका जादू चल गया और भटियाणी ने अपने पुत्र जगमाल को उदयसिंह से अपना उत्तराधिकारी घोषित करवा लिया, जो कि उम्र में प्रताप से छोटा था। तब मेवाड़ के सरदारों के कहने पर प्रताप अपने नाना अखैराज सोनगरा की सैनिक सहायता से जगमाल को राजगद्दी से हटाकर स्वयं शासक बन गया। इससे जगमाल नाराज होकर अकबर के दरबार में चला गया, वहाँ अकबर ने उसे जहाजपुर की जागीर दी और जिंदगीभर प्रताप के विरूद्ध लड़ता रहा। 1583 ई. में हुये दत्ताणी के युद्ध में जगमाल मारा जाता है, जो सिरोही में है। दूसरी तरफ राणी छज्जाबाई का पुत्र शक्तिसिंह भी मेवाड़ छोड़कर अकबर की शरण में चला गया।
 
ध्यातव्य रहे- वागड़ प्रदेश को बांसवाड़ा व डूंगरपुर में विभाजित करने वाला शासक उदयसिंह था । 
 
 
 

महाराणा प्रताप (1572-1597 ई.)

 
महाराणा प्रताप का जन्म विक्रम संवत् 1597 ज्येष्ठ शुक्ला तृतीय, रविवार (9 मई, 1540 ई.) को कुंभलगढ़ दुर्ग के कटारगढ़ दुर्ग के भी ‘बादल महल’ में हुआ। प्रताप महाराणा उदयसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था, उसकी माता का नाम जयवंता बाई (पाली नरेश अखैराज सोनगरा चौहान की पुत्री थी।) था। महाराणा प्रताप का बचपन कुंभलगढ़ दुर्ग में ही व्यतीत हुआ। उसके बाद प्रताप ने अपने पिता उदयसिंह के साथ जंगलों, घाटियों और पहाड़ियों में रहकर कठोर जीवन व्यतीत किया।
 
ध्यातव्य रहे-पहाड़ी भाग में भील छोटे बच्चों को प्यार से कीका कहकर पुकारते थे। इसलिए महाराणा प्रताप भीलों में ‘कीका’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
 
महाराणा प्रताप का विवाह 1557 ई. में अजब दे पँवार के साथ हुआ जिनसे 16 मार्च, 1559 ई. में अमरसिंह का जन्म हुआ। जैसलमेर की राजकुमारी छीहर बाई भी महाराणा प्रताप की पत्नी थीं।
 
महाराणा प्रताप 32 वर्ष की उम्र के थे तो उनके पिता उदयसिंह की होली के दिन 28 फरवरी, 1572 ई. को गोगुंदा में मृत्यु हो गई । उदयसिंह का गोगुंदा में ही दाह संस्कार किया गया। जब दाह संस्कार किया जा रहा था, तो वहाँ उदयसिंह के छोटे पुत्र जगमाल को उपस्थित न पाकर ग्वालियर के राजा रामसिंह व पाली के राजा अखैराज सोनगरा (अक्षयराज) ने वहाँ उत्तराधिकारी के प्रश्न को उठाया। सभी राजपूत सरदारों की इच्छानुसार निर्णय लिया गया कि महाराणा प्रताप को मेवाड़ का शासक बनाया जाए। सभी सरदारों ने गोगुंदा जाकर जगमाल को गद्दी से हटाकर महाराणा प्रताप को गद्दी पर बैठाया, इस प्रकार महाराणा प्रताप का पहली बार राज्याभिषेक गोगुंदा में किया गया। उस राज्याभिषेक के समय प्रताप की कमर पर तलवार रावत कृष्णदास (राणा चूड़ा का पोता ) ने बाँधी । उसी समय महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की कि वह माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेगा।
 
ध्यातव्य रहे-जगमाल को गद्दी से हटाकर प्रताप को गद्दी पर बैठाना (प्रारंभिक उत्तराधिकारी संघर्ष) एक प्रकार की राजमहल की क्रांति कहलाती है।
 
