राजस्थान में जनजातीय आन्दोलन

राजस्थान में भील, मीणा, मेर, गरासिया आदि जनजातियाँ प्राचीन काल से ही निवास करती आई हैं। राजस्थान के डूंगरपुर व बांसवाड़ा क्षेत्र में भील जनजाति का बाहुल्य है। मेवाड़ राज्य की रक्षा में यहाँ के भीलों ने सदैव महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसलिए मेवाड़ राज्य के राजचिह्न में राजपूत के साथ एक धनुष धारण किए हुए भील का चित्र भी अंकित है। अंग्रेजों द्वारा लागू की गई आर्थिक, सामाजिक व प्रशासनिक नीतियों के विरोध के फलस्वरूप सर्वप्रथम राजस्थानी जनजातियों व आदिवासियों ने जनजातीय आन्दोलन किया।
 

मेर जनजातीय आन्दोलन

 
राजस्थान में स्थानीय सामंतवाद और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बीच अपवित्र गठबंधन का सबसे पहले प्रतिरोध मेर एवं भील आदिवासियों के द्वारा किया गया ।
 
मेर विद्रोह के प्रमुख कारण इस प्रकार है-
 
(1) मेरों द्वारा आबाद क्षेत्रों के भू-भाग मेवाड़, मारवाड़ व अजमेर के अन्तर्गत थे लेकिन मेरों पर इनका राजनीतिक व प्रशासनिक नियंत्रण नहीं था और अंग्रेजों द्वारा उन्हें पूर्ण नियंत्रण में लाने का प्रयास किया गया,
 
(2) आदिवासियों के द्वारा आबाद क्षेत्र विद्रोहियों के लिये सुरक्षित शरण स्थल होते थे तथा
 
(3) अंग्रेज मेरों पर राजस्व थोपना चाहते थे।
 
इस प्रकार मेरों को ब्रिटिश राजनीतिक सत्ता व नियंत्रण में लाने के प्रयासों के फलस्वरूप मेरों द्वारा विद्रोह किया गया।
 
अजमेर के अंग्रेजी सुपरिन्टेन्डेन्ट एफ. विल्डर के द्वारा 1818 ई. में झाक एवं अन्य गाँवों जो मेरवाड़ा क्षेत्र के केन्द्र थे, के साथ समझौता किया गया, जिसके तहत् मेरों ने लूटपाट न करने की सहमति प्रदान की, तो वहीं विल्डर ने मार्च, 1819 ई. में किसी साधारण घटना को मेरों के द्वारा उपर्युक्त समझौते को तोड़ना सिद्ध करते हुए मेरवाड़ा पर आक्रमण कर दिया।
 
कर्नल जेम्स टॉड के द्वारा भी मेवाड़ राज्य की ओर से मेरों के विरूद्ध इसी प्रकार के उपाय अपनाये गये थे। मेरों ने 1820 ई. की शुरूआत से ही जगह-जगह विद्रोह करना प्रारम्भ कर दिया था, तो वहीं नवम्बर, 1820 ई. में उन्होंने झाक गाँव में स्थित पुलिस चौकी को जला दिया और कई सिपाहियों की हत्या कर दी।
 
बढ़ते हुए मेर विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजी सेना की 3 बटालियनों और मेवाड़ एवं मारवाड़ की संयुक्त सेनाओं ने मेरों पर आक्रमण कर जनवरी, 1821 ई. तक |मेर विद्रोह का दमन कर दिया। मेरवाड़ा क्षेत्र तीन भागों में बँटा हुआ था- अजमेर (अंग्रेज ), मेवाड़ व मारवाड़।
 
अतः अंग्रेजों द्वारा सम्पूर्ण क्षेत्र को एक ब्रिटिश अधिकारी के नियंत्रण में रखने का निर्णय लिया गया, तो वहीं इस अधिकारी के नियंत्रण में 70 सैनिक प्रति कंपनी के हिसाब से 8 कंपनियों की एक बटालियन मेरों में से ही भर्ती कर 1822 ई. में मेरवाड़ा बटालियन का गठन किया गया, जिसका मुख्यालय ब्यावर (अजमेर) में बनाया गया था।
 
 
ध्यातव्य रहे- वर्तमान में मेर नामक कोई जनजाति अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत नहीं है तथा वर्तमान में इन लोगों को रावत नाम से जाना जाता है। इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार गुहिलों के पूर्व मेवाड़ क्षेत्र मेर/मेड़ लोगों के द्वारा आबाद था, जिस कारण इस क्षेत्र का नाम मेवाड़ पड़ा, तो वहीं मेरात मुसलमान हैं एवं इनकी उत्पत्ति मेरों से हुई है, जिन मेरों ने इस्लाम धर्म अपना लिया वे मेरात कहलाये।
 