महाराणा प्रताप का दूसरी बार राज्याभिषेक व समारोह कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ। इस समारोह में महाराणा प्रताप का अग्रगामी / भूलाबिसरा राजा/ विस्मृत नायक आदि उपनामों से प्रसिद्ध मारवाड़ के राठौड़ शासक राव चंद्रसेन भी उपस्थित थे। महाराणा प्रताप ने कुंभलगढ़ में राज सिंहासन धारण करते हुए शपथ ली कि “जब तक मैं चित्तौड़ को मुगलों से स्वतंत्र नहीं करा लूँगा तब तक न तो थाली में रोटी खाऊँगा और न ही बिस्तर पर लेदूँगा।” राणा ने आजीवन इस शपथ का पालन किया।
 
1570 ई. में अकबर का नागौर दरबार लगा जिसमें मेवाड़ के
 
अलावा अधिकतर राजपूतों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।
 
अकबर ने प्रताप को अधीनता स्वीकार करवाने के लिए चार दल भेजे जिनमें- पहली बार जलाल खाँ कोरची, जिसको सितम्बर, 1572 ई. में
 
प्रताप के पास भेजा गया।
 
दूसरी बार जून, 1573 ई. में मानसिंह (आमेर का शासक) को प्रताप को समझाने भेजा गया परंतु महाराणा प्रताप ने मानसिंह को यह कहते हुए कि “मैं सिसोदिया वंशीय प्रताप कछवाहा वंशीय राजपूतों से कोई संबंध नहीं रखना चाहता, राजपूत लोग अपनी बेटी और रोटी के टुकड़े नहीं करते, इसलिए मानसिंह आप ससम्मान वापस
 
लौट जाएँ।” लौटा दिया। तीसरी बार – सितम्बर, 1573 ई. में आमेर के भगवानदास को
 
भेजा गया।
 
चौथी बार दिसंबर, 1573 ई. में टोडरमल को भेजा गया।
 
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क्रमशः चारों शिष्ट मंडल को याद करने की शॉर्ट ट्रिक- ‘जमा भग टोडर’ या JMBT
 
ज – जलाल खाँ कोरची
 
मा – मानसिंह (प्रथम सात हजारी राजपूत मनसबदार)
 
भग  – भगवानदास (प्रथम राजपूत दीवान)
 
टोडर – टोडरमल (प्रथम राजस्व अधिकारी)
 
ये चारों शिष्टमंडल प्रताप को समझाने में असफल रहे, तो अकबर ने प्रताप को युद्ध के द्वारा बंदी बनाने की योजना बनाई। कर्नल टॉड ने इस आक्रमण का एक कारण मुहणौत नैणसी री
 
ख्यात पढ़कर यह बताया कि आमेर का मानसिंह महाराणा प्रताप को समझाने उदयपुर गया था। राणा ने उसको उदयसागर झील पर ठहराया और वहाँ राणा की तरफ से भोजन का आयोजन रखा गया। भोजन के समय स्वयं महाराणा प्रताप ने न आकर अपने पुत्र अमरसिंह को वहाँ भेज दिया। जब मानसिंह ने राणा के नहीं आने का कारण पूछा तो अमरसिंह ने बताया कि पिताजी अस्वस्थ हैं इसलिए भोजन में नहीं आ सकते। मानसिंह जान गया था कि राणा उससे घृणा करते है क्योंकि आमेर के कछवाहों ने अकबर से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए थे। मानसिंह वहाँ से बिना भोजन किए ही यह कहते हुए कि “मैं शीघ्र ही महाराणा के सिर दर्द का इलाज करने पुनः उदयपुर आऊँगा।” वापस लौट गया। इस पर वहाँ उपस्थित अमरसिंह ने कहा कि आप जब पुनः मेवाड़ आओ तो अपने फूफा (अकबर) को भी अपने साथ लेते आना।
 
मानसिंह ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए लौट कर अकबर से कहा कि यदि कभी मेवाड़ पर आक्रमण किया जाए तो इसके लिए मुझको मौका दिया जाए।
 
प्रताप को बंदी बनाने की योजना बनाई जा रही थी तो मानसिंह के जीवन की यह पहली लड़ाई थी जिसमें वह स्वयं सेनापति था। बंदी बनाने की योजना अजमेर में स्थित ‘अकबर के किले’ में जिसे ‘मैग्जीन का किला / अकबर का दौलत खाना’ कहा जाता है, में बनाई गई। अकबर ने मानसिंह को इस युद्ध का मुख्य सेनापति बनाया तथा मानसिंह का सहयोगी आसफ खाँ को नियुक्त किया गया।
 