ब्रिटिश काल में मेर लोग अजमेर, मेवाड़ व मारवाड़ क्षेत्र में निवास करते थे तथा 1901 ई. में मेरों की जनसंख्या मेरात व रावत सहित 66268 थी। मेर जनजाति को मीणा जनजाति परिवार का सदस्य माना जाता है, तो वहीं इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने इन्हें मीणाओं की एक शाखा के रूप में बताया है। मेर हमेशा राजपूत, तुर्क, मुगल, मराठा एवं अंग्रेजों के लिए समस्या बने रहे। (जनजातीय आन्दोलन)
 

मेव जनजातीय आन्दोलन

 
मेव मुख्य रूप से राजस्थान के अलवर व भरतपुर जिलों में केन्द्रित है। किसी समय यह क्षेत्र मीनावाटी के नाम से जाना जाता था, जो बाद में मेवात हो गया। मेवों और मीणाओं में अनेक समानतायें मिलती है, लेकिन मेव मीणाओं से एक अर्थ में पूरी तरह भिन्न है, वह है- धर्म, तो वहीं मेव इस्लाम धर्म के अनुयायी है, परन्तु साथ ही वे हिन्दू परम्पराओं को भी मानते है। मध्यकाल में मेवों ने केन्द्रीय सत्ताओं का विरोध किया, तो वहीं 1932 ई. में अलवर के तथा 1933 ई. में भरतपुर के मेवों ने ब्रिटिश नीतियों के विरूद्ध विद्रोह किया। 1901 ई. में राजस्थान में मेवों की जनसंख्या 168598 थी।
 

भील जनजातीय आन्दोलन

 
ब्रिटिश शासन से पहले भील निर्बाध जंगल अधिकारों का उपयोग करते थे, अब उन पर कई प्रतिबन्ध लगा दिये गये, तो वहीं भीलों पर राजस्व थोपने और पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के प्रयासों ने भीलों में अशान्ति उत्पन्न कर दी। उल्लेखनीय है कि भील अपनी पाल के समीप ही गाँवों से रखवाली (चौकीदारी कर) तथा अपने क्षेत्रों से गुजरने वाले माल व यात्रियों से बोलाई (सुरक्षा कर) वसूल करते थे, तो वहीं अंग्रेजों द्वारा उनसे ये अधिकार छीन लिए गए। (जनजातीय आन्दोलन)
 
1818 ई. के अंत तक मेवाड़ राज्य के भीलों द्वारा यह चेतावनी देते हुए अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी गयी थी, कि यदि सरकार द्वारा उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया जायेगा तो वे सरकार के विरूद्ध विद्रोह कर देंगे। ब्रिटिश व उदयपुर राज्य की संयुक्त सेनाओं ने दिसम्बर, 1823 ई. तक भील विद्रोह को दबाने में सफलता प्राप्त की। डूंगरपुर व बाँसवाड़ा राज्यों के भीलों द्वारा भी अल्प अशांति उत्पन्न की गई तथा 1825 ई. में भी आदिवासी विद्रोह की कुछ घटनाएँ हुयी।
 
12 मई, 1825 ई. को डूंगरपुर राज्य के लीम्बराबारू के भीलों द्वारा अंग्रेजों के साथ विद्रोह न करने का एक समझौता किया गया तथा इसी प्रकार का समझौता डूंगरपुर राज्य की सिमूरवास, देवल एवं नन्दू पालों के भीलों के द्वारा भी किया गया था। 
 
अंग्रेजों व उदयपुर राज्य के खिलाफ जनवरी, 1826 ई. में गरासिया व भील मुखिया दौलत सिंह व गोविन्दरा के द्वारा विद्रोह कर पुलिस थानों पर आक्रमण किया गया और सैकड़ों सिपाहियों को मार दिया गया, , तो वहीं 1828 ई. में दौलत सिंह के आत्मसमर्पण के बाद यह विद्रोह खत्म हुआ और भीलों को बोलाई कर का अधिकार देने के साथ ही दौलत सिंह को बबूलबाड़ा व जावास की भील जागीर दी गयी। बाँसवाड़ा राज्य में 1836 ई. में भील उपद्रव हुये, जिन्हें बाँसवाड़ा के महारावल द्वारा ब्रिटिश सेना की मदद से तुरंत नियंत्रित कर लिया गया था।
 
भीलों का दमन करने के लिये 1836 ई. में जोधपुर लीजियन नामक सेना का गठन किया गया। प्रारम्भ में इसका मुख्यालय अजमेर था, जिसे जनवरी, 1837 ई. में सिरोही राज्य के बड़गाँव नामक स्थान पर स्थानान्तरित कर दिया गया, तो वहीं मार्च, 1842 ई. में इसका मुख्यालय सिरोही राज्य में ही बड़गाँव से एरिनपुरा (पाली) स्थानान्तरित कर दिया गया था। भीलों पर नियंत्रण रखने का दूसरा प्रयास 1841 ई. में मेवाड़ भील कोर की स्थापना था, जिसका मुख्यालय खैरवाड़ा (उदयपुर राज्य) में था।
 
1844 ई. में बाँसवाड़ा राज्य में छुटपुट भील विद्रोह हुए, जिसको आगे चलकर 1846 ई. के कुंवार जिवे बसावो के नेतृत्व में गुजरात के भील विद्रोह से बढ़ावा मिला . तो वहीं 1850 ई. तक बाँसवाड़ा राज्य ने ब्रिटिश सेना की सहायता था, से इस विद्रोह को कुचल दिया।
 
दिसम्बर, 1855 ई. में उदयपुर राज्य के कालीवास में भीलों द्वारा विद्रोह किया गया और मेवाड़ महाराणा ने मेहता सवाई सिंह को नवम्बर, 1856 ई. में सेना सहित भीलों के दमन के लिये भेजा, जिसने आक्रामक कार्यवाही के द्वारा भीलों को शांत कर दिया, तो वहीं 1857 ई. की क्रांति के दौरान भी भील विद्रोह होने की संभावना थी मगर भीलों, मेरों, गरासियों व मीणाओं की पलटनें अंग्रेजों के प्रति स्वामीभक्त रही।
 
ध्यातव्य रहे- भारत में भीलों की प्रथम सेना 1825 ई. में बम्बई प्रांत में स्थापित हुई, जिसे खानदेश भील कॉर्पस के नाम से जाना गया। (जनजातीय आन्दोलन)
 
उदयपुर के समीप खैरवाड़ा क्षेत्र के भीलों ने 1861 ई. में उपद्रव किया तथा कोटड़ा के भीलों ने 1863 ई. में विद्रोह किया, तो वहीं इन विद्रोहों की जिम्मेदारी मेवाड़ भील कोर के कमाडिंग ने उदयपुर राज्य की भीलों के प्रति नीति को बताया। 1864 ई. में करवड़, परसाद, नठारा व इनके समीप की पालों के भील चोरी व डकैती करने लगे।
 
मेवाड़ भील कोर के कमान्डिंग अधिकारी ने इस सम्बन्ध में मगरा जिले के नवनियुक्त हाकिम मेहता व रघुनाथसिंह के विरुद्ध शिकायत की और हाकिम को स्थानान्तरित कर भील विद्रोह को शान्त किया गया, तो वहीं 1867 में खैरवाड़ा और डूंगरपुर के मध्य देवलपाल के भीलों ने विद्रोह किया, जिसे मेवाड़ भील कोर के द्वारा कुचल दिया गया और 1868 ई. में बाँसवाड़ा राज्य व अंग्रेजों के मध्य एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार अंग्रेजों को भीलों को कुचलने की निरंकुश शक्तियाँ प्राप्त हो गई।
 
सोदलपुर के भील मुखिया दल्ला ने 1872-73 ई. में बराड़ (भीलों द्वारा राज्य को सत्ता के प्रतीक के रूप में दिया जाने वाला कर) मुद्दे पर बाँसवाड़ा के महारावल के विरुद्ध बगावत कर दी और उसके द्वारा एक भील सेना का गठन किया गया, जिसमें 8000 भीलों को भर्ती किया गया था, तो वहीं ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेन्ट की सलाह ने पर महारावल ने दल्ला की शर्तों पर समझौता कर इस विद्रोह को शान्त किया।
 
भूरीखेड़ा के भील मुखिया देवा व ओंकारमा रावत ने जून, 1875 ई. में विद्रोह किया और भूरीखेड़ा एवं पीपलखूट गाँवों के भीलों में दिसम्बर, 1875 ई. में आपसी झगड़ा हो गया, जिससे भील विद्रोह स्वतः ही खत्म हो गया। (जनजातीय आन्दोलन)
 
 
उदयपुर राज्य के भील 1881-1882 ई. में अंग्रेजों व राज्य के विरुद्ध उठ खड़े हुए, जो 19वीं सदी का सबसे भयानक भील विद्रोह सिद्ध हुआ तथा इस समय मेवाड़ पर महाराणा सज्जनसिंह का शासन था, तो वहीं परम्परागत अधिकारों पर रोक, अत्यधिक करारोपण, मावड़ी (स्थानीय शराब ) निकालने पर प्रतिबन्ध, भूमि बन्दोबस्त, अवैध धन उगाही, डाकन प्रथा पर प्रतिबंध ( 1853 ई.), ऋषभदेव मन्दिर का सीधा नियन्त्रण (1877 ई) तथा जनगणना (1881 ई.) का कार्य प्रारम्भ इत्यादि इस विद्रोह के प्रमुख कारण माने जाते हैं। (जनजातीय आन्दोलन)
 