मानसिंह 3 अप्रैल, 1576 ई. को शाही सेना लेकर अजमेर से रवाना हुआ। उसने पहला पड़ाव मांडलगढ़ में डाला और 2 माह तक वहीं पर रहा, उसके बाद वह आगे नाथद्वारा से लगभग 4-5 मील दूर स्थित और खमनौर के मोलेला नामक गाँव पहुँचा और अपना पड़ाव डाला। उधर इस शाही सेना के आगमन की सूचना महाराणा प्रताप को मिल गई थी।
 
महाराणा प्रताप कुंभलगढ़ से गोगुंदा की ओर चला गया और उसने गोगुंदा और खमनौर की पहाड़ियों के मध्य स्थित हल्दी घाटी नामक तंग घाटी में अपना पड़ाव डाला। इस घाटी में एक बार में एक आदमी या एक ही घुड़सवार प्रवेश कर सकता था। इसलिए सैनिकों की कमी होते हुए भी महाराणा प्रताप के लिए मोर्चाबंदी के लिए यह सर्वोत्तम स्थान था, जहाँ प्रताप के पहाड़ों से परिचित सैनिक आसानी से छिपकर आक्रमण कर सकते थे। वहीं मुगल सैनिक भटक कर मेवाड़ के सैनिकों से या भूखे प्यासे मरकर जीवन गँवा सकते थे। अंत में दोनों सेनाएँ हल्दीघाटी के पास लगे शिलालेखानुसार 18 जून, 1576 ई. तथा डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार 21 जून, 1576 ई. को प्रात:काल युद्ध भेरी के साथ आमने-सामने हुई ।
 
ध्यातव्य रहे-हल्दीघाटी युद्ध से पूर्व महाराणा प्रताप की सेना ने लौसिंग (राजसमंद) नामक स्थान पर पड़ाव डाला तो मानसिंह के नेतृत्व में मुगल सेना ने मोलेला (बनास नदी के तट – नाथद्वारा के समीप) नामक स्थान पर पड़ाव डाला।
 
राजपूतों ने मुगलों पर पहला वार इतना जोशीला किया कि मुगल सैनिक चारों ओर जान बचा कर भागे। मुगल इतिहासकार बदायूँनी जो कि मुगल सेना के साथ था, वह स्वयं भी उस युद्ध से भाग खड़ा हुआ। मुगलों की रिजर्व फौज के प्रभारी मिहत्तर खाँ ने यह झूठी अफवाह फैला दी कि ‘बादशाह अकबर स्वयं शाही सेना लेकर आ रहे हैं । ‘ अकबर के सहयोग की बात सुनकर मुगल सेना की हिम्मत बँधी और वो पुनः युद्ध के लिए तत्पर होकर आगे बढ़े। राजपूत भी पहले मोर्चे में सफल होने के बाद बनास नदी के किनारे वाले मैदान में जिसे ‘रक्तताल’ कहते हैं, में आ जमे। इसी युद्ध के मध्य हाथियों का युद्ध आरंभ हुआ। हाथियों की चिघांड़ से सारा युद्ध स्थल गूँज उठा। मानसिंह ने अपना हाथी आगे बढ़ाकर युद्ध गति को तीव्र कर दिया। महाराणा ने भी अपना हस्तिदल आगे बढ़ाया और दोनों पक्षों के हस्तिदल आपस में भिड़ गये।
 
ध्यातव्य रहे- मानसिंह के हाथी का नाम- मर्दाना व महाराणा प्रताप के हाथी का नाम-रामप्रसाद था, जिसको मुगल सेना ने पकड़कर अकबर के पास पहुँचाया। अकबर ने उस हाथी का नाम बदलकर पीर प्रसाद कर दिया। अन्य हाथियों के नाम-लूणा, गजराज, रनमदार, सोनू आदि थे, जिनके मध्य युद्ध हुआ ।
 
हाथियों का युद्ध थमा और दूसरे दिन पुनः युद्ध शुरू हुआ। महाराणा प्रताप अपने राजपूतों के साथ मैदान में उतरा तभी उसकी नज़र मुगल सेना के सेनापति मानसिंह पर पड़ी। महाराणा प्रताप ने अपने स्वामीभक्त घोड़े चेतक को ऐड़ लगाई। चेतक स्वामी की बात समझकर अपने कदम उस ओर बढ़ाया, जिधर मुगल सेनापति मानसिंह ‘मर्दाना’ नामक हाथी पर बैठा हुआ था।
 
महाराणा प्रताप ने शत्रुदल को चीरते हुए मानसिंह के पास पहुँचकर चेतक को ऐड़ लगाई तो चेतक अपने स्वामी की इच्छा समझकर अपने पैर हाथी के सिर पर टिका दिए अब क्या था बस मौका पाकर महाराणा प्रताप ने अपने भाले का भरपूर प्रहार मानसिंह पर किया परंतु मानसिंह हौदे में छिप गया और उसके पीछे बैठा अंगरक्षक मारा गया व हौदे की छतरी का एक खंभा टूट गया। चेतक इस प्रहार को सफल समझकर अपने पैर हाथी के सिर से हटा रहा था तो उसी समय हाथी की सूँड़ में बँधे हुए जहरीले खंजर से चेतक की टाँग कट गई। इससे चेतक के भारी घाव लगा किंतु चेतक ने स्वामी को इसका आभास तक नहीं होने दिया।
 
उसी समय मुगलों की शाही सेना ने प्रताप को चारों ओर से घेर लिया। यह दृश्य बड़ी सादड़ी का झाला मन्ना / मानसिंह (डॉ. बी.एल. पनगड़िया ने इसी झाला मन्ना का नाम झाला बींदा भी बताया है।) दूर खड़ा देख रहा था। झाला मन्ना/बींदा सेना को चीरते हुए राणा पास पहुँचा और महाराणा से निवेदन किया कि “आप राजचिह्न उतार कर मुझे दे दीजिए और आप इस समय युद्ध के मैदान से चले जाएँ इसी में मेवाड़ की भलाई है।” परिस्थिति को देखकर राणा ने वैसा ही किया। राजचिह्न के बदलते ही सैंकड़ों तलवारे झाला मन्ना/ बींदा पर टूट पड़ी। झाला मन्ना/बींदा इन प्रहारों का भरपूर सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।
 
ध्यातव्य रहे- महाराणा प्रताप की ओर से हल्दीघाटी में सेना का नेतृत्व हकीम खाँ सूरी, लूणकरण भाटी, भामाशाह, झाला मानसिंह, पूँजा (भीलू राणा) ने किया, जबकि अकबर की सेना का नेतृत्व मानसिंह प्रथम, आसफ खाँ, जगन्नाथ कच्छवाहा ने किया। 
 
ध्यातव्य रहे-हल्दीघाटी के युद्ध में हकीम खाँ सूरी एकमात्र मुस्लिम सेनापति था, जो हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। इसका मकबरा खमनौर (राजसमंद) में बना हुआ है।
 
महाराणा प्रताप युद्ध के मैदान से बाहर जा रहे थे तो उनको दो मुगल सैनिकों ने देख लिया। मुगल सैनिकों ने महाराणा प्रताप का पीछा किया तभी पीछा करते हुए मुगल सैनिकों पर महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्तिसिंह, जो कि अकबर के दरबार में था, की नज़र पड़ी। शक्तिसिंह ने अपने भाई को संकट में पड़ा देखकर उसका भ्रात प्रेम जाग उठा और उसने मुगलों का पीछा कर उनको मार दिया।
 
महाराणा प्रताप का स्वामीभक्त घोड़ा चेतक बलीचा गाँव में स्थित एक छोटा नाला पार करते हुए परलोक सिधार गया। इसी जगह ‘बलीचा गाँव’ (हल्दीघाटी, राजसमंद) में चेतक की छतरी बनी हुई है। महाराणा प्रताप जो कभी भी परिस्थिति में नहीं रोए परंतु चेतक की मृत्यु पर उनकी आँखों से आँसू निकल पड़े। उसी समय ‘ओ नीला घोड़ा रा असवार’ शब्द राणा ने सुने। प्रताप ने सिर उठाकर देखा तो सामने उसके भाई शक्तिसिंह को पाया। शक्तिसिंह ने अपनी करनी पर लज्जित होकर बड़े भाई के चरण पकड़ कर क्षमा याचना माँगी और महाराणा प्रताप ने उसे गले लगाया और क्षमा कर दिया। इसकी जानकारी हमें ‘अमर काव्य वंशावली ग्रंथ व राजप्रशस्ति’ से मिलती है जिसकी रचना संस्कृत भाषा में रणछोड़ भट्ट नामक विद्वान ने की।
 