बारापाल के थानेदार सुन्दरलाल ने 25 मार्च, 1881 ई. को पड़ौना गाँव के दो गमेतियों रूपा और कुबेरा को साक्ष्य हेतु बुलाया और बुलावे का पालन न करने पर थानेदार पुलिस दल सहित पड़ौना पहुँचा, जिससे भील उत्तेजित हो गए, तो वहीं 26 मार्च, 1881 ई. को बारापाल, टोडि और पड़ौना के भीलों द्वारा बारापाल की पुलिस चौकी व थाने पर आक्रमण कर थानेदार सहित सभी सिपाहियों को मार दिया गया। (जनजातीय आन्दोलन)
 
राज्य की सेनाएं 26 मार्च, 1881 ई. की रात में राज्य प्रतिनिधि मामा अमानसिंह एवं अंग्रेज प्रतिनिधि लोनारगन के नेतृत्व में बारापाल पहुँची और इनके साथ महाराणा का निजी सचिव श्यामलदास भी था, तो वहीं 30 मार्च, 1881 ई. को भीलों व सेना के मध्य वास्तविक युद्ध शुरू हो गया और चार दिन तक निरन्तर संघर्ष के उपरान्त सेनाएं सघन जंगल, पहाड़ी एवं संकरी घाटियों में कठिनाइयों के कारण भीलों के दमन में असफल रही तथा निराश सेना ने सुरक्षात्मक स्थिति लेकर ऋषभदेव में डेरा डाल दिया।
 
लगभग 8000 भीलों ने इन्हें घेर लिया तथा इस विद्रोह के प्रमुख नेता बीलखपाल का नीमा, पीपली का खेमा व सगातरी का जोयता थे, तो वहीं मेवाड़ के महाराणा के निजी सचिव श्यामलदास द्वारा ऋषभदेव मन्दिर के पुजारी खेमराज भंडारी के माध्यम से भील नेताओं से वार्ता शुरू की गई और भीलों ने 10 अप्रेल, 1881 ई. को अपनी मांगें प्रस्तुत की, जिनके आधार पर 25 अप्रेल, 1881 ई. को भीलों के साथ एक समझौता हो गया।
 
इस समझौते के तहत भीलों को अनेक रियायतें प्राप्त हुई और राज्य के अधिकारी आधा बराड़ कर (प्रतीकात्मक कर) छोड़ने, बोलाई कर का अधिकार, भीलों को जनगणना कार्यों से कष्ट न पहुँचाने एवं भीलों को माफी देने पर सहमत हो गए, तो वहीं भीलों ने राज्य के नियमों के पालन करने का वचन देते हुए विद्रोहात्मक गतिविधियों में संलग्न न होने की स्वीकृति प्रदान की।
 

गोविन्द गिरि के नेतृत्व में

भगत जनजातीय आन्दोलन

 
भीलों के भगत आंदोलन के प्रणेता गोविन्द गिरि थे और डूंगरपुर के बेड़सा (बसिया) ग्राम में एक बनजारे परिवार में गोविन्द गिरि का जन्म 1858 ई. में हुआ था, तो वहीं गोविन्द गिरि पर आर्य समाज व स्वामी दयानन्द सरस्वती का प्रभाव माना जाता है तथा वह कोटा-बून्दी अखाड़े के साधु राजगिरि के शिष्य बने।
 
1883 ई. में गोविन्द गिरि ने सिरोही में सम्प सभा (प्रेम सभा) की स्थापना की तथा बेड़सा गाँव में धूनी स्थापित कर एवं निशान (ध्वज) लगाकर आसपास के भीलों को सामाजिक व आध्यात्मिक शिक्षा देना शुरू कर दिया, तो वहीं सम्प सभा का प्रथम अधिवेशन 1903 ई. में मानगढ़ (बाँसवाड़ा) में हुआ था तथा प्रतिवर्ष यहाँ अधिवेशन होने लगा। (जनजातीय आन्दोलन)
 
उन्होंने अपने उपदेशों में समाज एवं धर्म सुधार कार्यों को प्राथमिकता दी तथा अपने सुधार कार्यों के कारण गोविन्द गिरि बाँसवाड़ा, डूंगरपुर एवं सीमावर्ती गुजरात के भील क्षेत्रों में लोकप्रिय हो गये, तो वहीं गोविन्द गिरि की लोकप्रियता के कारण डूंगरपुर राज्य के अधिकारी व जमींदार चिंतित होने लगे और अन्ततः 1908 ई. में गोविन्द गिरि को बेड़सा गाँव छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया गया तथा 1908 ई. में उन्होंने डूंगरपुर राज्य का बेड़सा गाँव व दक्षिणी राजस्थान के भील भू-भाग छोड़ दिए। (जनजातीय आन्दोलन)
 