ध्यातव्य रहे-महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी युद्ध के समय मुख्य नियंत्रण केन्द्र के रूप में केलवाड़ा (राजसमंद) को बनाया, तो युद्ध समाप्ति के पश्चात् महाराणा प्रताप ने अपना मुख्य केन्द्र कुंभलगढ़ दुर्ग को बनाया ।
 
इस युद्ध में मुगलों की विजय हुई। यद्यपि इसे डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने ‘अनिर्णित युद्ध की संज्ञा’ दी है। मुगलों ने महाराणा प्रताप की सेना के बारे में शौर्य की गाथाएँ ही सुनी थी। आज इस साहस और इस शौर्य को प्रत्यक्ष रूप से देख लिया था। इसलिए विजय के बाद भी मुगल सैनिक इतने घबराए हुए थे कि युद्ध के बाद अपने शिविर के चारों ओर ऊँची-ऊँची मोटी मिट्टी की दीवारें खड़ी करवा दीं ताकि कहीं राजपूतों के घोड़े लाँघ कर न आ जाये।
 
महाराणा प्रताप युद्ध भूमि से कौल्यारी गाँव (उदयपुर) पहुँचे जहाँ उन्होंने अपना व घायल सैनिकों का इलाज़ करवाया और कौल्यारी गाँव के पास ही कमलनाथ पर्वत के निकट ‘आवरगढ़’ में अपनी अस्थायी राजधानी स्थापित की।
 
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हल्दीघाटी युद्ध (राजसमंद) का सजीव चित्रण अब्दुल कादिर बदायूँनी खाँ ने अपनी पुस्तक ‘मुंतख्वाब-उल- तवारीख’ में करते हुए इस युद्ध को ‘गोगुंदा का युद्ध’ कहा है। इस युद्ध को अबुल फजल ने अपनी पुस्तक ‘अकबर नामा’ में ‘खमनौर का युद्ध’ कहा है। कर्नल जेम्स टॉड ने इसे ‘मेवाड़ की थर्मोपल्ली या राजस्थान की थर्मोपल्ली’ कहा है तथा आसफ खाँ ने इसे ‘जिहाद का युद्ध’ कहा। इस युद्ध के समय बनास नदी का प्रवाह क्षेत्र होने के कारण ‘बनास का युद्ध’ एवं इस युद्ध की शुरुआत हाथियों के युद्ध से हुई इसी कारण इसे ‘हाथियों का युद्ध’ तथा गोगुंदा व खमनौर की पहाड़ियों के मध्य पीली रंग की मिट्टी होने के कारण इसे इतिहासकार ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ भी कहते हैं।
 
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद अकबर ने महमूद खाँ नामक व्यक्ति को इस युद्ध व सेना संबंधी जानकारी लेने के लिए भेजा था। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद मानसिंह अकबर के पास पहुँचा तो अकबर उससे काफी नाराज़ हो गया क्योंकि उसने न तो प्रताप को पूरी तरह पराजित किया और न ही अपने साथ मुगल दरबार में लेकर आया इसलिए अकबर ने मानसिंह को दी हुई सात हजारी मनसबदारी छीन ली और उसके घोड़ों को शाही दाग से मुक्त कर दिया।
 
इस युद्ध के चार माह उपरांत स्वयं अकबर ने मेवाड़ पर आक्रमण करके नवंबर, 1576 ई. में उदयपुर को जीत लिया तथा उसका नाम ‘मुहम्मदाबाद’ कर दिया। अकबर भी महाराणा प्रताप को पूर्ण पराजित नहीं कर सका।
 
कुंभलगढ़ का युद्ध
 
हल्दीघाटी के युद्ध के काफी समय बाद अकबर ने शाहबाज खाँ को महाराणा प्रताप से युद्ध करने के लिए भेजा। युद्ध में जाने से पूर्व प्रताप ने अपने मामा अर्थात् अखैराज के पुत्र मानसिंह (भाण) सोनगरा को कुंभलगढ़ के किले की जिम्मेदारी सौंपी और स्वयं सेना को अर्द्धरात्रि में अपने साथ लेकर दुर्ग से निकल पड़ा। शाहबाज खाँ ने 1578 ई. में कुंभलगढ़ पर आक्रमण किया और वहाँ 3 अप्रैल, 1578 ई. को विजय प्राप्त की। यह पहली बार हुआ जब किसी ने इस अजेय दुर्ग (कुंभलगढ़ दुर्ग ) को जीता। कर्नल जेम्स टॉड ने कुंभलगढ़ दुर्ग को ‘सार्वभौमिक स्थल का युद्ध’ कहा है।
 
ध्यातव्य रहे- अकबर ने शाहबाज खाँ को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए दूसरी बार दिसम्बर, 1578 ई. में एवं तीसरी बार नवम्बर, 1579 ई. में भेजा, परन्तु शाहबाज खाँ प्रताप को पकड़ने में असफल रहा।
हारने के बाद महाराणा प्रताप रणकपुर व वहाँ से मेवाड़ की सीमा पार कर ईडर चले गए। कुंभलगढ़ युद्ध के उपरांत महाराणा प्रताप की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई। चूलिया ग्राम के समीप दोलाप गाँव में भामाशाह व उसके भाई ताराचंद प्रताप के मंत्री ने महाराणा प्रताप से भेंट कर 25 लाख रुपए व 2 हजार सोने की अशर्फियाँ देकर आर्थिक मदद की। जिससे महाराणा प्रताप ने 25 हजार सेना का 12 वर्ष तक खर्चा निर्वाह किया। इस मदद के कारण भामाशाह को ‘मेवाड़ का दानवीर’ तथा ‘मेवाड़ का उद्धारक’ कहा जाता है, तो जेम्स टॉड ने इसे ‘मेवाड़ का कर्ण’ कहा।
 
ध्यातव्य रहे- भामाशाह का जन्म 28 जून, 1547 ई. को रणथम्भौर में हुआ जबकि वो पाली के निवासी थे ।
 
1580 ई. में अकबर ने शाहबाज खाँ को बुलाकर अब्दुर्रहीम खानखाना को प्रताप के विरुद्ध युद्ध करने भेजा। अब्दुर्रहीम खानखाना के साथ उसका पूरा परिवार भी आया जिसको वह शेरपुर में छोड़कर संघर्ष की तैयारी में जुट गया। महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह ने मौका पाकर शेरपुर पर आक्रमण कर अब्दुर्रहीम खानखाना के परिवार को बंदी बना लिया। महाराणा प्रताप इससे नाराज़ हुए और उन्होंने अमरसिंह को अब्दुर्रहीम खानखाना के परिवार को ससम्मान वापस छोड़कर आने को कहा। इस व्यवहार से अब्दुर्रहीम खानखाना के मन में प्रताप के विरुद्ध युद्ध न करने का विचार आया, जिसके चलते 1581 ई. के लगभग अकबर ने प्रताप के विरुद्ध युद्ध के विचार को त्याग दिया।
 

दिवेर का युद्ध / मैराथन ऑफ मेवाड़

 
महाराणा प्रताप ने आक्रमण नीति के तहत् अपनी सेना व सेनापति अमरसिंह के साथ अक्टूबर, 1582 ई. में दिवेर पर भयंकर आक्रमण किया। उस समय दिवेर का किलेदार व अकबर की सेना का सेनापति अकबर का काका सरिया सुल्तान खाँ था। अमरसिंह ने सरिया सुल्तान खाँ पर भाले का वार किया जो उसके तथा घोड़े के शरीर को पार करते हुए ज़मीन में धँस गया। सरिया के बुत (स्टेच्यू) को देखकर बाकी मुगल सेना भाग गई। महाराणा प्रताप ने गुरिल्ला (छापामार युद्ध पद्धति का प्रयोग करते हुए इस युद्ध को जीत लिया। युद्ध स्थल-सातपालियां की नाल, दिवेर (राजसमंद) है।
 
ध्यातव्य रहे- इसी के साथ मेवाड़ की मुक्ति का एक लंबा संघर्ष शुरू हुआ इसलिए कर्नल जेम्स टॉड ने दिवेर के युद्ध को ‘प्रताप के गौरव का प्रतीक’ माना और इस युद्ध को ‘मेवाड़ का मैराथन’ की संज्ञा दी। वर्तमान में दिवेर (राजसमंद) में मेवा का मथारा नामक स्थान पर विजय स्मारक बना है। दिवेर के युद्ध में प्रताप ने मुगल गढ़ पर आक्रमण किया, जिसके कारण अकबर के द्वारा मेवाड़ की 36 मुगल चौकियों को बंद करना पड़ा था, अकबर का अंतिम प्रयास
 