गोविन्द गिरि ने 1908 से 1911 ई. तक बम्बई प्रान्त के ईडर एवं सूंथ राज्यों (गुजरात) के भीलों में अपना कार्य जारी रखा तथा इस दौरान उन्होंने उकरेली और सूरपुर गाँवों में हाली के रूप में भी काम किया था। गोविन्द गिरि 1911 ई. के प्रारम्भ में डूंगरपुर स्थित अपने मूल स्थान बेड़सा वापस आ गये और धूनी स्थापित कर ‘भगत पंथ’ की शुरूआत की तथा उन्होंने प्रत्येक गाँव में अपनी धूनी स्थापित कर इनकी सुरक्षा के लिए कोतवाल नियुक्त किए, तो वहीं उनका प्रभाव दक्षिणी राजस्थान व गुजरात के भील क्षेत्रों में फैल गया तथा ईडर, सूंथ, बाँसवाड़ा एवं डूंगरपुर राज्यों के अलावा गुजरात के पंचमहल व खेड़ा जिले के भील गोविन्द गिरि के केन्द्र बेड़सा आने लगे। (जनजातीय आन्दोलन)
 
डूंगरपुर पुलिस ने अप्रैल, 1913 ई. में गोविन्द गिरि को गिरफ्तार कर लिया और डूंगरपुर राज्य के बाहर रहने की शर्त पर मुक्त कर दिया, तो वहीं अक्टूबर, 1913 ई. में गोविन्द गिरि ईडर होते हुये बाँसवाड़ा व सूंथ राज्यों की सीमा पर स्थित मानगढ़ की पहाड़ी (वर्तमान बाँसवाड़ा जिले में स्थित) पर पहुँचे और उन्होंने भीलों को पहाड़ी पर एकत्रित होने के लिए सन्देशवाहक भेजे तथा धीरे-धीरे भारी संख्या में भील पहाड़ी पर आने लगे जो अपने साथ राशन-पानी व हथियार भी ला रहे थे, तो वहीं भीलों की गतिविधियों से चिंतित ईडर, सूंथ, डूंगरपुर एवं बाँसवाड़ा राज्यों ने अंग्रेज अधिकारियों से भीलों के दमन का आग्रह किया। (जनजातीय आन्दोलन)
 
मेवाड़ भील कोर की दो कम्पनियों, 104 वेलेजली रायफल्स की एक कम्पनी व सातवीं राजपूत रेजीमेन्ट की एक कम्पनी ने 6 से 10 नवम्बर, 1913 ई. में मानगढ़ की पहाड़ी को घेर लिया और 12 | नवम्बर, 1913 ई. को गोविन्द गिरि ने एक माँग पत्र के साथ अपने प्रतिनिधियों को वार्ता करने अधिकारियों के पास भेजा तथा मांगें माने जाने तक तितर-बितर होने से मना कर दिया। (जनजातीय आन्दोलन)
 
अंग्रेजी फौजों ने 17 नवम्बर, 1913 ई. को मानगढ़ पहाड़ी पर आक्रमण कर दिया, तो वहीं भीलों ने साहसपूर्वक मुकाबला किया, परन्तु भयंकर जनसंहार के बाद उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। इस जनसंहार में 1500 लोग मारे गए तथा हजारों लोग घायल हुए। (जनजातीय आन्दोलन)
 
मानगढ़ राजस्थान का ‘जलियांवाला बाग’ कहलाता है। उल्लेखनीय है कि इस प्रसिद्ध भगत आंदोलन का नेतृत्व गोविन्द गिरि के अलावा गोबपालिया और पूंजा धीरजी ने किया था। गोविन्द गिरि को गिरफ्तार कर अहमदाबाद जेल भेज दिया गया, जहाँ उन्हें मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गई, लेकिन सात वर्ष बाद . उन्हें रिहा कर दिया गया, तो वहीं रिहाई के बाद गोविन्द गिरि सरकारी निगरानी में अहमदाबाद सम्भाग के पंचमहल जिले के झालोद गाँव में रहने लगे और उन्होंने अपना अन्तिम समय गुजरात राज्य के कम्बोई नामक स्थान पर व्यतीत किया तथा यहीं पर उनका अन्तिम संस्कार (1931 ई.) हुआ। (जनजातीय आन्दोलन)
 
वागड़ के भील आदिवासियों की यह शहादत व्यर्थ नहीं गई, बल्कि मानगढ़ की दुखान्त घटना के पश्चात् गोविन्द गिरि की अधिकांश माँगों को आदिवासी क्षेत्रों में आंशिक तौर पर लागू कर दिया गया। जलियांवाला बाग से भी वीभत्स इस हत्याकाण्ड की राष्ट्रीय स्तर पर उपेक्षा हुई, तो वहीं किसी भी तथाकथित सभ्य समाज की संस्था ने न तो इस हत्याकाण्ड की आलोचना की एवं न ही इस शहादत को सराहा।
 
ध्यातव्य रहे-लीमड़ी नामक स्थान के पास कम्बोई स्थान पर गोविन्द गिरि का अन्तिम समय बीता, तो वहीं भगत पंथ में दीक्षित व्यक्ति को गले में रुद्राक्ष की माला व धूणी जलानी पड़ती थी। मेवाड़, वागड़ और आस-पास के क्षेत्रों में सामाजिक सुधार के लिए ‘लसाड़िया आंदोलन’ का सूत्रपात गोविन्द गिरि ने किया। (जनजातीय आन्दोलन)

मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में

एकी/भोमट जनजातीय आन्दोलन

 
बिजौलिया किसान आन्दोलन ने भीलों व गरासियों में पुनः जागृति उत्पन्न की और उन्होंने मई, 1917 ई. में अपनी समस्याओं को दूर करने के लिए मेवाड़ महाराणा को पत्र लिखा, तो वहीं मेवाड़ महाराणा ने नवम्बर, 1918 ई. में उन्हें कुछ रियायतें दी परन्तु लेकिन भील इन रियायतों से सन्तुष्ट नहीं हुए और उनमें असंतोष बना रहा। (जनजातीय आन्दोलन)
 
ऐसी स्थिति में मोतीलाल तेजावत ने भीलों का नेतृत्व किया। वे उदयपुर राज्य के झाड़ोल ठिकाने के कोलियारी गाँव के निवासी थे और उनका जन्म 1886 ई. में ओसवाल (बनिया) परिवार में हुआ था। मोतीलाल तेजावत ने उदयपुर और सिरोही के आदिवासियों में जागृति लाने का काम किया, उन्होंने अत्यधिक करों, बेगार आदि के विरूद्ध 1921 में मातृकुण्डिया (चित्तौड़गढ़) से एकी आंदोलन चलाया। यह आंदोलन भीलों के भोमट क्षेत्र में चलाया गया इसलिए इसे भोमट भील आंदोलन भी कहते हैं। इस आन्दोलन के प्रणेता मोतीलाल | (जनजातीय आन्दोलन)
 
तेजावत थे। भील जनजाति इन्हें अपना मसीहा मानती थी अत: इन्हें ‘बावजी’ के नाम से पुकारती थी। 1921 में ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी को एकी आन्दोलन के प्रसार के लिए मोतीलाल तेजावत ने बदराना गाँव में हरिहर मन्दिर में एक सभा का आयोजन किया और उपस्थित लोगों ने अनुचित कर व बेगार नहीं देने का निर्णय लिया, तो वहीं सर्वप्रथम झाड़ोल ठिकाने के भीलों ने बेगार व कर देना बन्द कर दिया। झाड़ोल मोतीलाल तेजावत की गतिविधियों का मुख्य केन्द्र था । मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में सात-आठ हजार किसान व आदिवासी पिछोला झील की पाल पर एकत्रित हुए। (जनजातीय आन्दोलन)
 
मोतीलाल तेजावत ने महाराणा के समक्ष 21 सूत्री माँग पत्र प्रस्तुत किया, जिसे ‘मेवाड़ पुकार’ नाम दिया गया, तो वहीं मेवाड़ महाराणा ने कई मांगों को स्वीकार कर लिया लेकिन उन्हें राज्य के कर्मचारियों ने कार्यरूप में परिणित नहीं होने दिया। मोतीलाल तेजावत ने आन्दोलन को गति प्रदान करने के लिए घर-घर जाकर लोगों में चेतना जागृत की तथा उन्होंने भीलों में प्रचलित कुरीतियों (मद्यपान, गौ-वध, कन्या विक्रय आदि) के विरुद्ध अभियान चलाया। मोतीलाल तेजावत की सलाह पर भोमट क्षेत्र के समस्त भीलों ने जागीरदारों को कर देना बन्द कर दिया। (जनजातीय आन्दोलन)
 
झाड़ोल ठाकुर ने भीलों को भड़काने के आरोप में 10 अगस्त, 1921 ई. को मोतीलाल तेजावत को गिरफ्तार कर लिया लेकिन भीलों के संगठित विरोध के कारण उन्हें छोड़ दिया गया। यह आन्दोलन दिसम्बर, 1921 ई. तक ईडर, सिरोही आदि क्षेत्रों में भी फैल गया, तो वहीं मेवाड़ महाराणा ने 31 दिसम्बर, 1921 ई. को एक आदेश जारी कर भोमट क्षेत्र में 50 से अधिक भीलों के एकत्र होने पर रोक लगा दी तथा मोतीलाल तेजावत की गिरफ्तारी पर 500 रूपये का ईनाम घोषित किया। (जनजातीय आन्दोलन)
 