मुगल सम्राट अकबर ने 5 दिसम्बर, 1584 ई. को आमेर के भारमल के छोटे पुत्र जगन्नाथ कछवाहा को प्रताप के विरुद्ध भेजा। जगन्नाथ कछवाहा को भी इसमें सफलता नहीं मिली अपितु जगन्नाथ कछवाहा की मांडलगढ़ में मृत्यु हो गई, जहाँ पर महाराणा प्रताप ने आमेर के मानसिंह व जगन्नाथ कछवाहा के आक्रमण का बदला लेने के लिए आमेर के क्षेत्र पर आक्रमण कर आमेर राज्य के संपन्न कस्बे मालपुरा को लूटा व झालरा तालाब के निकट शिव मंदिर ‘नीलकण्ठ महादेव मंदिर’ का निर्माण करवाया। आज भी जगन्नाथ (जगदीश) कछवाहा की 32 खंभों की छतरी मांडलगढ़ में स्थित है।
 
इस विजय के पश्चात् महाराणा प्रताप ने 1585 ई. के लगभग मेवाड़ के पश्चिमी-दक्षिणी भाग जो कि छप्पन के नाम से प्रसिद्ध था, वहाँ के लूणा चावण्डियाँ को पराजित कर चावंड को अपनी आपातकालीन राजधानी बनाया। यह चावंड 1585 ई. से अगले 28 वर्षों तक मेवाड़ की राजधानी. रही। यहीं पर महाराणा प्रताप ने चामुंडा माता का मंदिर बनवाया ।
 
ध्यातव्य रहे- दिवेर की विजय व चावंड को राजधानी बनाने के बाद महाराणा प्रताप चित्तौड़ व मांडलगढ़ को छोड़कर शेष पूरे मेवाड़ पर अपना अधिकार कर लिया। 
1597 ई. में धनुष बाण की प्रत्यंचा चढ़ाते हुए महाराणा प्रताप के पैर पर चोट लगी, जिसके कारण 19 जनवरी, 1597 ई. को उसकी • चावंड में मृत्यु हो गई। चावंड से 11 मील दूर बांडोली गाँव के निकट बहने वाले नाले के तट पर महाराणा का दाह संस्कार किया गया। जहाँ पर केजड़ बाँध के किनारे 8 खंभों की छतरी आज भी हमें उस महान योद्धा की याद दिलाती है।
 
प्रताप की मृत्यु का समाचार अकबर के कानों तक पहुँचा तो उसे भी बड़ा दुख हुआ। इस स्थिति का वर्णन अकबर के दरबार में उपस्थित दुरसा हाड़ा ने इस प्रकार किया, “अस लेगो अणदाग पाग लेगो अनामी गहलोत राण जीती गयी दसण मूँद रसणा सी नीसास मूक मरियानयण तो मृत शाह प्रतापसी” आशय यह था कि राणा प्रताप तेरी मृत्यु पर बादशाह ने दाँत में जीभ दबाई और निःश्वास से आँसू टपकाए क्योंकि तूने अपने घोड़े को नहीं दगवाया और अपनी पगड़ी को किसी के सामने नहीं झुकाया वास्तव में तू सब तरह से जीत गया।
 
कर्नल जेम्स टॉड ने प्रताप के बारे में कहा कि अकबर की उच्च महत्त्वाकाँक्षा, शासन निपुणता और असीम साधन ये सब बातें दृढ़चित महाराणा प्रताप की अदम्य वीरता कीर्ति को उज्ज्वल रखने वाला दृढ़ साहस और अध्यवसाय को दबाने में कोई भी घाटी नहीं जो प्रताप के किसी-न-किसी वीर कार्य उज्ज्वल विजय या उसके अधिक कीर्ति युक्त पराजय से पवित्र न हुई हो। हल्दीघाटी ‘मेवाड़ की थर्मोपल्ली’ और दिवेर ‘मेवाड़ का मैराथन’ है। कर्नल जेम्स टॉड ने पिछोला झील की पाल के महलों में राणा की मृत्यु होना बताया है तथा प्रताप को ‘मेवाड़ केसरी’ कहकर पुकारा ।
 
ध्यातव्य रहे- सिसोदिया वंश में महाराणा प्रताप को युवराज का खिताब दिया गया और मेवाड़ का 54वां शासक नियुक्त किया गया तो महाराणा मेवाड चेरिटेबल फाउण्डेशन- स्थित है।

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