मोतीलाल तेजावत ने जनवरी, 1922 ई. में सिरोही राज्य में प्रवेश किया जहाँ भारी संख्या में भील व गरासिया आदिवासी रहते थे तथा यहाँ उन्होंने समाज सुधार के साथ-साथ आर्थिक संघर्ष भी शुरू किया। मोतीलाल तेजावत ने मार्च, 1922 ई. में गुजरात के ईडर राज्य में प्रवेश किया, तो वहीं जब वे अपने 2000 अनुयायियों के साथ पाल छितरिया नामक स्थान पर रुके हुये थे तब 7 मार्च, 1922 ई. को मेजर सूटन की कमाण्ड वाली मेवाड़ भील कोर ने उन्हें घेर लिया और उन पर गोलियाँ चलाई गई, जिसमें 22 लोग मारे गए और 20 लोग घायल हुए। राजस्थान सेवा संघ के अनुसार इस घटना में मरने वालों की संख्या लगभग 1200 थी।
 
ए.जी.जी. के सचिव मेजर प्रिचार्ड के नेतृत्व में 5-6 मई, 1922 ई. को राजकीय सेना व मेवाड़ भील कोर की टुकड़ी ने रोहिड़ा तहसील के बालोलिया और भूला गाँवों पर आक्रमण कर दिया, जिसमें 50 लोग मारे गए।
 
इन घटनाओं की जाँच हेतु राजस्थान सेवा संघ ने रामनारायण चौधरी और सत्यभक्त को नियुक्त किया था। 1922 ई. में मोतीलाल तेजावत ने सिरोही में एकी आन्दोलन चलाया तथा इस समय राष्ट्रीय नेता मदनमोहन मालवीय का पुत्र रमाकान्त मालवीय सिरोही राज्य का दीवान था, तो वहीं सिरोही राज्य ने 23 मई, 1922 ई. को भीलों की अधिकांश माँगों को स्वीकार कर राज्य में भील आन्दोलन को समाप्त करने में सफलता प्राप्त की तथा भोमट के जागीरदारों ने भी जून, 1922 ई. में भीलों को अनेक रियायतें देकर आन्दोलन को क्षीण कर दिया था।
 
ईडर राज्य की पुलिस ने 3 जून, 1929 ई. को खेड़बह्मा नामक गाँव से मोतीलाल तेजावत को गिरफ्तार कर लिया और उनकी गिरफ्तारी के साथ ही उदयपुर व सिरोही राज्य में भी यह आदिवासी आन्दोलन समाप्त हो गया, तो वहीं 1936 ई. में मणिलाल कोठारी के प्रयासों और राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेने का वचन देने पर मोतीलाल तेजावत को रिहा कर दिया गया। (जनजातीय आन्दोलन)
 
1936 ई. में मोतीलाल तेजावत ने उदयपुर में ‘बनवासी सेवा संघ’ की स्थापना की थी। 1963 ई. में मोतीलाल तेजावत की मृत्यु हो गई । मोतीलाल तेजावत जी को ‘मेवाड़ का गांधी’ भी कहा जाता है।
 
ध्यात्वय रहे-मोतीलाल तेजावत 1921-22 में मेवाड़ के भीलों | के आदिवासी किसान आंदोलन के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक है। (जनजातीय आन्दोलन)
 

मीणा जनजातीय आन्दोलन

 
1851 ई. में उदयपुर राज्य के जहाजपुर परगने के मीणाओं ने नई व्यवस्था के प्रति अपना रोष प्रकट करने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। 1851 ई. में मेवाड़ महाराणा ने मेहता रघुनाथ सिंह को जहाजपुर का नया हाकिम नियुक्त किया, तो वहीं रघुनाथ सिंह प्रशासनिक सुधारों के नाम पर जनता से धन वसूल कर रहा था, जिसके परिणामस्वरूप बहुसंख्यक मीणा समुदाय ने उपद्रव का रास्ता अपनाया और विद्रोही मीणाओं ने न केवल राजस्व अधिकारियों व महाजनों को लूटा बल्कि समीप स्थित अजमेर-मेरवाड़ा के अंग्रेज प्रान्त पर भी धावे मारे। (जनजातीय आन्दोलन)
 
मेवाड़ महाराणा ने विद्रोह के दमन के लिए नया हाकिम मेहता अजीतसिंह को नियुक्त किया और उसके साथ शाहपुरा, बनेड़ा, बिजौलिया, भैसरोड़गढ़, जहाजपुर एवं माँडलगढ़ के जागीरदारों की सेनाएं व भीम पलटन एवं एक लिंक पलटन के सिपाही दो तोपों सहित शामिल थे लेकिन इस संयुक्त अभियान को विशेष सफलता नहीं मिली।
 
राजपूताना के ए. जी. जी., मेवाड़ का पॉलिटिकल एजेन्ट व हाड़ौती का पॉलिटिकल एजेन्ट संयुक्त रूप से दिसम्बर, 1854 ई. में सेना सहित जहाजपुर पहुँचे तथा एक महीने तक जहाजपुर और ईटोदा में रुके रहे, तो वहीं जनवरी, 1855 ई. के अन्त तक मीणे इस सेना के समक्ष आत्मसमर्पण के लिए बाध्य हो गये थे। (जनजातीय आन्दोलन)
 
फरवरी, 1855 ई. में भविष्य में मीणों का सामना करने के लिए देवली में एक सैनिक छावनी स्थापित की गई, तो वहीं 1855 ई. में देवली छावनी को नवगठित अनियमित सेना का मुख्यालय बताया गया, जो 1857 से 1860 ई. के दौरान 42वीं देवली रेजीमेन्ट या मीणा बटालियन के नाम से जानी जाती रही।
 
जहाजपुर के मीणों ने जनवरी, 1860 ई. में पुनः विद्रोह किया और महाराणा ने चन्दसिंह के नेतृत्व में जहाजपुर की ओर सेना भेजी, जिसने भारी संख्या में मीणों को बन्दी बनाया तथा छः लोगों को तोप उड़ा दिया और इस प्रकार जहाजपुर का मीणा विद्रोह अन्तिम रूप से नियन्त्रित हो गया।
 
ध्यातव्य रहे-1921 ई. में 42वीं देवली रेजीमेन्ट व 43वीं एरिनपुरा रेजीमेन्ट को समाप्त कर उनके स्थान पर ‘मीणा कॉर्पस’ की स्थापना की गई। 
 
मीणा जनजाति दो भाग में बंटी हुई थी, एक तो जमींदार वर्ग व दूसरा चौकीदार वर्ग। इनमें से चौकीदार वर्ग को चोरी व डकैती के लिए जिम्मेदार ठहराया गया। भारत सरकार ने 1924 में ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ (आपराधिक जनजाति अधिनियम) लागू कर दिया गया, जिसके तहत हर मीणा परिवार के 12 वर्ष से बड़े स्त्री-पुरुष को थाने में हाजिरी व नाम प्रतिदिन दर्ज करवाना अनिवार्य था।
 
इस कार्यवाही के विरोध में ‘मीणा जाति सुधार कमेटी’ की स्थापना की लेकिन इस संस्था का लोप हो गया। जयपुर राज्य ने भी ‘जरायमपेशा कानून’ बनाकर मीणों को अपराधी जाति घोषित कर दिया, तो वहीं इस कानून के अनुसार 25 वर्ष से अधिक आयु के प्रत्येक स्त्री-पुरुष को प्रतिदिन पुलिस थाने में उपस्थिति देनी पड़ती थी। (जनजातीय आन्दोलन)
 
1924 ई. के कानून का विरोध करने और मीणाओं में जागृति उत्पन्न करने तथा उनमें प्रचलित कुरीतियों को दूर करने के लिए छोटूराम झरवाल, महादेवराम, पबड़ी तथा जवाहरराम मीणा ने ‘मीणा जाति सुधार समिति’ की स्थापना की। जयपुर में 1933 ई. में ‘मीणा क्षत्रीय महासभा’ गठित हुई जिसने जयपुर रियासत से जरायम पेशा कानून समाप्त करने की मांग की।
 
जैन मुनि मगनसागर जी ने 1944 ई. में ‘मीनपुराण’ लिखकर मीणा जाति को उसके प्राचीन गौरव से अवगत कराया, तो वहीं 7 अप्रैल, 1944 को नीमकाथाना (सीकर) में मगनसागरजी की अध्यक्षता में एक मीणा सम्मेलन हुआ, जिसमें ‘जयपुर राज्य मीणा सुधार समिति’ की स्थापना हुई और बंशीधर शर्मा को इसका अध्यक्ष बनाया गया। (जनजातीय आन्दोलन)
 
1945 में मीणा सुधार समिति का श्रीमाधोपुर में सम्मेलन हुआ जिसमें जरायम पेशा कानून के विरोध में व्यापक आन्दोलन का निर्णय लिया गया। 3 जुलाई, 1946 को ठक्कर बापा एवं मीणा सुधार समिति के प्रयासों से जयपुर राज्य ने गैर-अपराधी मीणों को जरायमपेशा कानून से मुक्त कर दिया। (जनजातीय आन्दोलन)
 
बालावास (सीकर) में 28 अक्टूबर, 1946 को मीणाओं का महासम्मेलन हुआ, जिसमें मीणाओं ने स्वेच्छा से ‘चौकीदारी’ के काम से त्यागपत्र दे दिया। हीरालाल शास्त्री और टीकाराम पालीवाल के प्रयत्नों से 1952 ई. में मीणाओं पर लगे सभी प्रतिबंध समाप्त कर दिये गये। 
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